Friday, June 13, 2025
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फसलों में परागण हेतु भंवरे की उपयोगिता

KHETIBADI


भंवरा एक वन्य कीट है जो कृत्रिम परपरागण क्रिया में सहायक है। विदेशों जैसे कि यूरोप, उत्तर अमरीका, हालैंड, चीन, जापान, तुर्की, कोरिया आदि में भंवरा पालन बड़े पैमाने में व्यावसायिक तौर पर किया जाता है। मुख्य: इसका प्रयोग सयंत्रित प्रक्षेत्रों (हरितगृह) में फसलों के परपरागण हेतु उनकी उत्पादन एवं गुणवत्ता के स्तर को बढ़ाने के लिए किया जाता है।

फसलें जैसे कि टमाटर, तरबूज, सेब, नाशपाती, स्ट्राबेरी, ब्लैकबेरी, ब्लूबेरी,कीवी इत्यादि में अच्छे उत्पादन के लिए परपरागण क्रिया पर निर्भर करती है। अत: यह आवश्यक हो जाता है कि इन फसलों की पूर्ण एवं पर्याप्त स्तर पर परागण क्रिया हो।

भारत में भंवरा पालन की शुरुआत 2000 में डा. वाईएस परमार औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय के कीट विज्ञान विभाग में की गई। कड़ी मेहनत के पश्चात भंवरा पालन तकनीक इजात की गई, जिसमें वसंत के आगमन पर भंवरा रानियों को जाली की मदद से एकत्रित करके प्रयोगशाला में लाया जाता है, जहां इन रानियों को लकड़ी के डिब्बों में रखा जाता है। रानियों को खाने के लिए 50 प्रतिशत सुकरोस/चीनी का घोल एवं मधुमक्खियों द्वारा एकत्रित परागण एक छोटे ढक्कर (लोहे अथवा प्लास्टिक के) में डालकर दिया जाता है।

इन डिब्बों को 65-70 प्रतिशत आर्द्रता एवं 25-280 सेल्सियस तापमान में अंधेरे कक्ष अथवा इनक्यूबेटर में रखा जाता है। कुछ दिन पश्चात रानी भंवरा मक्खी अपने शरीर की मोम ग्रंथियों से मोम निकालकर कोष्ठक बनाती है, जिनमें लगभग 2-4 अंडे देती है और उन्हें सेकती है। अंडे 36-72 घंटों बाद फूटते हैं, जिनसे सफेद रंग के सुंडीनुमा शिशु निकलते हैं। रानी मक्खी इन शिशुओं को परागणकण एवं चीनी को मिलाकर प्रतिदिन भोजन के तौर पर देती है। शिशु मोम से बने कोष्ठ में ही बड़े होते हैं और लगभग 26-33 दिनों में व्यस्क भंवरा मक्खी बनकर कोष्ठ से बाहर निकलता है।

भंवरा पालने की यह तकनीक 2011 तक इसी तरह चलती रही। इस तकनीक में यह खामी थी कि जैसे ही वर्षा ऋतु शुरू होती, भंवरा वंश भी समाप्त होने लगते, जिसके कारण भंवरा पालन केवल 4-5 महीने फरवरी-मार्च से जुलाई-अगस्त तक होता था। पुरानी विधि के अनुसार ही भंवरा पालन शूरू किया गया और फिर जब भंवरा वंशों में जनसंख्या 10-25 भंवरे प्रति वंश/कालोनी हो जाती है

तो उन्हें प्राकृतिक वातावरण में मिट्टी के बनाए गए डिब्बों या लकड़ी के डिब्बे जो मधुमक्खी पालन में प्रयोग किए जाते हैं, में स्थानांतरित किया जाता है। पहले कृत्रिम खुराक दी जाती है। थोड़े ही समय में (3-8 दिन) भंवरे प्राकृतिक तौर पर भोजन इकट्ठा करना शुरू कर देते हैं। कुछ ही दिनों में भंवरा कालोनियों में शिशु पालन बढ़ने लग जाता है और वंश प्राकृतिक तौर पर आत्मनिर्भर हो जाते हैं।

हेमंत ऋतु के आगमन पर कालोनी में नई रानियां और ड्रोन निकलते हैं। इन रानियों और ड्रोन मक्खियों को कालोनी से निकाल कर प्रयोगशाला में कृत्रिम तरीके से संभोग करवाकर, प्रजनन हेतु नियंत्रित वातावरण में (65-70 प्रतिशत आर्द्रता एवं 25-280 सेल्सियस पर) रख कर पाला जाता है। इन्हें परागण एवं चीनी का घोल भी दिया जाता है।

-हीरेंद्र यादव


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