राजेंद्र कुमार शर्मा
यीशु के कब्र में बिताए गए तीन दिन मन की तीन गतिविधियों को दर्शाते हैं जो गलतियों पर विजय पाने में सहायक हैं। पहला, प्रतिरोध न करना और विनम्रता, दूसरा, ईश्वरीय गतिविधि को अपनाना या ईश्वर की इच्छा को स्वीकार करना; तीसरा, ईश्वरीय इच्छा को आत्मसात करना और उसे पूरा करना। यीशु के एक अन्य संदेश का अर्थ है कि व्यक्तिगत महिमा के लिए आध्यात्मिक शक्ति और उपलब्धियों का प्रदर्शन नहीं किया जाना चाहिए। क्योंकि हम आध्यात्मिक शक्ति हमारे नियंत्रण से बाहर है। हम सही को जानते हैं , हम न्यायी को जानते हैं, हम शुद्धता को जानते हैं।
सभी संत, परमेश्वर का मन लेकर इस धरा पर आते हैं। मसीह यीशु में जो मन था वह परमेश्वर का मन था। हमे यह सब एक अलौकिक उपलब्धि लगती है। व्यक्तिगत रूप से देखा जाए तो हम कह सकते हैं कि सत्य के सिद्धांतों ने आत्मा के बुद्धिमान पदार्थ को पकड़ लिया है और ध्यान मनन द्वारा मसीह को अभिव्यक्ति में लाया या प्रकट किया है। आध्यात्मिक चेतना को व्यक्तिगत अहंकार से बचाना बुद्धिमानी है।बारह वर्ष की आयु में धर्मस्थल में यीशु का प्रकट होना हमारे भीतर बढ़ती हुई चेतना का प्रतिनिधित्व करता है कि हम परमेश्वर की संतान हैं।विजय का स्थान मनुष्य की चेतना के भीतर है । रूढ़िवादी चर्च अपने विश्वासियों को 40-दिवसीय नैटिविटी उपवास के माध्यम से ईसा मसीह के जन्मोत्सव का स्वागत करने के लिए तैयार करता है, जो 15 नवंबर से 25 दिसंबर तक चलता है। चालीस दिनों का उपवास इंद्रियों पर नियंत्रण का एक मार्ग है, उपवास में, हम अपने विचारों में भौतिक आवश्यकताओं का त्याग कर , आध्यात्मिक उन्नति करते हैं। परंतु एक समय के बाद इंद्रिय चेतना की वापसी होती है । शैतान व्यक्तित्व है , प्रतिकूल चेतना जो अज्ञानता और ईश्वरीय कानून की अवहेलना में निर्मित हुई है।
जब हमारी चेतना में अपनी ईश्वर-प्राप्त आध्यात्मिक क्षमताओं और शक्तियों का उपयोग अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के निर्माण के लिए करने का लालच पैदा होता है, तो उस समय सिर्फ ईश्वर की सेवा ही एक मात्र सहारा बचता है जिसका अर्थ शरीर और कार्यों में आध्यात्मिकता का निर्माण करना है। सत्य के विषय में हमारी खोज बहुत सीमित है। हमें ऐसा अनुभव करना भी एक कल्पना लगता है कि प्रभु यीशु या परमात्मा ऐसी महान शक्ति है जो हमें इंद्रियों के बंधनों से मुक्ति प्रदान कर सकता है।परमेश्वर के वचन की तलाश किए बिना , हम भौतिकता से आत्मा को संतुष्ट नहीं कर सकते हैं।हमें अपनी आत्मा को प्रतिदिन नई सच्चाइयों से भरना होगा , ताकि हम आध्यात्मिक मार्ग पर शुचिता के साथ बढ़ सकें। हर बुराई से मुक्ति दिलाने वाली शक्ति हमारे भीतर है। यह हमारे भीतर निवास करने वाले मसीह के अनुग्रहपूर्ण शब्दों में है।
यीशु के कब्र में बिताए गए तीन दिन मन की तीन गतिविधियों को दर्शाते हैं जो गलतियों पर विजय पाने में सहायक हैं। पहला, प्रतिरोध न करना और विनम्रता, दूसरा, ईश्वरीय गतिविधि को अपनाना या ईश्वर की इच्छा को स्वीकार करना; तीसरा, ईश्वरीय इच्छा को आत्मसात करना और उसे पूरा करना। यीशु के एक अन्य संदेश का अर्थ है कि व्यक्तिगत महिमा के लिए आध्यात्मिक शक्ति और उपलब्धियों का प्रदर्शन नहीं किया जाना चाहिए। क्योंकि हम आध्यात्मिक शक्ति हमारे नियंत्रण से बाहर है। हम सही को जानते हैं , हम न्यायी को जानते हैं, हम शुद्धता को जानते हैं।
हम संतों से चमत्कारों की अपेक्षा रखते हैं। उनके दिव्य होने का सबूत मांगते हैं। वो भी आध्यात्मिक नियमों को पूरा किए बिना। हम शाश्वत के बजाय अस्थायी की तलाश कर रहे होते हैं। हम मन के इस सतही आचरण को हावी होने देते हैं, और उस दिव्य आत्मा को अस्वीकार कर, इसे अपने बीच से बाहर निकाल देते हैं। हम जानते है प्रभु यीशु ने अपने आप को पुनर्जीवित किया था वैसे ही हम भी अपने शरीर को पुनर्जीवित कर सकते हैं। हम अपने शरीर को एक नया मन-आत्मा का मन-डालकर पुनर्जीवित करते हैं। अज्ञानता और पाप शरीर को मार देते हैं, बौद्धिकता और धार्मिकता इसे जीवन देती है। परमपिता परमात्मा निराकार है, वो शरीर नहीं एक विचार है। जब हम उस विचार को अपने शरीर में पहचान लेते हैं हम उन्हें उनकी आध्यात्मिक वास्तविकता में आमने-सामने देखेंगे।