Friday, July 18, 2025
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शिक्षा व्यवस्था का बदलता स्वरूप

Samvad 49

स्वतंत्र भारत के आधुनिकता के विचार का केंद्र बिंदु शिक्षा है। हमारी शिक्षा प्रणाली में लम्बे समय तक यूरोपियन आधुनिकता का पुट दिखाई पड़ा। दौलत सिंह कोठरी (1986) से लेकर प्रोफेसर यशपाल (1992) और अब डा. के. कस्तूरी रंगन (2020), सभी के द्वारा भारतीय शिक्षा प्रणाली को वैज्ञानिकता के आधार पर विकसित करने के सार्थक प्रयास किये गए। इन ख्यातिलब्ध शिक्षाविदों द्वारा सुझाए गए शिक्षा सुधारों को सरकारों ने अपनी सुविधानुसार अपना लिया लेकिन शिक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ एवं देश, काल और समाज के अनुकूल बनाने के लिए जरूरी आधारभूत ढांचागत सुविधाओं को विकसित करने की ओर ध्यान नहीं दिया। इसके पीछे एक बड़ा कारण है कि साधन सम्पन्न नीति निर्धारकों, और एलीट राजनेताओं के बच्चे अब अध्ययन के लिए इन शिक्षण संस्थानों में दाखिला नहीं लेते बल्कि सुविधा सम्पन्न निजी स्कूलों में जाने लगे हैं।

इस देश का दुर्भाग्य है कि सरकारों की प्राथमिकताओं और देश की जनता की आवश्यकताओं में सदैव अंतर विद्यमान रहता है। सरकारों ने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई। गांव की प्राथमिक शिक्षा खत्म हो गई। पहले प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा को निजी हाथों में दिया गया और अब उच्च शिक्षा को भी काफी तेज गति से निजी हाथों में देने की बात चल रही है। प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा आज से करीब 50 वर्ष पहले काफी अच्छी तरह से परफॉर्म कर रही थी। लेकिन निजी हाथों में आने से सरकारी स्कूलों में जो सामाजिक दबाव था वह धीरे-धीरे खत्म होता चला गया। आज इन सरकारी स्कूलों की हालत किसी से छिपी हुई नहीं है। प्राथमिक शिक्षा पूर्णतया निजी हाथों में चली गई है।

यदि उच्च शिक्षा को इसी तरह निजी हाथों में मुनाफाखोरी के लिए दिया गया तो इससे जो थोड़ा बहुत नैतिक और सामाजिक दबाव इन सार्वजनिक संस्थानों पर है वह भी खत्म हो जाएगा और उच्च शिक्षा का हाल भी आज की प्राथमिक शिक्षा जैसा ही हो जाएगा। इससे गुणवत्ता पूर्ण उच्च शिक्षा आम आदमी की पहुंच से बहुत दूर होती चली जायेगी। उच्च शिक्षा, केवल साधन सम्पन्न लोगों जिनमें उच्च शिक्षा को क्रय करने की आर्थिक क्षमता होगी, तक ही सीमित हो जायेगी। यह तर्क बिल्कुल सही है कि उच्च शिक्षा केवल योग्य लोगों तक ही सीमित होनी चाहिए। लेकिन यह योग्यता आर्थिक और सामाजिक न होकर बौद्धिक होनी चाहिए। और बौद्धिक योग्यता हासिल करने के लिए सभी को हायर सेकेंडरी तक एक समान अवसर उपलब्ध कराए जाने चाहिए। जो भी पॉलिसी बनाई जाती है उसके कुछ न कुछ तो लॉजिक होते ही हैं। बहुत सारी अच्छी बातें भी होती हैं लेकिन हमें उसे समग्रता में देखने की जरूरत है।

पिछले कुछ वर्षों से शिक्षण संस्थाओं के पाठ्यक्रमों में सरकार का दखल बढ़ता जा रहा है। शिक्षण संस्थाओं, विशेषकर विश्वविद्यालयों, की स्वायत्तता नाम मात्र की रह गई है। संस्थाओं पर सत्र को नियमित करने के लिए सरकार का दबाव होता है। इससे शिक्षण संस्थानों में शिक्षण कार्य की अवधि सिकुड़ने लगी है। विश्वविद्यालयों में राजनीतिक हस्तक्षेप हद से ज्यादा होने लगा है। विश्वविद्यालय के ढांचे में डेमोक्रेटिक स्पेस कम होता जा रहा है। दरअसल, विश्वविद्यालय और महाविद्यालय नई बहस, वाद-विवाद, और संवाद का बड़ा मंच होते हैं। वाद-विवाद, बहस और संवाद विद्यार्थियों को ज्ञानवान बनाते हैं। विश्वविद्यालयों में सभी विचारधाराओं के लिए अपना विचार रखने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। शिक्षण संस्थानों में शैक्षणिक वातावरण ऐसा होना चाहिए जिससे कि गांव-गरीब, किसान-मजदूर, हिन्दू- मुसलमान, दलित-आदिवासी, सभी परिवारों के बच्चों को देश के विकास की मुख्य धारा में योगदान देने का अवसर मिल सके।

दुर्भाग्य से शिक्षा के क्षेत्र में अधिकांश ऐसे लोगों ने अपनी पकड़ बना ली है, जिनका शिक्षा से दूर-दूर तक कोई प्रत्यक्ष सम्बंध नहीं है। शिक्षण संस्थानों को व्यावसायिक केंद्रों में परिवर्तित कर दिया गया है। अधिकांश संस्थाओं के प्रमुख इस या उस राजनीतिक दल के प्रभाव से स्वतंत्र नहीं हो पाते हैं। कुछ तो अपने इस व्यवहार से अपने को गौरवान्वित अनुभव करते हैं, और उनकी यह अनुभूति कब अहंकार का रूप ले लेती है, उन्हें पता ही नहीं चलता। इसी अहंकार में डूबे हुए वे हिंदुस्तान के युवाओं के भविष्य का फैसला कर रहे होते हैं।

अब्राहम लिंकन ने कहा था कि एक पॉलिटीशियन अगले इलेक्शन के विषय में सोचता है, जबकि एक स्टेट्समैन अगली जनरेशन के विषय में सोचता है। प्रोफेसर यशपाल के अनुसार ‘शिक्षा वो होती है जिसमें बात से बात निकले’। शिक्षा प्राप्त कर जब आप शिक्षण संस्थान से विदा होते हैं तो आपके भीतर बुद्धिमत्ता का संगीत बजना चाहिए। सरकार चाहे किसी की हो, विद्यार्थी का काम सवाल पूछना, तर्क के साथ बहस करना, अपनी बातों को सहजता पूर्वक दूसरों तक पहुंचाना, और संयम के साथ दूसरों की बातों को सुनकर अपनी राय देना है।

बड़े अफसोस की बात है कि आज शिक्षक ने बोलना छोड़ दिया है। उसने व्यवस्था के खिलाफ लिखना बंद कर दिया है। वह राजनेताओं की चालीसा लिख रहा है। वैज्ञानिक सोच खोजी प्रवृति, और सुधार को बढ़ावा देती है। धूर्त, विकृत मानसिकता की पितृ सत्तात्मक सोच, वैज्ञानिकता और तर्कशक्ति पर भारी पड़ती नजर आती है। यदि कोई तर्कशील व्यक्ति कुछ प्रतिरोध के स्वर उठाने की कोशिश भी करे, तो आस्था के नाम पर मुंह बंद करा दिया जाता है। ऐसे शिक्षकों की संख्या घटती जा रही है जो कक्षाओं में विद्यार्थियों को पढ़ाना अपना मौलिक कर्तव्य समझते हों। शिक्षक की प्राथमिकताओं में कक्षा में शिक्षण कार्य से इतर अपना अकादमिक प्रदर्शन सूचकांक (एपी आई स्कोर) बढ़ाने की ओर अधिक है। संस्था के मुखिया को खुश रखना या किसी राजनीतिक आका के माध्यम से संस्था के मुखिया तक अपनी पहुंच मजबूत करना भी अधिकांश शिक्षकों की प्राथमिकताओं में शामिल है।

आज, हमारी शिक्षा व्यवस्था परीक्षा केंद्रित हो चुकी है। शिक्षा व्यवस्था के केंद्र में शिक्षा नहीं है। विद्यार्थी कक्षाओं से गायब है। वह केवल परीक्षा देने के लिए ही जा रहा है। परीक्षा में सफलता पाने के लिए विद्यार्थी किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार है। शिक्षण संस्थाएं शिक्षा प्रदान न कर केवल परीक्षा समय से सम्पन्न कराने की एजेंसी बन कर रह गईं हैं। अधिकांश विद्यार्थी कॉलेज में औपचारिक उपाधि लेने के लिए दाखिला लेते हैं। वे कॉलेज न जाकर किसी कोचिंग/टयूशन के लिए जाना पसन्द करते हैं। जिसके पास कोचिंग की फीस के लिए पैसे नहीं है, वही विद्यार्थी कक्षाओं में उपस्थित के लिए यदा-कदा दिखाई दे रहे हैं।

जब तक सरकार द्वारा पोषित प्राथमिक शिक्षण संस्थाओं को मजबूत नहीं किया जाएगा, तब तक आप शिक्षा व्यवस्था में सुधार की कल्पना भी नहीं कर सकते। सरकारों द्वारा पोषित प्राथमिक शिक्षण संस्थाओं को जानबूझकर डिस्क्रेडिट किया जाता रहा है। यह सब स्व-वित्त पोषित संस्थाओं को अपना व्यवसाय बढ़ाने में मदद करता है।

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