किताबों से दुनिया नहीं बदलती। किताबें आपके भीतर की बर्फ को पिघलाती हैं। किताबें बताती हैं कि दुनिया को कहां-कहां से बदलना चाहिए। किताबें एक बेहतर दुनिया का रोड मैप देती हैं। किताबें उस अव्यवस्था पर उंगली रखती हैं, जिसे चाहे अनचाहे हमने स्वीकार कर लिया है। किताबें आपको उस भारत की तस्वीर दिखाती हैं, जिसे महज इसलिए छिपा दिया गया क्योंकि उससे ‘सकारात्मक भारत’ या ‘न्यू इंडिया’ की तस्वीर धुंधली पड़ती है। देश में रहने वाले वंचितों, उपेक्षितों की आवाजें अक्सर नहीं सुनी जाती हैं, इसलिए भी नहीं सुनी जाती हैं क्योंकि ये आवाजें आपके रंग में भंग डालती हैं। आप कह सकते हैं कि भारत के भीतर ही बहुत सी ऐसी दुनियाएं हैं, जिनके बारे में आप शायद जानते हों या आपने कभी पढ़ा हो लेकिन उन दुनियाओं से आपका सीधा सीधा कोई वास्ता नहीं होता। ये दुनियाएं आपको ‘डिस्टर्ब’ नहीं करतीं। लेकिन इसी दुनिया में कुछ ऐसे रिपोर्टर या पत्रकार भी हैं जो हाशिये पर छूटे भारत की तस्वीर देखते हैं और दुनिया को दिखाते हैं, बिना इस बात की परवाह किए कि इससे उन्हें क्या मिलेगा। दो दशकों से पत्रकारिता में सक्रिय शिरीष खरे ने हाल ही में एक किताब लिखी है-हाशिये पर छूटे भारत की तस्वीर: एक देश बारह दुनिया (प्रकाशक: राजपाल एण्ड सन्ज)। इन बारह दुनियाओं के बारे में जानकर (यदि आप संवेदनशील हैं) तो आपकी नींद उड़ सकती है। आप बेचैन हो सकते हैं। आप यह सोचने के लिए बाध्य हो सकते हैं कि इस किताब को पढ़ने से पहले आपकी नजर इन दुनियाओं पर क्यों नहीं पड़ी।
शिरीष खरे ने 2008 से 2017 तक अपनी खास पत्रकारिता के दौरान देश के दुर्गम भूखंडों में होने वाले दमन चक्र का लेखा-जोखा पेश किया है। ये बारह रिपोर्ताज बताते हैं कि शिरीष के भीतर कहीं भी पत्रकारिता के उस शिखर पर पहुंचने की इच्छा नहीं थी जिसके लिए लोग एक-दूसरे की गर्दन तक काटने से नहीं झिझकते। यह किताब बारह दुनियाओं की बात करती है, ये दुनिया रंगीन दुनिया नहीं है बल्कि त्रासद दुनिया है।
भुखमरी की, कुपोषण की, वेश्यावृत्ति करने वाली लड़कियों की, रस्सियों पर चलने वाली मासूम लड़कियों की, उन लड़कियों की जिन्हें इसलिए नींद नहीं आती कि कभी भी उनकी झोंपड़ियां गिराई जा सकती हैं और दुष्कर्म की शिकार लड़कियों की। शिरीष गन्ने के खेतों में चीनी की कड़वाहट महसूस करते हैं, नदियों को मैदान बनाने वाले लोगों पर चोट करते हैं, धान के कटोरे में उन्हें राहत का धोखा दिखाई देता है। शिरीष ने महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, कर्नाटक, बुंदेलखंड और राजस्थान के थार तथा कई जनजातीय अंचलों में स्थानीय लोगों के साथ लंबा समय बिताकर इन रिपोर्ताजों को तैयार किया है।
पहले रिपोर्ताज में वह मेलघाट, महाराष्ट्र पहुंचते हैं। वहां जिस सच से उनका सामना होता है, उस सच को मुख्य पत्रकारिता में कभी नहीं दिखाया जाता। एक मां सपाट लहजे में अपने बच्चे के बारे में कहती है, ‘वह कल मर गया, तीन महीने भी नहीं जिया।’ शिरीष कुपोषण की कहानियां तलाशते हुए मेलघाट पहुंचे थे। शिरीष का कहना है, मैंने भूख के निर्मम रूप को इससे पहले इतने करीब से कहीं नहीं देखा था। मेलघाट में छोटे बच्चों की मौत के आंकड़े यहां की पहाड़ियों से कहीं ऊंचे होते जा रहे हैं। शिरीष विदर्भ की सबसे ऊंची चोटी चिखलदरा पहुंचते हैं।
वह यहां के आंकड़े देते हैं। वर्ष 1991 से अब तक यहां 10,762 बच्चों की मौत हो चुकी है। यह महाराष्ट्र सरकार का आंकड़ा है लेकिन सरकार मौतों के इस आंकड़े को मानने को तैयार है, बस इस बात पर राजी नहीं है कि ये सभी मौतें भूख से हुई हैं। मेलघाट में इतने सारे बच्चों की असमय मौतें ‘राष्ट्रीय शर्म’ की बात होनी चाहिए, लेकिन शर्म हमको मगर नहीं आती!
शिरीष इसके बाद महाराष्ट्र के कमाठीपुर की पिंजरेनुमा कोठरियों में जिंदगी खोजते हैं। वह यहां रहने वाली चौदह लड़कियों से मिलते हैं और विस्तार से बातचीत करते हैं। यहां वह डर और लगाव के बीच के रिश्ते को समझने की कोशिश करते हैं। एशिया के इस सबसे बड़े देह व्यापार के बहुत से रहस्य शिरीष सुलझाने की कोशिश करते हैं, लेकिन यह सब इतना आसान नहीं है। उनका पूरा रिपोर्ताज कहीं न कहीं लड़कियों की दुखद कथाओं तक सीमित होकर रह जाता है।
संगम टेकरी गुजरात में शिरीष मीराबेन के पास पहुंचते हैं। वह उनसे सवाल करते हैं, ‘तुम्हें नींद क्यों नहीं आती मीराबेन।
मीराबेन सवाल का जवाब देने की बजाय उल्टा सवाल करती हैं, ‘यदि आपका फांसी पर लटकना तय है पर तारीख तय नहीं तो आपको नींद आएगी?’
यहां फांसी पर लटकने का अर्थ है, बार बार झोंपड़ियों सहित उजड़ना और नुकसान झेलते रहना है। यही यहां रहने वाले औरतों की जिंदगी है। यहां शिरीष एक दशक के दरम्यान विकास की प्रक्रिया, संघर्ष, टकराव, नैतिक मूल्यों के पतन और सत्तारूढ़ शक्तियों के गठजोड़ सहित विस्थापित बस्तियों से हटा दिए गए मलबों में दबी पीड़ा तलाश निकालते हैं। ‘अपने देश के परदेसी’ रिपोर्ताज में शिरीष महाराष्ट्र के कनाडी बुडरुक नामक स्थान पर पहुंचते हैं।
वह यहां रहने वाली तिरमली घुमंतू जनजाति की दुनिया को देखते दिखाते हैं। इनकी तरह ही देश में कई घुमंतू-अर्द्धघुमंतू जनजातियां हैं जो अपने ही देश में निर्वासितों सा जीवन बिता रही हैं। पहले मराठवाड़ा में कनाडी बुडरुक नामक गांव में तिरमली जनजाति के लोग नंदी बैल का खेल दिखाकर जनता का मनोरंजन किया करते थे। इस खेल तमाशे से होने वाली थोड़ी बहुत कमाई से ही उनका जीवन चलता था। लेकिन इनकी कोई पहचान आज तक नहीं हो पाई है। संभवत: इन्हें देश का नागरिक ही नहीं माना जाता। न पैन कार्ड, न राशन कार्ड और न निवास प्रमाण पत्र। जाहिर है ये तमाम नागरिक सुविधाओं से वंचित लोग हैं।
एक अन्य रिपोर्ताज में शिरीष बायतु, राजस्थान पहुंचते हैं और राजौ और मीरा से मिलकर यहां के दो चेहरे देखते हैं। एक चेहरा राजौ का है जो अपनी अस्मत गंवा चुकी है और दूसरा चेहरा आदिवासी होने का दर्द झेल रही मीरा का है। दोनों को ही सुबह का इंतजार है, लेकिन शिरीष जानते हैं कि सुबह होने में देर है।
इन बारह दुनियाओं में एक रिपोर्ताज सबसे अलग है। मदकूद्वीप, छत्तीसगढ़ में शिरीष की यात्रा बेहद रूमानी है। पूरी पुस्तक में शिरीष उस सुबह का इंतजार करते दिखाई पड़ते हैं जिसकी उम्मीद साहिर ने अपने गीत में इस तरह प्रकट की थी, वो सुबह कभी तो आएगी। लेकिन शिरीष खरे की किताब पढ़ने के बाद ऐसा लगता नहीं कि सुबह बहुत करीब है। शिरिष ने अपने किताब में उन अंधरों पर रोशनी डाली हैं जिन्हें सुबह का इंतजार है और यह बड़ी बात है।