मानव सभ्यता की प्रगति प्रकृति के साथ सामंजस्य से ही संभव हुई है। पेड़-पौधे, नदियां, पर्वत, वनों की हरियाली ये सभी तत्त्व न केवल जीवन के लिए आवश्यक हैं, बल्कि पृथ्वी के पर्यावरणीय संतुलन के मूल आधार भी हैं। इन्हीं में से वन (जंगल) पृथ्वी के ‘फेफड़े’ कहे जाते हैं, जो कार्बन डाइआक्साइड को अवशोषित कर प्राणवायु आॅक्सीजन का सृजन करते हैं। वनों की उपस्थिति न केवल वायु गुणवत्ता बनाए रखती है, बल्कि जलवायु संतुलन, जैव विविधता का संरक्षण, वर्षा चक्र को नियंत्रित करने और भूजल स्तर को बनाए रखने जैसे अनेक आवश्यक कार्यों में सहायक होती है। किन्तु विडंबना यह है कि आज यही वन अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रहे हैं। जंगलों में लगने वाली आग, जो पहले कभी प्राकृतिक प्रक्रिया का हिस्सा मानी जाती थी, अब मानवजनित कारणों से एक विकराल संकट का रूप ले चुकी है। यह संकट केवल वृक्षों की क्षति तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका असर वायु, जल और भूमि तीनों जीवन धाराओं पर गहराई से पड़ रहा है। विशेषकर जल स्रोतों में फैलता प्रदूषण इस संकट का एक ऐसा पहलू है, जिसकी चर्चा अपेक्षाकृत कम होती है, परंतु इसके दुष्परिणाम अत्यंत व्यापक और घातक हैं।
हाल ही में न्यूयॉर्क के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक अंतरराष्ट्रीय शोध अध्ययन में यह स्पष्ट रूप से सिद्ध हुआ कि जंगल की आग के बाद, वहां के निकटवर्ती जल स्रोत नदियां, झीलें, तालाब वर्षों तक प्रदूषित रह सकते हैं। यह अध्ययन प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय पत्रिका ‘नेचर कम्युनिकेशंस अर्थ एंड एनवायरनमेंट’ में प्रकाशित हुआ है, जिसमें अमेरिका की उन्नत प्रयोगशालाओं के वैज्ञानिकों ने 500 नदियों और झीलों से एक लाख से अधिक जल नमूने लेकर यह विश्लेषण किया कि आग के बाद जल स्रोतों की गुणवत्ता में किस प्रकार का परिवर्तन आता है।
इस शोध में पाया गया कि जंगलों की आग के बाद जल में नाइट्रोजन, आॅर्गेनिक मैटर (जैविक पदार्थ), राख, रेत और मिट्टी जैसे हानिकारक तत्त्वों की मात्रा अत्यधिक बढ़ जाती है। इनमें से कई तत्व मानव शरीर के लिए विषैले होते हैं और पीने योग्य जल के मानकों से कई गुना अधिक पाए गए हैं। यह भी देखा गया कि इन तत्वों का प्रभाव आग के बाद एक वर्ष से लेकर आठ वर्षों तक बना रह सकता है। वर्षा के माध्यम से जब यह तत्त्व जल स्रोतों में प्रवाहित होते हैं, तो वे पारिस्थितिकी तंत्र को व्यापक रूप से प्रभावित करते हैं। जलीय स्रोतों के प्रदूषित होने से जल प्रदूषण की समस्या पर्यावरण की सेहत को भारी क्षति पहुंचाती है। दरअसल, यह जल प्रदूषण जलीय जीवों (मछलियों, कीटों, जल-वनस्पतियों) के जीवन चक्र को बाधित करता है, जिससे स्थानीय जैव विविधता पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इसके अलावा, यह प्रदूषित जल मनुष्यों के लिए गंभीर स्वास्थ्य संकट का कारण बन सकता है।
भारत, जो एक विशाल भौगोलिक विविधता वाला देश है, उसका लगभग 21 फीसदी क्षेत्र वनाच्छादित है। इन वनों में से अधिकांश क्षेत्र सूखे जंगलों से संबंधित हैं, जो जलवायु परिवर्तन और मानवीय दखल के चलते अत्यधिक संवेदनशील हो चुके हैं। भारतीय वन सर्वेक्षण के आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2022-23 में भारत में 2,12,249 जंगल की आग की घटनाएं दर्ज की गईं। इनमें सबसे अधिक घटनाएं उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में हुई। विशेष रूप से हिमालयी क्षेत्र, जहां की भौगोलिक बनावट में तीव्र ढलान, कम नमी और चीड़ जैसे ज्वलनशील पेड़ अधिक पाए जाते हैं, यह क्षेत्र जंगल की आग के लिए अत्यंत संवेदनशील है। इन क्षेत्रों में जल स्रोतों गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, सतलुज जैसी नदियों का उद्गम होता है, जिन पर करोड़ों लोगों की जल आपूर्ति निर्भर है। ऐसे में, इन क्षेत्रों में जंगलों में लगने वाली आग का जल गुणवत्ता पर पड़ने वाला प्रभाव सम्पूर्ण भारतवर्ष के लिए चिंता का विषय बन जाता है। हिमालयी क्षेत्रों में एक बार यदि जल प्रदूषण की प्रक्रिया आरंभ हो जाए, तो वहां की तीव्र ढलानों और तेज बहाव वाली नदियों के कारण यह प्रदूषण तेजी से मैदानी क्षेत्रों तक फैल सकता है। इससे केवल एक क्षेत्र विशेष नहीं, बल्कि सम्पूर्ण गंगा घाटी जैसे विस्तृत क्षेत्र प्रभावित हो सकते हैं।
वैज्ञानिकों का स्पष्ट मानना है कि जंगल की आग की घटनाओं में अप्रत्याशित वृद्धि के पीछे सबसे बड़ा कारण वैश्विक तापमान में हो रही लगातार वृद्धि है। वर्ष 2024 में ही जंगल की आग ने वैश्विक स्तर पर 40 करोड़ हेक्टेयर भूमि को प्रभावित किया और 6.5 अरब टन कार्बन डाइआक्साइड वायुमंडल में छोड़ा गया, जो अब तक का सबसे अधिक आंकड़ा है। शोधों में यह भी स्पष्ट हुआ है कि जंगल की 95 फीसदी आग मानवजनित होती है। ये आग कभी जंगलों में लापरवाही से फेंकी गई बीड़ी से, कभी ट्रेनों से निकली चिंगारी से, तो कभी पेड़ों की सूखी शाखाओं के आपसी घर्षण से शुरू होती है। वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन, कोयले-तेल-गैस का अत्यधिक उपयोग, वनों की अवैध कटाई और वन क्षेत्रों में मानवीय हस्तक्षेप इन आगजनी की घटनाओं को और अधिक घातक बना देते हैं। विगत वर्षों में मानसून में अनियमितता, वर्षा की कमी और बढ़ती गर्मी ने जंगलों को अत्यधिक शुष्क बना दिया है, जिससे आग तेजी से फैलती है। पेड़ों की सूखी टहनियां, पत्तियां और चीड़ जैसे पेड़ आग को और भी अधिक भयावह बना देते हैं।
जंगलों की आग के बाद जल स्रोतों में घुलने वाले नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, रसायन और जैविक पदार्थों से जल की गुणवत्ता अत्यधिक खराब हो जाती है। इससे सबसे पहले प्रभावित होता है वहां का जलीय जीव समुदाय यथा मछलियां, कीट-पतंगे, काई, शैवाल आदि। यह पारिस्थितिक श्रृंखला को तोड़ देता है। साथ ही, मनुष्यों के लिए यह जल विषाणुजनित रोगों, त्वचा विकारों, पाचन संबंधी समस्याओं और यहां तक कि कैंसर जैसी घातक बीमारियों का कारण बन सकता है।
ग्रामीण क्षेत्रों में जहां जल शुद्धिकरण की पर्याप्त सुविधाएं नहीं हैं, वहां इसका असर और भी अधिक होता है। इसके अलावा, जंगलों की आग से जो राख और जहरीले कण वायुमंडल में फैलते हैं, वे वायु प्रदूषण को चरम पर ले जाते हैं। ये कण वायुमंडल में लंबे समय तक रहते हैं और हवा की गुणवत्ता में भारी गिरावट लाते हैं। यह अस्थमा, फेफड़े की बीमारी और आंखों की जलन जैसे स्वास्थ्य संकट को जन्म देता है। भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश के लिए जंगल की आग और उसके कारण उत्पन्न जल प्रदूषण कई स्तरों पर चुनौतीपूर्ण हैं। जंगलों की निगरानी प्रणाली की कमजोरी, जंगलों के निकट रहने वाले समुदायों की जानकारी और भागीदारी की कमी के साथ-साथ जल स्रोतों की नियमित गुणवत्ता जांच का अभाव भी चिंतित करने वाला है। वैश्विक जलवायु परिवर्तन के स्थानीय प्रभावों की अनदेखी, वन नीति और जल नीति में समन्वय की कमी भी चिंताजनक है। इस संकट का समाधान केवल एक विभाग या संस्था के बस की बात नहीं है। इसके लिए बहुस्तरीय और समन्वित प्रयासों की आवश्यकता है।