राजेंद्र बज
आमतौर पर आत्मनिर्भरता से आशय इस अर्थ में लगाया जाता है कि आदमी अपनी तमाम आवश्यकताओ की पूर्ति करने में स्वयं सक्षम हो। एक हद तक यह सही भी है। लेकिन व्यवहार में देखा गया है कि अथोर्पार्जन के अतिरिक्त अन्य किसी मामले में अनावश्यक रूप से भी किसी और का सहारा लेने की भावना रहा करती है। चाहे कोई भी काम कितना भी सामान्य क्यों न हो, भावना यही रहा करती है कि उसे कोई सक्षम सहारा मिल जाए। ऐसी स्थिति में निकटतम मित्र, रिश्तेदार एवं पास पड़ोस वालों का सहारा लेना एकबारगी स्वाभाविक माना जा सकता है। लेकिन बात-बात पर राजनेताओं की ओर दौड़ लगाना आखिर क्या दर्शाता है?
निश्चित ही जरा-जरा सी बात पर नेताओं तक की दौड़ लगाना एक प्रकार से पराश्रित मानसिकता का सूचक सिद्ध होता है। इस संदर्भ में एक सवाल उठता है कि आखिर नीति नियम के अनुसार अपने किसी वाजिब कार्य को पूर्ण करने के प्रति नागरिकों में आत्मविश्वास की भावना क्यों नहीं रहा करती? आखिर ऐसा क्यों है कि नागरिकों के अंतर्मन में यह भावना घर कर जाती है कि बिना किसी सक्षम जरिए के उसका काम आसान नहीं हो सकेगा। अब काम कितना भी सामान्य क्यों न हो, एक अनजानी आशंका से आशंकित मानसिकता विशेष तौर पर शासन प्रशासन में बैठे नुमाइंदों की कर्तव्यनिष्ठा एवं संवेदनशीलता की भावना पर सवाल उठाती है।
एक सामान्य सी बात है कि यदि कहीं किसी के साथ कोई अप्रिय घटना हो जाए, तो सबंधित विभाग या अधिकारी तक अपनी बात किसी और का सहारा लेकर रखी जाती है। दरअसल यह स्थिति राजनेताओं के प्रशासनिक कार्यों में हस्तक्षेप के चलते दिखाई देती है। राजनेता भी ऐसी स्थिति उत्पन्न होने पर नागरिकों को उपकृत करने का कोई मौका छोड़ता नहीं चाहते। वास्तव में आजकल व्यवस्था ही कुछ ऐसी हो गई है कि बिना किसी वजनदारी के रखी गई बात हवा हवाई हो जाया करती है। वैसे आजकल के दौर में ऐसे प्रशासनिक अधिकारी एवं कर्मचारी भी है जो अपने कर्तव्यों के प्रति पूर्ण रूप से निष्ठा और समर्पण के साथ कार्य करते हैं।
लेकिन बाकी सब उनके जैसे नहीं होते। यह आश्चर्य का विषय है कि आम नागरिकों को मुल्क का मालिक तो करार दिया जाता है, लेकिन वास्तव में उसकी मालकियत को कौन तवज्जो देता है? निश्चित रूप से भ्रष्टाचार का सिलसिला इसी मानसिकता के चलते विस्तार पाता चला जाता है। दरअसल होता यह है कि जिसका कोई सशक्त जरिया या माध्यम नहीं होता, वह ऊपरी लेन-देन की प्रक्रिया में विश्वास कर बैठता है। ऐसी स्थिति में आम नागरिकों की यह प्रवृत्ति संबंधित विभाग में एक दस्तूर की भांति चलन में आ जाती है। न जाने क्यों नागरिकों का एक बड़ा वर्ग यह समझता है कि बिना लिए दिए आजकल कोई काम नहीं होता।
हालांकि समय-समय पर भ्रष्टाचार में लिप्त शख्सियत रंगे हाथों पकड़ में भी आती है। लेकिन कानूनी पकड़ से बचने के अनेक रास्ते भी अख्तियार कर लिए गए हैं। आजकल कौन किस स्तर पर कैसे ऊपरी आय अर्जित कर रहा है, इसका संपूर्ण ध्यान रखा जाना व्यावहारिक रूप से संभव नहीं है। व्यवहार में देखा गया है कि जितना रिश्वत लेने वाला राजी होता है उतना ही राजी रिश्वत देने वाला भी हुआ करता है। औरों का जो कुछ हो सो हो, लेकिन अपना काम तो बन गया। चाहे ले देकर बन गया किंतु तमाम तरह के औपचारिक झंझटों से तो मुक्ति प्राप्त हुई, इस सोच ने ही भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया है। अधिकांश विभागों में काम करने न करने की प्रचलित धारा ही कुछ अलग है।
यदि कोई स्थापित शख्सियत किसी एक गलत काम को कराने में सक्रियता का परिचय दें, तो संबंधित शख्सियत के लिए दस तरह के गलत काम करने का रास्ता खुल जाता है। ऐसा नहीं है कि नीति नियंता इस तथ्य से अनजान हो, लेकिन इस विषयक कहीं किसी प्रकार की सुधारवादी तीव्र इच्छाशक्ति का परिचय देखने को नहीं मिलता। छोटे-बड़े प्रशासनिक कार्यों को मूर्त रूप देने के लिए भी राजनीतिक दबाव बनाने की कोशिश हुआ करती है। वैसे कानून अपना काम करता है, लेकिन कानून को भी अपना काम करने के लिए ‘हरी झंडी/लाल झंडी’ का इंतजार करना पड़े, फिर तो तथाकथित मुल्क के मालिकों की मनोदशा को बखूबी समझा जा सकता है।