Monday, September 9, 2024
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भूजल का स्तर गिरना चिंताजनक

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Nazariya 22

AASHISH e1618057478329जल हमारे ग्रह पृथ्वी पर एक आवश्यक संसाधन है। इसके बगैर जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यही कारण है कि खगोलविद पृथ्वी-इतर किसी अन्य ग्रह पर जीवन की तलाश करते समय सबसे पहले इस बात की पड़ताल करते हैं कि उस ग्रह पर जल मौजूद है या नहीं। ‘जल है तो कल है’ तथा ‘जल जो न होता तो जग खत्म हो जाता’ जैसी उक्तियों के माध्यम से हम जल की महत्ता को ही स्वीकारते हैं। पृथ्वी का तीन चौथाई यानी 75 प्रतिशत भाग जल से आच्छादित है लेकिन इसमें से पीने योग्य स्वच्छ जल की मात्रा बहुत कम है। बढ़ते औद्योगीकरण तथा गांवों से शहरों की ओर तेजी से पलायन ने भी अन्य जल स्रोतों के साथ भूमिगत जलस्रोत पर भी दबाव उत्पन्न किया है। भूमिगत जल का तेजी से गिरता स्तर चिंता का कारण है। भूजल की सहज व सस्ती उपलब्धता उसके अधिक उपयोग को प्रेरित करती है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान गांधीनगर में सिविल इंजीनियरिंग और पृथ्वी विज्ञान के ह्यविक्रम साराभाई चेयर प्रोफेसरह्ण के एक अध्ययन में बताया गया है कि उत्तर भारत में भूजल का स्तर 450 घन किलोमीटर तक घट गया है। पिछले दो दशकों में आई यह गिरावट इस बात का संकेत है कि आने वाले समय में खेती व जीवन यापन के लिए पानी की किल्लत हो सकती है। दो दशक में भूजल में आयी यह कमी भारत के सबसे बड़े जलाशय इंदिरा सागर बांध की कुल जल भंडारण मात्रा का 37 गुना है।

दरअसल, भूजल में इस कमी की एक बड़ी वजह वर्ष 1951 से 2021 के बीच मानसूनी बारिश में 8.5 फीसदी की कमी आना है। इस संकट का दूसरा पहलू यह भी है कि उत्तर भारत में सर्दियों के तापमान में 0.3 सेल्सियस वृद्धि देखी गई है। इस बात की पुष्टि हैदराबाद स्थित राष्ट्रीय भूभौतिकी अनुसंधान संस्थान के शोधार्थियों के एक दल ने की है। मानसून के दौरान कम बारिश होने और सर्दियों के दौरान तापमान बढ़ने के कारण आने वाले वर्षों में निश्चित रूप से सिंचाई के लिये पानी की मांग में वृद्धि होगी। वहीं पानी की मांग बढ़ने से भूजल पुनर्भरण में भी कमी आएगी। जिसका दबाव पहले से ही भूजल के संकट से जूझ रहे उत्तर भारत के इलाके पर पड़ेगा। हैदराबाद स्थित एनजीआरआई का अध्ययन चेताता है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से जहां एक ओर मानसून के दौरान बारिश में कमी आएगी, वहीं सर्दियों में अपेक्षाकृत अधिक तापमान रहने से भूजल पुनर्भरण में छह से 12 फीसदी तक की कमी आ सकती है। संकट का एक पहलू यह भी है कि हाल के वर्षों में मिट्टी में नमी में कमी देखी गई है। जिसका निष्कर्ष यह भी है कि आने वाले वर्षों में सिंचाई के लिये पानी की मांग में वृद्धि होगी। निश्चित ही यह स्थिति हमारी खेती और खाद्य श्रृंखला की सुरक्षा के लिये चिंताजनक कही जा सकती है।

देश के नीति-नियंताओं को गंभीरता से विचार करने की जरूरत है कि भूजल के स्तर को कैसे ऊंचा रखा जा सके। जहां एक ओर वर्षा जल संग्रहण को ग्रामीण व शहरी इलाकों में युद्धस्तर पर शुरू करने की जरूरत है, वहीं अधिक पानी वाली फसलों के चक्र में बदलाव लाने की भी आवश्यकता है। विशेषज्ञों का मानना है कि पिछले चार दशकों में कुल सिंचित क्षेत्र में लगभग 84 प्रतिशत की वृद्धि का मुख्य कारण भूजल है अतिदोहन का मुख्य कारण कृषि के लिए भूजल की बढ़ती मांग है। इसके आलावा अधिकांश क्षेत्रों में भूजल उपलब्धता पर ध्यान दिये बिना फसलों के पैटर्न और मात्रा के सम्बन्ध में फैसले लिए गए। भूजल के अतिदोहन की समस्या से निपटने हेतु कृषि में मांग प्रबंधन का प्रयोग किया जाना चाहिए। इससे कृषि में भूजल पर निर्भरता कम होगी। भूजल निकासी, मानसून में वर्षा और जल स्तर को देखते हुए किसी विशिष्ट क्षेत्र के लिये शुष्क मौसम की फसल की योजनाएं बनानी चाहियें। इसमें उच्च मूल्य वाली और कम जल का उपभोग करने वाली फसलों को भी चुना जा सकता है। ड्रिप और स्प्रिंकलर प्रणाली जैसी आधुनिक सिंचाई की तकनीकों को अपनाना, जिससे वाष्पीकरण और कृषि में जल के गैर लाभकारी प्रयोग को कम किया जा सके। कृषि वैज्ञानिकों को ऐसी फसलों के लिए अनुसंधान को बढ़ावा देना होगा, जो ग्लोबल वार्मिंग के प्रभावों के बावजूद अधिक तापमान व कम पानी में अधिक उपज दे सकें। किसानों कि आवश्यकताओं और भूजल के उपयोग के मध्य संतुलन के संबंध में राष्ट्रीय जल नीति, 2020 में सुझाव दिया गया था कि भूजल निकासी हेतु विद्युत सब्सिडी पर पुनर्विचार किया जाना चाहिये।

भूजल की वर्तमान स्थिति को सुधारने के लिये भूजल का स्तर और न गिरे इस दिशा में काम किए जाने के अलावा उचित उपायों से भूजल संवर्धन की व्यवस्था हमें करनी होगी। इसके अलावा, भूजल पुनर्भरण तकनीकों को अपनाया जाना भी आवश्यक है। वर्षाजल संचयन (रेनवॉटर हार्वेस्टिंग) इस दिशा में एक कारगर उपाय हो सकता है। हाल के वर्षों में, सुदूर संवेदन उपग्रह-आधारित चित्रों के विश्लेषण तथा भौगोलिक सूचना प्रणाली (जीआईएस) द्वारा भूजल संसाधनों के प्रबन्धन में मदद मिली है। भूजल की मॉनिटरिंग एवं प्रबन्धन में भविष्य में ऐसी समुन्नत तकनीकों को और बढ़ावा दिए जाने की आवश्यकता है। यदि भूजल का यह संकट भविष्य में और गहराता है तो यह असंतोष का वाहक ही बनेगा। हमें बदलते मौसम के अनुकूल ही अपनी रीतियां-नीतियां बनानी होंगी। साथ ही पूरे देश में पानी के उपयोग के लिये अनुशासन की भी जरूरत होगी। अब चाहे हम नागरिक के रूप में हों, उद्योग व अन्य क्षेत्र में, पानी का किफायती उपयोग आने वाले भूजल संकट से हमारी रक्षा कर सकता है।

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