वायु सेना के शो के दौरान चेन्नई में तेज गर्मी के चलते छह लोग मारे गए और 100 से अधिक बीमार हो गए। बस्तर में कभी दशहरे के पास का मौसम बहुत सुहाना होता था, आज वहां तापमान 35 के पार है और गर्मी की चुभन 40 जैसी। अभी एक हफ्ते पहले ही उत्तर पूर्वी राज्यों में सबसे भीगा और पसंदीदा मौसम कहलाने वाले समय में गुवाहाटी समेत कई जिलों में स्कूल बंद करने पड़े, क्योंकि तापमान 45 से पार हो गया। उत्तराखंड में देहरादून में अधिकतम तापमान 35 डिग्री और पंतनगर का अधिकतम तापमान 37.2 होना असामान्य है। कश्मीर मौसमी तपिश लोगों को बेहाल किए है। यहां इस मौसम के तापमान से कोई 6.6 डिग्री अधिक गर्मी दर्ज की गई है और हालात लू जैसे हैं। कुपवाड़ा में 33.3, पहलगाम में 29.5 और गुलमर्ग में 23. 6 तापमान असहनीय सा है। हिमाचल प्रदेश में सितंबर के महीने में जून सी गर्मी है। ऊना समेत प्रदेश के पांच जिलों में तापमान 35 डिग्री सेल्सियस को पार कर गया है। मंगलवार को ऊना का तापमान 38 डिग्री को पार कर गया। जबकि कांगड़ा, मंडी, चंबा और बिलासपुर में भी तापमान 35 डिग्री पर पहुंच रहा है। सामान्य तौर पर सितंबर माह में हल्की सर्दी का दौर शुरू हो जाता है। लेकिन इस बार गर्मी का असर देखने को मिल रहा है। शिमला में भी तापमान 28 डिग्री सेल्सियस बना हुआ है। जो सामान्य से कहीं अधिक है।
यह संभलने की व्यक्त है, क्योंकि जलवायु परिवर्तन का असर सबसे संवेदनशील नैसर्गिक स्थल-हिमाचल की गोद में अब गहरा होता जा रहा है। गर्मी से लोगों की सेहत पर तो बुरा असर हो ही रहा है, लगातार गर्मी ने पानी की मांग बढ़ाई और संकट भी। सबसे बड़ी बात गर्मी से शुद्ध पेयजल की उपलबद्धता घटी है। प्लास्टिक बोतलों में बिकने वाला पानी हो या फिर आम लोगों द्वारा सहेज कर रखा गया जल, तीखी गर्मी ने प्लास्टिक बोतल में उबाल गए पानी के जहर बना दिया। पानी का तापमान बढ़ना तालाब-नदियों की सेहत खराब कर रहा है। एक तो वाष्पीकरण तेज हो रहा है, दूसरा पानी अधिक गरम होने से जल में विकसित होने वाले जीव-जन्तु और वनस्पति मर रहे हैं।
तीखी गर्मी भोजन की पौष्टिकता की भी दुश्मन है। तीखी गर्मी में गेंहू, कहने के दाने छोटे हो रहे हैं और उनके पौष्टिक गुण घट रहे हैं। वैसे भी तीखी गर्मी में पका हुआ खान जल्दी सड़-बुस रहा है। फल-सब्जियां जल्दी खराब हो रही हैं। खासकर गर्मी में आने वाले वे फल जिन्हें केमिकल लगा कर पकाया जा रहा है, इतने उच्च तापमान में जहर बन रहे हैं और उनका सेवन करने वालों के अस्पताल का बिल बढ़ रहा है। इस बार की गर्मी की एक और त्रासदी है कि इसमें रात का तापमान कम नहीं हो रहा, चाहे पहाड़ हो या मैदानी महानगर, बीते दो महीनों से न्यूनतम तापमान सामन्य से पांच डिग्री तक अधिक रहा ही है। खासकर सुबह चार बजे भी लू का एहसास होता है और इसका कुप्रभाव यह है कि बड़ी आबादी की नींद पूरी नहीं हो पा रही। खासकर स्लम, नायलॉन आदि के किनारे रहने वाले मेहनतकश लोग उनींदे से सारे दिन रहते हैं और इससे उनकी कार्य क्षमता पर तो असर हो ही रहा है, शरीर में कई विकार या रहे हैं। जो लोग सोचते हैं कि वातानुकूलित संयत्र से वे इस गर्मी की मार से सुरक्षित हैं, तो यह बड़ा भ्रम है। लंबे समय तक एयर कंडीशनर वाले कमरों में रहने से शरीर की नस-नाड़ियों में संकुचन, मधुमेह और जोड़ों के दर्द का खामियाजा ताजिंदगी भोगना पड़ सकता है।
मार्च-24 में संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ ) ने भारत में एक लाख लोगों के बीच सर्वे कर एक रिपोर्ट में बताया है कि गर्मी/लू के कारण गरीब परिवारों को अमीरों की तुलना में पांच फीसदी अधिक आर्थिक नुकसान होगा। चूंकि आर्थिक रूप से सम्पन्न लोग बढ़ते तापमान के अनुरूप अपने कार्य को ढाल लेते हैं , जबकि गरीब ऐसा नहीं कर पाते। भारत के बड़े हिस्से में दूरस्थ अंचल तक लगातार बढ़ता तापमान न केवल पर्यावरणीय संकट है, बल्कि सामाजिक-आर्थिक त्रासदी-असमानता और संकट का कारक भी बन रहा है। यह गर्मी अकेले शरीर को नहीं प्रभावित कर रही, इससे इंसान की कार्यक्षमता प्रभावित होती है, पानी और बिजली की मांग बढ़ती है, उत्पादन लागत भी बढ़ती है।
सवाल यह है कि प्रकृति के इस बदलते रूप के सामने इंसान क्या करे? यह समझना होगा कि मौसम के बदलते मिजाज को जानलेवा हद तक ले जाने वाली हरकतें तो इंसान ने ही की हैं। फिर यह भी जान लें कि प्रकृति की किसी भी समस्या का निदान हमारे अतीत के ज्ञान में ही है, कोई भी आधुनिक विज्ञान इस तरह की दिक्कतों का हाल नहीं खोज सकता। आधुनिक ज्ञान के पास तात्कालिक निदान और कथित सुख के साधन तो हैं लेकिन कुपित कायनात से जूझने में वह असहाय है। अब समय आ ही गया कि इंसान बदलते मौसम के अनुकूल अपने कार्य का समय, हालात, भोजन, कपड़े आदि में बदलाव करे। खासकर पहाड़ों पर विकास और पर्यटन दो ऐसे मसले हैं, जिन पर नए सिरे से विचार अकरण होगा शहर के बीच बहने वाली नदियां, तालाब, जोहड़ आदि यदि निर्मल और अविरल रहेंगे तो बढ़ी गर्मी को सोखने में सक्षम होंगे। खासकर बिसरा चुके कुएं और बावड़ियों को जिलाने से जलवायु परिवर्तन की इस त्रासदी से बेहतर तरीके से निबटा जा सकता है। आवासीय और कार्यालयों के निर्माण की तकनीकी और सामग्री में बदलाव, सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा, बहुमंजिला भवनों का ईको फ्रेंडली होना, ऊर्जा संचयन, शहरों के तरफ पलायन रोकना, आॅर्गेनिक खेती सहित कुछ ऐसे उपाय हैं, जो बहुत कम व्यय में देश को भट्टी बनने से बचा सकते हैं।