पश्चिमी बंगाल का आरजी कर प्रकरण भले ही आज उबाल ले रहा हो पर 2012 के निर्भया कांड के बाद लाख सख्ती के बावजूद बंद होना तो दूर महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध कम होने के नाम ही नहीं ले रहे हैं। लगता है जैसे कठोर सजा प्रावधान बेअसर साबित हो रहे हैं। प्राप्त जानकारी के अनुसार महिलाओं के खिलाफ अपराध वाले प्रकरणों का न्यायालयों में निस्तारण भी तेजी से हो रहा है। करीब 90 प्रतिशत तक प्रकरणों का न्यायालयों द्वारा निस्तारण किया जा रहा है। पर देश के किसी भी कोने की बात कर लों महिलाओं के खिलाफ रेप, रेप के प्रयास या इसी तरह के अपराध लगातार हो रहे हैं। इसके साथ ही कुछ समय गुजरता है कि देश में कहीं ना कहीं गाहे बेगाहे निर्भया जैसे नृशंस कांड हो ही जाते हैं। आरजी कर घटना तो सभ्य समाज के लिए इसलिए अधिक कलंकित होने वाली हो जाती है कि अस्पताल जैसे प्रतिष्ठित स्थान पर कहने को तो तथाकथित सभ्य लोगों ने इस घटना को अंजाम दिया। आखिर इस तरह की घटनाएं हिलाकर रख देती है।
आखिरकार कोलकता आरजी कर अस्पताल रेप व रेप के बाद हत्या घटना के बाद जिस तरह से देशव्यापी माहौल बना, उसके परिणाम के रुप में पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा अपराजिता महिला एवं बाल विधेयक (पश्चिमी बंगाल आपराधिक कानून एवं संशोधन) विधानसभा से पारित हो गया। सवाल यह नहीं है कि कानून कितना सख्त बनाया गया है? सवाल यह भी नहीं हैं कि कानून में किस तरह से जांच से लेकर सजा तक की समय सीमा तय की गई है? सवाल यह भी नहीं हैं कि कानून बनने के क्या परिणाम सामने आएंगे? देखा जाए तो सौ टके का सवाल यह है कि 2012 में निर्भया कांड के बाद जिस तरह से कानून में बदलाव कर सख्ती के प्रावधान किए गए, जिस तरह से पॉक्सो एक्ट के तहत कार्रवाई की बात हुई और जिस तरह से देश में त्वरित न्याय के लिए फास्ट ट्रेक स्पेशल अदालतें और पाक्सो अदालते बनाई गई उसके बाद भी हालात में कोई बदलाव नहीं दिखाई दे रहे हैं। बल्कि यह कहा जाएं तो ज्यादा ठीक होगा कि ज्यों ज्यों दवा की गई, मर्ज बढ़ता ही गया।
दिसंबर 2012 में जब निर्भया कांड हुआ और उसके सामने आते ही जिस तरह से देशव्यापी आक्रोश देखने को मिला उसके बाद जिस तरह से 2013 में नया आपराधिक कानून लाकर सरकार ने सख्ती की मंशा दिखाई उसके बावजूद कोई सकारात्मक परिणाम देखने को नहीं मिला। 2015 में किशोर न्याय अधिनियम के माध्यम से 16-18 साल के दोषियों को भी कोई रियायत नहीं देने के प्रावधान किये गये और 2019-20 में 1023 फास्ट ट्रेक स्पेशल कोर्ट का गठन और 389 पॉक्सो कोर्टों के गठन के बावजूद अपराधियों में किसी तरह से भय का वातावरण नहीं बना है। दिसंबर 12 में जिस तरह से निर्भया रेप व हत्या कांड सामने आया और खासतौर से युवाओं में जिस तरह का आक्रोश देखा गया तब समझा जाने लगा था कि हालातोें में सुधार होगा पर आंकड़े कुछ और ही कहानी कहते हैं। उज्जैन, अयोध्या और इसके बाद आरजी कर प्रकरण से साफ हो गया है कि भले ही अब ममता सरकार ने नया अधिनियम पारित करा लिया हो पर तस्वीर का एक पहलू यह भी है कि ऐसे मामलों में भी सभी लोग एक ना होकर के राजनीतिक फायदे नुकसान के तराजू पर तोलकर प्रतिक्रिया देते हैं। मानवता के लिए इससे अधिक कलंक की दूसरी बात क्या होगी, जिस तरह से घटना होने के बाद एक पक्ष बचाव में तर्क गढ़ने लगता है तो दूसरा पक्ष आंदोलन, प्रदर्शन आदि के माध्यम से जितना लाभ उठाने का प्रयास करते हैं यह दोनों ही स्थितियां मानवता के लिए शर्मनाक हैं।
ऐसा नहीं है कि रेप व उसके बाद हत्या जैसी घटनाएं हमारे देश में ही होती हों, बल्कि कहा जाए तो यह वैश्विक समस्या है। निर्भया के टाइम पर ही किस तरह से मी टू अभियान ने गति पकड़ी थी, किस तरह से महिलाएं मुखर हो रही थी वह अपने आप में एक सशक्त आंदोलन या कहें कि महिला सशक्तीकरण की दिशा में बढ़ता कदम था, पर इससे देश-दुनिया में महिला अपराध खासतौर से रेप, गैंगरेप या इसी तरह की घटनाओं में तनिक मात्र भी कमी नहीं आई है। हालिया दिनों में ही सीने संसार में किस तरह से महिला अभिनेत्रियों के शोषण की मुखरता से चर्चा हुई है वह भी रुपहले पर्दे के पीछे की काली कहानी बयां कर देती हैं। यदि आंकड़ों की भाषा में ही बात करें तो निर्भया एपिसोड के समय 24915 मामले सामने आये थे तो 2016 में सर्वाधिक 38947 अपराध सामने आए। 2020 जो कोरोना काल था उसमें अवश्य 28046 मामले सामने आए, अन्यथा आंकड़े 30 हजार से अधिक ही रहे। 2022 के आंकड़ों की बात करें तो महिलाओं के खिलाफ अपराध के इस तरह क 31516 मामले आए। यानी कि 2012 के निर्भया एपिसोड और उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप देश ही नहीं विश्वव्यापी आक्रोश व जनचेतना के बावजूद अपराध में कमी नहीं आने से साफ हो जाता है कि कहीं ना कहीं इस तरह के समाज विरोधी लोगों में भय ही नहीं रहा। अपराधियों में कानून व सजा का कोई भय ही नहीं दिखाई दे रहा अन्यथा इस तरह के अपराध कम ही नहीं, बल्कि रुक जाते पर ऐसा हुआ नहीं और ऐसा होगा, इस तरह से लगता भी नहीं हैं। इससे एक बात साफ हो जाती है कि कानून बनाने या सख्त सजा व त्वरित न्याय की व्यवस्था एक बात है और समाज को अपराध विहीन बनाना दूसरी बात। इसके लिए हमें और सब के साथ हमारे मूल्यों और संस्कारों को आज की पीढ़ी तक पहुंचाना ही होगा। हमें महिलाओं की इज्जत करना, उनके सम्मान की रक्षा करना सीखना और सीखाना होगा नहीं तो कानून के डर से अपराध कम हो जाएंगे यह सोचना एक हद से अधिक सही नहीं हो सकता।