किसी तंत्र को सफल तभी माना जा सकता है, जब वह अपने निर्माण के उद्देश्य की ओर अग्रसर हो। नि:संदेह लोकतंत्र राजतंत्र से बेहतर है, लेकिन वह आदर्श समाज व्यवस्था के उद्देश्य से उतना ही दूर है, जितना कि राजतंत्र। जिस उद्देश्य के लिये लोकतंत्र स्वीकार किया गया था, उस उद्देश्य को साधना लोकतंत्र में संभव नहीं हुआ। न्याय आधारित व्यवस्था, समता-मूलक समाज और बंधुता प्रदान करने में आज का लोकतंत्र पूर्णत: असफल रहा है। आदर्श तंत्र उसे ही कहा जा सकता है, जहां नीति-निर्धारण में लोगों की भागीदारी हो, जहां समता, न्याय और बंधुता के लिये नीतियां बनाई जाती हों, अभिव्यक्ति की आजादी हो, जीने के अधिकार सुरक्षित हों, सभी के पास आहार, कपड़ा और मकान हो, जहां राजा के खिलाफ अभिव्यक्ति राजद्रोह नहीं हो, बल्कि राजा गलत काम करे तो उसके विरुद्ध भी शिकायत की जा सके। ऐसे तंत्र को ही आदर्श माना जा सकता है, लेकिन मौजूदा लोकतंत्र इस आदर्श पर खरा नहीं उतर सका है। राजतंत्र की तरह लोकतंत्र में भी लोगों के संवैधानिक अधिकार, मौलिक अधिकार सुरक्षित नहीं हैं। लोगों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जीने के अधिकार पर लगातार प्रहार किया जा रहा है और उन्हें अन्याय, शोषण, अत्याचार, राज्य-प्रायोजित हिंसा का सामना करना पड़ रहा है। राजतंत्र की जगह लोकतंत्र आने पर भी समाज की स्थितियों में कोई फर्क नहीं पडा है।
आम समाज राजतंत्र में भी कष्ट में था और लोकतंत्र में भी कष्ट में है। लोकतंत्र में राजाओं की जगह जन-प्रतिनिधि जरूर आए हैं, लेकिन उनकी नीतियों में कोई अंतर नहीं है। लोकतंत्र में वे सभी दोष दिखाई दे रहे हैं, जो राजतंत्र में थे। लोकतंत्र में भी राज्य का नियंत्रण सैन्य शासन द्वारा ही किया जा रहा है। जनता पर उसी प्रकार से अन्याय, अत्याचार हो रहा है, जैसा कि हमने अन्यायी राजा के राज के बारे में पढ़ा-सुना है। ऐसा माना गया था कि लोकतंत्र में राजवंश की जगह लोगों के द्वारा और लोगों में से प्रतिनिधि चुनकर जाएंगे तो वे लोगों के हित में बेहतर नीतियां बनाऐंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं है। आज संसद में कारपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने के लिएअधिकांश नीतियां बनाई जाती हैं। इसीलिए लोकतंत्र ना लोगों का है, ना लोगों के लिएहै। जिसे हम लोकतंत्र कहते हैं, वह कारपोरेट के धन पर पोषित, कारपोरेट्स द्वारा संचालित, कारपोरेट के लिए काम करने वाला तंत्र बन गया है।
जो राजतंत्र के लिए संभव नहीं हुआ, वह लोकतांत्रिक देशों ने कर दिखाया है। दुनिया की लूट में लोकतांत्रिक देश सबसे आगे हैं, क्योंकि लोकतांत्रिक देशों में पूंजीपतियों के लिए लूट की नीतियां लागू करना राजतंत्र से ज्यादा आसान होता है। राजतंत्र की तुलना में लोकतंत्र ने साम्राज्यवाद को अधिक मजबूत किया है। लोकतंत्र की सिफारिश करने वाले इंग्लैंड ने पूरी दुनिया में अपना साम्राज्य फैलाया था। आज अमेरिका नव-साम्राज्यवाद बढ़ाने में अग्रसर है। लोकतांत्रिक देशों में पूंजीपतियों की संख्या और अमीरी-गरीबी की खाई लगातार बढ़ती जा रही है। कारपोरेट राज के लिये अनुकूल नीतियां बनाना लोकतंत्र में जितना आसान है, उतना राजतंत्र में कभी नहीं था। लोकतंत्र में सरकारें कारपोरेट घरानों के सामने ‘रेड-कारपेट’ बिछाकर आत्मसमर्पण कर रही हैं, जबकि राजतंत्र में ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ के खिलाफ कई राजाओं ने अपनी जान दांव पर लगाकर संघर्ष किया था। इस दृष्टि से लोकतंत्र से राजतंत्र बेहतर माना जाना जा सकता है।
भारत में आजादी के समय जितने राजा थे, उससे अधिक आज जन-प्रतिनिधि हैं। इन जन-प्रतिनिधियों की ऐय्याशी और जीवन किसी राजा से कम नहीं है। आज के जन-प्रतिनिधि राजाओं से ज्यादा सुख-सुविधाऐं भोगते हैं। जनता की गाढ़ी कमाई को अपनी ऐय्याशी पर खर्च करने के अलावा ये जन-प्रतिनिधि जनता के लिये कुछ करते दिखाई नहीं देते। राजाओं को अपने निर्णय के परिणाम भुगतने पड़ते थे, जान की जोखिम उठानी पड़ती थी, लेकिन लोकतंत्र में जन-प्रतिनिधियों की अपने निर्णयों के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं है।
लोकतंत्र में भ्रष्टाचार का नया तरीका आरुढ़ हुआ है। भारत में पार्टियों को धन प्राप्त करने के लिए सभी पार्टियों की सहमति से चुनावी बॉन्ड लाए गए हैं। चुनावी बॉन्ड की गोपनीयता के कारण किस पार्टी को, किससे, कितना धन मिला है, इसके बारे में लोगों को किसी प्रकार की जानकारी नहीं होती। धन के लिए पार्टियां पूंजीपतियों से लिखित, अलिखित समझौते करती हैं। जो पार्टी पूंजीपतियों को जितना लाभ पहुंचाती है, उतना ही अधिक धन प्राप्त करती है। कंपनियां लूट का एक हिस्सा कमीशन के रूप में चुनावी बॉन्ड की मार्फत देती हैं। चुनावी प्रतिस्पर्धा ने लोकतंत्र को कमीशन-खोर और बिकाऊ बना दिया है।
कहा जाता था कि लोकतंत्र बहुमत के सिद्धांत पर काम करता है, जहां बहुमत का राज होगा और अल्पमत का आदर होगा, लेकिन यह सच नहीं है। आज भारत में 90 करोड़ मतदाता हैं। उसमें से लगभग 60 प्रतिशत यानि लगभग 54 करोड़ मतदाता वोट देते हैं। जिसे 30-35 प्रतिशत याने 15-20 करोड़ वोट मिलते हैं, वह सत्ता प्राप्त करता है। यानि कि 135 करोड़ जनसंख्या के देश में 90 करोड़ मतदाताओं में से 20 करोड़ वोट प्राप्त करने वाले लोग राज करते हैं। लोकतंत्र में अल्पमत बहुमत पर राज करता है।
चुनाव जीतने के लिए पार्टियां कंपनियों को नियुक्त करती हैं। चुनावी मुद्दे, कार्यकर्ता प्रशिक्षण के साथ-साथ जातिगत समीकरण, समाज में भेद पैदा करने वाले संवेदनशील मुद्दों की तलाश कर वोट के लिये समाज को बांटने का काम कंपनियां करती हैं। धर्म, संप्रदाय, जाति, रंग, आहार, पहनावा, क्षेत्रीय अस्मिता आदि पर विवाद खडा किया जाता है। उनके लिये प्रसार-माध्यमों द्वारा जनमत पैदा किया जाता है। हिंसा फैलाई जाती है। पार्टियों और उनके नेताओं की झूठी ब्रांडिंग की जाती है। उम्मीदवार तय करने से लेकर उन्हें जिताने तक, सब कुछ कंपनियां करती हैं। लोकतंत्र में चुनाव प्रक्रिया का व्यवसाय के रुप में उभरना लोकतंत्र का पराभव है।
लोकतंत्र के नाम पर एक ऐसी व्यवस्था बनाई गई है जहां झूठ, हिंसा, विद्वेष, भेदभाव, प्रतिस्पर्धा, प्रतिशोध के कारण समाज और देश बंटता जा रहा है, जहां देश और समाज की भलाई का कोई रास्ता नजर नहीं आता। लोकतंत्र में न्याय आधारित व्यवस्था की कोई उम्मीद नहीं रख सकते। लोकतंत्र आदर्श व्यवस्था निर्माण का उद्देश्य प्राप्त करने में असफल हुआ है। लोकतंत्र पराभूत हुआ है। अब न्याय आधारित व्यवस्था के लिए हमें एक नये तंत्र की खोज करना जरूरी है।