भारत धीमे धीमे अपने कदम विकसित देशों की श्रेणी की तरफ बढ़ा रहा है और इसमें बहुत बड़ा योगदान जीएसटी प्रणाली तथा औद्योगिक उत्पादनों का है। वो दिन गये जब भारत को कृषि प्रधान देश मानकर विकासशील देशों में गिना जाता था। नरसिम्हा राव के समय से ही जब अर्थव्यवस्था का उदारीकरण आरम्भ हुआ और भारत के आर्थिक गलियारे निजी क्षेत्रों एवं विदेशी निवेशकों के लिए खोले जाने लगे तो यह निश्चित हो गया था कि भारत देर-सवेर, आइटी, मैन्युफैक्चरिंग एवं असेंबलिंग उद्योग में एक ताकत बनेगा जिससे प्रति व्यक्ति आय, रोजगार तथा जीडीपी में पर्याप्त इजाफा होगा। यह हुआ भी लेकिन रोजगार में उम्मीद के मुताबिक अवसर उत्पन्न नहीं हुए। व्यापक आॅटोमेशन के कारण उद्योग तथा कार्यालयों में मानव श्रम की आवश्यकताएं कम होती गईं और शहरीकरण,सड़क निर्माण एवं उद्योग विस्तार ने कृषि भूमि का क्षेत्र चेतावनी स्तर तक कम कर दिया जिसके कारण कृषि रोजगार में भी कमी आ गई। रही सही कसर कोविड के प्रकोप ने रोजगार छीन कर पूरी कर दी।
यही वो बिंदु था जिसने केंद्र एवं राज्य सरकारों को चिंता में डाल दिया और उन्हें गरीबी तथा बेरोजगारी से उपजे जन आक्रोश की गंध महसूस होने लगी। इस के अल्पकालिक निदान के लिए जनता को प्रत्यक्ष सहायता योजना सर्वप्रथम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार एवं उत्तरप्रदेश की योगी सरकार ने प्रारंभ की जिसमें गरीबी रेखा से नीचे आने वाले परिवारों को प्रति व्यक्ति पांच किलो प्रतिमाह अनाज मुफ़्त में वितरण किया जाने लगा। बाद में लगभग सभी राज्य सरकारों ने विभिन्न नामों से यह योजना चालू कर दी। केंद्र सरकार यहां ही नहीं रुकी। उसने किसानों को खुश करने के लिए नकद राशि सीधे उनके खातों में बतौर सहायता हस्तांतरित करना प्रारंभ किया। मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार, झारखंड की सोरेन सरकार तथा महाराष्ट्र की शिंदे सरकार ने महिलाओं के खाते में नकद राशि देने का निर्णय किया। तमिलनाडु में पहले से ही अल्प आय वर्ग को मुफ्त भोजन तथा साड़ी वितरण का कार्य चल रहा है। इन योजनाओं से वहां सरकार चला रहे दलों को चुनावी फायदे भी हुये और वे सत्ता में वापस लौटने भी लगे। किसान सब्सिडी और मुफ़्त राशन योजना का भारतीय जनता पार्टी को 2019 और 2024 के लोकसभा चुनावों में विजयी बनाने में महत्वपूर्ण हाथ था।
अब यदि अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र के सिद्धांतों पर इस प्रकार की योजनाओं को परखा जाए तो इस प्रकार की मुफ़्त योजनाओं को कभी भी अच्छा नहीं माना गया है और इनसे किसी देश की अर्थव्यवस्था पर एक बहुत बड़ा अनावश्यक बोझ पड़ता है जिसका दुष्प्रभाव जनता के ऊपर करों में बढ़ोतरी तथा अन्य महत्वपूर्ण योजनाओं में कटौती के रूप में आता है। इसके साथ ही सामाजिक रूप से भी देखें तो जनता में मुफ्तखोरी की प्रवृत्ति कालांतर में शिक्षा एवं मेहनत के आधार पर कमाने की क्षमता और नीयत को कमजोर करने का कार्य करती है जो किसी भी उन्नत राष्ट्र की विकास गति को धीमे कर देती है। राजनैतिक रूप से सत्तारूढ़ दल को वोटों में बढ़त इस योजना से भले ही मिलती हो किंतु नैतिक रूप से यह एक तरह से वोट के बदले रिश्वत ही मानी जायेगी भले ही इस प्रकार की मुफ़्त सहायता कानूनी या संवैधानिक रूप से अवैध नहीं भी हों। देश और राज्यों की अर्थव्यवस्था पर कई लाख करोड़ रुपए का भार केवल इन मुफ़्त सहायता योजनाओं के कारण पड़ रहा है।
यहां यह वाजिब सवाल भी उठेगा कि जब बड़े कारपोरेट घरानों के लाखों करोड़ रुपए माफ कर दिये जाते हैं तो वहां अर्थव्यवस्था की प्रगति बाधक क्यों नहीं होती? जी हां, यह भी एक खतरनाक सिस्टम पैदा हुआ है भारत में जिसमें केंद्र सरकार के मातहत कार्य कर रही बैंक लोन सैटलमैंट के नाम पर बड़े व्यवसायिक घरानों के बकाया ब्याज को माफ करती रही हैं। हालांकि मूल रकम माफ नहीं की जाती है। इसी तर्ज़ पर राज्य सरकारें भी किसानों का ऋण माफ करती आ रही हैं । यह ऋण माफी भी एक स्वस्थ अर्थव्यवस्था के लिए कलंक जैसी ही है और यह ऋणी को ऋण नहीं चुकाने के लिए प्रेरित करती है। होना यह चाहिए कि सरकारें किसानों को खाद, बीज, डीजल, बिजली, पानी में सब्सिडी प्रदान करें बजाय इसके कि उनका समूचा ऋण ही माफ कर दें। इसी प्रकार औद्योगिक इकाइयों को अपने उत्पादों पर एक समय सीमा तक करों में रियायत प्रदान करें। निर्यात पर भी अंतरराष्ट्रीय कानूनों की सीमा में रहकर सब्सिडी दी जा सकती है। उनकी ऋण माफी कतई जायज नहीं है और इससे समूची बैंकिंग व्यवस्था पर चोट पहुंचती है। ग्रामीण बेरोजगारी दूर करने के लिए सरकार मनरेगा जैसी योजनाओं को सशक्त करे तथा शिक्षित बेरोजगारों के लिए भी इसी तर्ज पर कोई सेवा योजना लेकर आए। किसी भी सशक्त अर्थव्यवस्था के लिए रोजगार सृजन एक महत्वपूर्ण बिंदु होता है। भारत में इसके लिए कृषि योग्य भूमि का रकबा बढ़ाने के प्रयास करने होंगे तथा बड़े पैमाने पर मैन्युफैक्चरिंग उद्योग, असेंबलिंग यूनिट्स तथा आइटी सेक्टर को बढ़ावा देना होगा तथा उनके लिए आधारभूत सुविधाएं विकसित करनी होंगी। करों में छूट तथा अंतरराष्ट्रीय समझौतों की सीमा में निर्यात सब्सिडी देना भी एक बड़ा प्रोत्साहन हो सकता है।
आरबीआई के आधिकारिक आंकड़े के अनुसार केवल वर्ष 2021-2022 के दो वर्षों में बैंकों द्वारा विभिन्न औद्योगिक घरानों को 3.94 करोड़ रुपए बट्टे खाते में डाल दिए गए थे यानि माफ कर दिए गए थे। यदि विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा किसानों के माफ किए गए ऋणों के आंकड़े देखें तो ये भी कई लाख करोड़ रुपए बैठते हैं।