एक बार संत एकनाथ के मन में त्रिवेणी से जल भरकर रामेश्वरम में चढ़ाने का विचार आया। उन्होंने ने इस बारे में ने संतों से विचार विमर्श किया। सभी संतों ने सहर्ष ही स्वीकार कर लिया। सभी संत यात्रा करते हुए सभी प्रयाग पहुंचे और सब लोगों ने त्रिवेणी में स्नान किया। त्रिवेणी में स्नान करने और भोजन ग्रहण करने के पश्चात सभी ने अपने-अपने कांवड़ में त्रिवेणी का पवित्र जल भरा और रामेश्वरम की यात्रा पर चल पड़े।
सभी संत प्रभु का स्मरण करते हुए रामेश्वरम की ओर प्रस्थान कर रहे थे कि उनकी दृष्टि मार्ग पर पड़े एक गधे पर पड़ी। वह गधा प्यास से तड़प रहा था। उसकी ये हालत सभी संत खड़े होकर देख रहे थे। कोई भी संत त्रिवेणी से लाया पवित्र जल उसको पिलाकर , रामेश्वरम में जल चढ़ाने के पुण्य से वंचित नहीं होना चाहता था। सब अभी सोच ही रहे थे कि संत एकनाथ ने अपनी कांवड़ से पवित्र जल निकाला और उस गधे को पिला दिया।
देखते-देखते ही गधा उठा और वहीं पास में हरी-हरी घास चरने लगा। इस पर सब संतों ने कहा, अब तो आप रामेश्वरम में जल नहीं चढ़ा पाएँगे और आप उस पुण्य से वंचित रह जाएंगे। तब संत एकनाथ ने उन्हें उत्तर दिया, प्रभु तो कण-कण में निवास करते हैं। वह तो हर जीव में हैं। उस गधे को जल पिलाकर और उसके प्राण बचा कर मुझे वो पुण्य मिल गया जो मैं लेने जा रहा था।
यह उत्तर सुन सभी निरुत्तर हो गए। इस तरह संत एकनाथ ने सच्चे पुण्य की परिभाषा दी। संत एकनाथ ने इसके द्वारा संदेश दिया कि पुण्य कमाने के लिए तीर्थ स्थलों पर जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती यदि हम अपने आस पास हर जरूरतमंद की मदद कर सकें। संत एकनाथ ने सच्चे पुण्य की परिभाषा हमारे समक्ष रखी।
प्रस्तुति : राजेंद्र कुमार शर्मा