वर्ष 1927 का 17 दिसंबर था वह यानी आज का ही दिन, जब क्रूर अंग्रेजों ने उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले की जेल में बंद क्रांतिकारी राजेंद्रनाथ लाहिड़ी को शहीद करने के लिए अपने बनाए नियम-कायदों व कानूनों की भी बलि दे दी। दरअसल, उन्होंने लाहिड़ी की शहादत के लिए दो दिन बाद उन्नीस दिसम्बर की तारीख तय कर रखी थी। उसी दिन फैजाबाद की जेल में अशफाकउल्लाह खां को तो गोरखपुर की जेल में पं. रामप्रसाद बिस्मिल और इलाहाबाद की मलाका जेल में रौशन सिंह को शहीद किया जाना था। लेकिन अंदेशा सताने लगा कि तब तक क्रांतिकारी गोंडा जेल पर हमला करके लाहिड़ी को छुड़ा न ले जाएं तो उन्होंने हड़बड़ी में इंसाफ के सारे तकाजों को धता बताकर लाहिड़ी के जीवन के दो और दिन उनसे छीन लिए। हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के इन चारों क्रांतिकारियों का साझा कुसूर यह था कि उन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिए सशस्त्र संघर्ष हेतु धन जुटाने के लिए अपने एक आॅपरेशन के तहत 9 अगस्त, 1925 को सहारनपुर-लखनऊ पैसेन्जर ट्रेन से ले जाया जा रहा गोरी सरकार का खजाना लूट लिया था। तथ्यों के अनुसार यह ट्रेन उस दिन लखनऊ स्थित काकोरी रेलवे स्टेशन से छूटी तो राजेंद्रनाथ लाहिड़ी ने चेन खींचकर उसे रोका, जिसके बाद क्रांतिकारियों की टोली ने रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में आपरेशन को सफलता तक पहुंचाया।
क्रांतिकारियों के इस आपरेशन से अंग्रेजों का सिंहासन किस तरह हिल गया था, इसे इस बात से समझ सकते हैं कि इसमें क्रांतिकारियों ने कुल 4601 रुपये लूटे थे, लेकिन इसकी जांच वगैरह पर गोरी सरकार के 10 लाख रुपये खर्च हुए और उसे तब तक चैन नहीं आया, जब तक मुकदमे के नाटक के बाद उसने राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्लाह खां तथा रोशन सिंह को फांसी नहीं दे दी।
लाहिड़ी को दो दिन पहले ही फांसी दे देने का एक कारण यह भी था कि सूबेदार को तमाचा जड़ने की उक्त घटना के बाद वे अनेक देशवासियों के हीरो बन गए थे। स्वतंत्रता के लिए अपनी शहादत पर उन्हें खुद भी कुछ कम स्वाभिमान न था। शहादत से कुछ ही दिनों पहले उन्होंने अपने एक मित्र को पत्र में लिखा था, ‘मालूम होता है कि देश की बलिवेदी को हमारे रक्त की आवश्यता है।…मृत्यु क्या है? जीवन की दूसरी दिशा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। यदि यह सच है कि इतिहास पलटा खाया करता है तो मैं समझता हूं, हमारी मृत्यु व्यर्थ नहीं जाएगी, सबको अंतिम नमस्ते।’ उनका यह विश्वास उनकी शहादत के दिन इस रूप में दिखा था कि उस सुबह भी उन्होंने अपनी दिनचर्या में कोई परिवर्तन नहीं किया था।
फांसी से कुछ ही घंटे पहले उन्हें व्यायाम करते देख ड्यूटी पर तैनात अंग्रेज जेलर चकित होने लगा तो उन्होंने हंसते हुए उसे बताया था, ‘व्यायाम मेरा नित्य का नियम है। मृत्यु के भय से मैं नियम क्यों छोड़ दूं?..मैं पुर्नजन्म में विश्वास करता हूं और व्यायाम इस उद्देश्य से करता हूं कि अगले जन्म में भी मुझे बलिष्ठ शरीर मिले, जो ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ युद्ध में देश के काम आ सके।’
जिंदा रहते तो वे अंग्रेजों की आंख की किरकिरी और परेशानी का सबब थे ही, गोरी हुकूमत उनकी शहादत के बाद भी किसी अप्रत्याशित घटनाक्रम की आशंका से त्रस्त थी। इसलिए उसने जेल के करीब ही टेढ़ी नदी के किनारे गुप-चुप उनका अंतिम संस्कार कर दिया था। जानकारों के अनुसार क्रांतिकारियों के समर्थकों व शुभचिंतकों ने उनके अन्त्येष्टि स्थल पर उनका स्मारक बनाने की कोशिश भी की थी। परंतु उन्हें इसकी अनुमति न देकर बल पूर्वक रोक दिया गया था। इनमें लाहिड़ी के रिश्तेदारों के अलावा क्रांतिकारी मन्मथनाथ गुप्त, लाल बिहारी टंडन, व ईश्वरशरण आदि भी शामिल थे।
लाचारी में उन्हें कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने अन्त्येष्टि स्थल की पहचान बनाये रखने के लिए उस जगह एक बोतल गाड़ दिया था। लेकिन उनमें से कई को भी दूसरे मामलों में गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया तो किसी ने वह बोतल उखाडकर फेंक दी, जिसके चलते बाद में अन्त्येष्टि स्थल की शिनाख्त ही मुश्किल हो गई। यहां याद दिलाना जरूरी है कि अभी लाहिड़ी की शहादत को महीना भर भी नहीं हुआ था कि क्रांतिकारी मणींद्रनाथ बनर्जी ने उसका बदला लेने के लिए अंग्रेजों से रायबहादुर की उपाधि पा चुके उनके खुफिया विभाग के कारकुन जितेंद्र बनर्जी को, जिन्होंने काकोरी केस में भी जासूसी की थी, गोली मार दी। इसके लिए उन्होंने 13 जनवरी की तारीख चुनी, जो संयोग से उनका जन्मदिन भी थी।
घटनास्थल था वाराणसी का दशाश्वमेध घाट। गोली मारने के बाद एक बार तो मणींद्र भाग निकले, मगर थोड़ी ही देर बाद लौट आए और गिरे पड़े जितेंद्र के पास जाकर पूछने लगे, ‘रायबहादुर, लाहिड़ी की फांसी का ईनाम तुम्हें मिल गया न?’ पकड़े गए तो उन्हें दस साल की सजा हुई और 1934 में फतेहगढ़ केंद्रीय कारागार में लंबी भूख-हड़ताल के बाद मन्मथनाथ गुप्त व यशपाल की उपस्थिति में अंतिम सांस ली। तब से आज तक लाहिड़ी की यादें दूसरे शहीदों की तरह ही इतिहासकारों का सौतेलापन व देश और समाज की कृतघ्नता झेलती आ रही हैं।
अशफाक, बिस्मिल और रौशन सिंह की तो कभी-कभार चर्चाएं भी हो जाती हैं, लेकिन लाहिड़ी को उनके शहादत दिवस व स्थल पर भी याद नहीं किया जाता, जिसका वे प्रतिनिधित्व करते थे। गोंडा की जेल में उनके शहादतस्थल से लेकर टेढ़ी नदी के तट पर झंझरी ब्लॉक के छावनी सरकार गांव में स्थित उनके अंन्त्येष्टि स्थल के आसपास के क्षेत्र का जो सुंदरीकरण व विकास किया गया है, उसमें भी क्रांतिकारी चेतना व इतिहास के साथ न्याय नहीं किया गया है।