तत्कालीन परिस्थितियों के मद्देनजर वैश्विक परिदृश्य को देखें तो दुनिया युद्ध के मुहाने पर खड़ी है। रूस और यूक्रेन के मध्य महीनों से छिड़ा युद्ध किसी से छिपा नहीं है। चीन भी अपनी विस्तारवादी नीति के साथ आगे बढ़ रहा है। ऐसे में उसे अपने विस्तार के लिए युद्ध करना पड़े, तो शायद ही उसे गुरेज हो। ताइवान के मसले को ही देख लीजिए। इसके अलावा भी जिस तरीके से वैश्विक स्तर पर हथियारों की खरीद-फरोख़्त चल रही है। उससे इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि हर देश अपना विस्तार करना चाहता है। ऐसे में कहें कि दुनिया बारूद की ढ़ेर पर बैठी है, तो शायद ही अतिश्योक्ति होगी। वैसे ये युद्ध किसलिए हो रहे हैं, सभी भलीभांति इससे वाकिफ हैं। दुनिया में अपने को शक्तिशाली राष्ट्र कहलवाने के लिए शक्ति का प्रदर्शन हो रहा है और इस बीच कुछ पीछे छूट रहा है, तो वह मानवता वादी दृष्टिकोण ही है। इतना ही नहीं कुछ मूल्य ऐसे अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा निर्धारित किए गए। जिनका पालन करना हर राष्ट्र के लिए जरूरी है, लेकिन महत्वाकांक्षा और स्वयं को एक सशक्त राष्ट्र के रूप में वैश्विक परिदृश्य पर प्रस्तुत करने के लिए उन मूल्यों की अवहेलना की जा रही। जिससे एक शांत और खुशहाल वैश्विक व्यवस्था को ठेस पहुंच रही है। अंतरराष्ट्रीय शांति दिवस का उद्देश्य भी कुछ निश्चित लक्ष्यों को प्राप्त करना ही है और इसी को ध्यान में रखकर प्रतिवर्ष 21 सितंबर को यह दिवस मनाया जाता है, लेकिन वर्तमान की वैश्विक परिस्थितियों में कहीं से कहीं तक इस दिवस की सार्थकता भलीभूत होती हुई दीप्तमान नहीं होती। वैसे विश्व शांति दिवस मनाने का एक व्यापक प्रयोजन है। जो इसकी प्रतिवर्ष की थीम से भी झलकता है। इस दिवस का उद्देश्य विश्व में युद्ध खत्म करके शांति स्थापित करना तो है ही। इसके अलावा दुनियाभर में व्याप्त अन्य समस्याओं को भी जड़ से समूल नष्ट करना इस दिवस का उद्देश्य है। इसी वर्ष 2022 की थीम पर निगहबानी करें तो इस वर्ष की थीम अंतरराष्ट्रीय शांति दिवस की रखी गई है-‘जातिवाद खत्म करें, शांति का निर्माण करें’। वर्तमान समय में नस्लवाद की समस्या तेजी के साथ बढ़ती जा रही है। बीते कुछ समय पहले अमेरिका जैसे सशक्त देश में भी ऐसी कई घटनाएं सामने आईं हैं। जब व्यक्ति के रंग-रूप के आधार पर उसकी जान तक ले ली गई है। उल्लेखनीय है कि गोरे-काले का भेद अमेरिका जैसे लोकतांत्रिक देश की एक बड़ी और जटिल समस्या है। जहां आए दिन ऐसी घटनाएं सामने आती रहती हैं। यहां गौर करने वाली बात यह है कि इससे अछूता भारत जैसा विविधताओं से भरा देश भी नहीं है। यहां जातीय जकड़न पग-पग पर देखने को मिलती है। दुर्भाग्य है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा संवैधानिक देश है, लेकिन यहां नीतियों का निर्धारण भी जातीय परिपाटी के परिपेक्ष्य में किया जाता है। ऐसे में जातिवाद जैसी छूत व्यवस्था का देश और समाज से अंत कैसे होगा? यह स्वयं में एक ज्वंलत प्रश्न बन जाता है।
अंतरराष्ट्रीय शांति दिवस को, युद्ध से इतर मानवता की तरफ दुनिया को ले जाने के लिए मनाया जाता है, लेकिन इक्कीसवीं सदी की वैश्विक व्यवस्था में शांति जैसी पहल बेईमानी लगती है। भारत सदैव से शांति और विश्वबन्धुत्व में विश्वास करने वाला राष्ट्र रहा है, लेकिन आजादी के इतने वर्षों बाद अब देश के भीतर प्रांतीय शक्तियां उभार ले रही हैं। नक्सलवाद और चरमपंथी गुट सक्रिय हो रहे हैं, जो हमारी पुरातन व्यवस्था पर ही सवालिया निशान खड़ा करते हैं। एक समय देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने विश्व शांति के लिए पांच सिद्धांत दिए थे। जिन्हें पंचशील सिद्धांत कहा गया, लेकिन जब देश के भीतर ही खालिस्तान और नक्सली गतिविधियों की आहट सुनाई देती है। ऐसी परिस्थितियों में इन सिद्धांतों की प्राण-प्रतिष्ठा खतरे में दिखाई देती है। एक समय था, जब नेहरू ने वैश्विक शांति के सिद्धांत दिए थे और आज का समय है। जब आंतरिक अशांति देश में देखने को मिलती है। ऐसे में विश्व बंधुत्व और शांति के संदेश वाहक हम कैसे बन पाएंगे? यह भी एक सवाल है।
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस के अनुसार, ‘जातिवाद हर समाज में, संस्थाओं, सामाजिक संरचनाओं और रोजमर्रा की जिंदगी में जहर घोल रहा है और यह लगातार असमानता का चालक बना हुआ है।’ उनके कथनानुसार यह लोगों को उनके मौलिक मानवाधिकारों से वंचित करना जारी रखता है। इसके अलावा यह समाजों को अस्थिर करता है, लोकतंत्रों को कमजोर करता है और सरकारों की वैधता को नष्ट करता है। जातिवाद और लैंगिक असमानता के बीच संबंध अचूक हैं। ऐसे में सभी राष्ट्रों अपने स्तर पर और अपने देश के भीतर जातिवाद को समूल नष्ट करने का प्रयास करना चाहिए। इसके अलावा आज विश्व बुद्ध से युद्ध की राह पर बढ़ चल पड़ा है। शस्त्रीकरण की होड़ मची हुई है, शस्त्रों की बिक्री तथा व्यापार राजनैतिक स्वार्थों के लिए जारी है।
दुनिया में महापुरुषों की वाणी नहीं, बल्कि हथियारों की गूंज सुनाई दे रही है। यदि इसको समय से न रोका गया तो इसके परिणाम एक और विश्वयुद्ध के रूप में दिखाई दे सकते हैं। प्रो. कोहन का मत है कि शस्त्रीकरण के द्वारा विश्व के राष्ट्रों में भय और मनमुटाव पैदा होता है। जबकि नि:शस्त्रीकरण के द्वारा भय एवं मनमुटाव को कम करके आपसी विवादों को शांतिपूर्वक ढंग से हल किया जा सकता है। अमरीकन मित्र सेवा समिति का भी मत है, ‘शस्त्रीकरण देश की सुरक्षा को मजबूत नहीं करता, वरन यह विश्व को असुरक्षित बनाता है।’ शस्त्रीकरण से युद्ध की आशंका बढ़ती है। शस्त्रों पर प्रतिबंध और शास्त्रों की तरफ बढ़ना ही शांति का एकमात्र विकल्प है।