भारत में मानसून ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया हैं। बरसात बारिश अकेले पानी की बूंदे नहीं ले कर आती, यह समृद्धि, संपन्नता की दस्तक होती है। लेकिन यदि बरसात वास्तव में औसत से छह फीसदी ज्यादा हो गई तो हमारी नदियों में इतनी जगह नहीं है कि वह उफान को सहेज पाएं, नतीजतन बाढ़ और तबाही के मंजर उतने ही भयावह हो सकते हैं, जितने कि पानी के लिए तड़पते-परसते बुंदेलखंड या मराठवाड़ा के। हर साल विकास के प्रतिमान कहे जाने वाले महानगरों-राजधानियों दिल्ली, मुंबई,मद्रास, जयपुर, पटना, रांची की बाढ़ बानगी है कि किस तरह शहर के बीच से बहने वाली नदियों को जब समाज ने उथला बनाया तो पानी उनके घरों में घुस गया था। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 1951 में बाढ़ ग्रस्त भूमि की माप एक करोड़ हेक्टेयर थी। 1960 में यह बढ़ कर ढाई करोड़ हेक्टेयर हो गई। 1978 में बाढ़ से तबाह जमीन 3.4 करोड़ हेक्टेयर थी और 1980 में यह आंकड़ा चार करोड़ पर पहुंच गया।
अभी यह तबाही कोई सात करोड़ हेक्टेयर होने की आशंका है। सनद रहे वृक्षहीन धरती पर बारिश का पानी सीधा गिरता है और भूमि पर मिट्टी की ऊपरी परत, गहराई तक छेदता है। यह मिट्टी बह कर नदी-नालों को उथला बना देती है, और थोड़ी ही बारिश में ये उफन जाते हैं। दिल्ली में एनजीटी ने मेट्रो कारपोरेशन को चताया था कि वह यमुना के किनारे जमा किए गए हजारों ट्रक मलवे को हटवाए। यह पूरे देश में हो रहा है कि विकास कार्यों के दौरान निकली मिट्टी व मलवे को स्थानीय नदी-नालों में चुपके से डाल दिया जा रहा है। और तभी थोड़ी सी बारिश में ही इन जल निधियों का प्रवाह कम हो जाता है व पानी बस्ती, खेत, ंजगलों में घुसने लगता है।
हमारे देश में 13 बड़े, 45 मध्यम और 55 लघु जलग्रहण क्षेत्र हैं। जलग्रहण क्षेत्र उस संपूर्ण इलाके को कहा जाता है, जहां से पानी बह कर नदियों में आता है। इसमें हिमखंड, सहायक नदियां, नाले आदि शामिल होते हैं। जिन नदियों का जलग्रहण क्षेत्र 20 हजार वर्ग किलोमीटर से बड़ा होता है, उन्हें बड़ा-नदी जलग्रहण क्षेत्र कहते हैं। 20 हजार से दो हजार वर्ग किलोमीटर वाले को मध्यम, दो हजार से कम वाले को लघु जल ग्रहण क्षेत्र कहा जाता है।
इस मापदंड के अनुसार गंगा, सिंधु, गोदावरी, कृष्णा, ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, तापी, कावेरी, पेन्नार, माही, ब्रह्मणी, महानदी, और साबरमती बड़े जल ग्रहण क्षेत्र वाली नदियां हैं। इनमें से तीन नदियां-गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र हिमालय के हिमखंडों के पिघलने से अवतरित होती हैं। इन सदानीरा नदियों को ‘हिमालयी नदी’ कहा जाता है। शेष दस को पठारी नदी कहते हैं, जो मूलत: वर्षा पर निर्भर होती हैं।
यह आंकड़ा वैसे बड़ा लुभावना लगता है कि देश का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 32.80 लाख वर्ग किलोमीटर है, जबकि सभी नदियों को सम्मिलत जलग्रहण क्षेत्र 30.50 लाख वर्ग किलोमीटर है। भारतीय नदियों के मार्ग से हर साल 1645 घन किलोलीटर पानी बहता है जो सारी दुनिया की कुल नदियों का 4.445 प्रतिशत है। आंकडों के आधार पर हम पानी के मामले में पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा समृद्ध हैं, लेकिन चिंता का विषय यह है कि पूरे पानी का कोई 85 फीसदी बारिश के तीन महीनों में समुद्र की ओर बह जाता है और नदियां सूखी रह जाती हैं। सबसे अधिक खतरनाक है छोटी नदियों का लगातार लुप्त होना।
बिहार राज्य में ही उन्नीसवीं सदी तक हिमालय से चल कर कोई छह हजार नदियां यहां तक आती थीं जो संख्या आज घट कर बमुश्किल 600 रह गई है। मधुबनी-सुपौल में बहने वाली नदी तिलयुगाअ भी कुछ दशक पहले तक कोसी से भी बड़ी कहलाती थी, आज यह कोसी की सहायक नदी बन गई है। विगत तीन दशकों के दौरान बिहार की 250 नदियों के लुप्त हो जाने की बात सरकारी महकमे स्वीकार करते हैं।
अभी कुछ दशक पहले तक राज्य की बड़ी नदियां-कमला, बलान, फल्गू, बागमती आदि कई-कई धाराओं में बहती थीं जो आज नदारद हैं। देश की जीवन रेखा कहलाने वाली नदियां की जननी कहलाने वाले उत्तरांचल में विभिन्न स्थानों पर 18 बांध परियोजना चल रही हैं और इसका सीधा असर छोटी नदियों व सरिताओं के प्राकृतिक प्रवाह पर पड़ा है।
छोटी नदियां न केवल बरसात की बूद को सहेजती हैं, बल्कि बड़ी नदियों को उफनने से बचाती हैं और पूरे साल नीरमय रखती हैं। मध्य प्रदेश में नर्मदा, बेतबा, काली सिंध आदि में लगातार पानी की गहराई घट रही है। दुखद है कि जब खेती, उद्योग और पेयजल की बढ़ती मांग के कारण जल संकट भयावह हो रहा है वहीं जल को सहेज कर शुद्ध रखने वाली नदियां उथली, गंदी और जल-हीन हो रही हैं।
आज देश के विभिन्न हिस्सों में आई बाढ़ का दोष मीडिया भले ही मानसून के सिर मढ़ रहा हो, हकीकत यह है कि इस बाढ़ को और थोड़े ही दिन बाद प्यास को समाज खुद बुलाता है। नदी एक जीवंत अस्तित्व वाली संरचना है। इसकी अपनी याददाश्त होती है। नदी अपना मार्ग बदलती है और अपने पुराने घर को याद रखती है, लेकिन इंसान नदी के छोड़े स्थान को अपना मान कर वहां बस्ती, बाजार बसा लेता है। नदी अपने साथ रास्ते की मिट्टी, चट्टानों के टुकड़े व बहुत सा खनिज बहा कर लाती हैं।
यह समतल रूप से उसके तट या खादर पर फैल जाए, वह यह सहती है लेकिन हम तो उसे स्थान पर कंक्रीट बो देते हैं। पहाड़ी व नदियों के मार्ग पर अंधाधुंध जंगल कटाई, खनन, पहाड़ों को काटने, विस्फोटकों के इस्तेमाल आदि के चलते थोड़ी सी बारिश में ही बहुत सा मलवा बह कर नदियों में गिर जाता है। परिणामस्वरूप नदियां उथली हो रही हैं, उनके रास्ते बदल रहे हैं और थोड़ा सा पानी आने पर ही वे बाढ़ का रूप ले लेती हैं।
आज नदियों को सबसे बड़ा खतरा प्रदूषण से है-कल-कारखानों की निकासी, घरों की गंदगी, खेतों में मिलाए जा रहे रायायनिक दवा व खादों का हिस्सा, भूमि कटाव, और भी कई ऐसे कारक हैं जो नदी-जल को जहर बना रहे हैं। अनुमान है कि जितने जल का उपयोग किया जाता है, उसके मात्र 20 प्रतिशत की ही खपत होती है, शेष 80 फीसदी सारा कचरा समेटे बाहर आ जाता है।
यही अपशिष्ट या मल-जल कहा जाता है, जो नदियों का दुश्मन है। भले ही हम कारखानों को दोषी बताएं, लेकिन नदियों की गंदगी का तीन चैथाई हिस्सा घरेलू मल-जल ही है।
जब नदियों के पारंपरिक मार्ग सिकुड़ रहे हैं, जब उनकी गहराई कम हो रही है, जब उनकी अविरल धारा पर बंधन लगाए जा रहे हैं, जाहिर है ऐसे में नदियां एक अच्छे मानसून को वहन कर नहीं पाती हैं और उफन कर गांव-बस्ती-खेत में तबाही मचाती हैं।