Friday, September 19, 2025
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अयोध्या से भाजपा क्यों हारी?


इस लोकसभा चुनाव में भगवान राम की जन्मभूमि के मतदाताओं ने जिस तरह भाजपा की कलाई मरोड़कर फैजाबाद लोकसभा सीट, जिसमें अयोध्या समाहित है, उससे छीनी और उसकी प्रतिद्वंद्वी समाजवादी पार्टी की झोली में डाल दी है। निस्संदेह, उसका त्रास भाजपा को अरसे तक बेचैन रखेगा। इसलिए आज नहीं तो कल उसे इस सवाल की पड़ताल करनी ही होगी कि अयोध्यावासियों ने उसकी किस गलती को नाकाबिल-ए-माफी मानकर उसे यह सजा सुनाई है? जिन भगवान राम के मंदिर निर्माण के मुद्दे ने उसे उसके दो लोकसभा सीटों वाले पतझड़ से ‘दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी’ के बसंत तक पहुंचाया और अवसर हाथ आने पर जिनकी नगरी को ‘भव्य’ व ‘दिव्य’ बनाने में उसने कुछ भी उठा नहीं रखा, उसके निवासियों ने क्यों इस बार उसे लोकसभा में अपना प्रतिनिधित्व करने लायक भी नहीं समझा?
इस लिहाज से देखें तो इसका सबसे बड़ा कारण भाजपा का अयोध्या के मूल स्वभाव को समझने में नाकाम रहना है। दरअसल, अयोध्या को हमेशा अपना समतल तलाशती रहने की आदत है और अति किसी भी तरह की क्यों न हो, आमतौर पर न वह उसे स्वीकार करती है, न ही उसके सामने सिर झुकाती है। हां, वह उससे सीधे भिड़ती भी नहीं, लेकिन पहला मौका हाथ आते ही उसका हिसाब-किताब बराबर कर उसे चलता कर देती है। भाजपा की ‘अतियों’ के साथ भी उसने यही किया है।

यह कहना पूरी तरह गलत होगा कि राम मंदिर निर्माण और त्रेता के गौरव की वापसी के प्रयत्नों के लिए वह भाजपा और उसकी सरकारों की कृतज्ञ नहीं है। कृतज्ञ तो वह उसकी अभी भी है ही। लेकिन क्या करती जब भाजपा ने उसकी आड़ में अपने राजनीतिक हित साधने के लिए न सिर्फ उसकी छाती पर मूंग दलने बल्कि उसके राम की अवमानना करने का रास्ता भी चुन लिया। इतना ही नहीं, वह समदर्शिता समेत भगवान राम के प्राय: सभी गुणों व मूल्यों के विरुद्ध जा खड़ी हुई। फिर जैसे इतना ही काफी न हो, वह ‘जो राम को लाये हैं, हम उनको लायेंगे’ का अहमन्यताभरा नारा लगवाने लगी और उसके पोस्टरों में रामलला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उंगली पकड़कर अपने मंदिर की ओर जाते दिखाई देने लगे। इतना ही नहीं, इसे लेकर उठने वाले ऐतराजों की उसने रामद्रोहियों की करतूत बताकर छुट्टी कर दी। एक लोकगायिका का यह सवाल कि ‘जो सबको लाए हैं, तुम उनको लाओगे?’ वायरल हो गया तो भी वह नहीं ही चेती।

स्वाभाविक ही, अयोध्या के मतदाताओं में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। इसलिए चुनाव सभाओं में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बारम्बार यह कहना आरंभ किया कि चुनाव में लड़ाई रामभक्तों व रामद्रोहियों के बीच है और प्रधानमंत्री ‘चेताने’ लगे कि कांग्रेस सत्ता में आ गई तो नवनिर्मित राम मंदिर पर बाबरी ताला लगा देगी तो मतदाताओं ने चिढ़कर भाजपा से न सिर्फ अयोध्या-फैजाबाद बल्कि उसके आसपास की लोकसभा सीटें भी छीन लीं। फैजाबाद मंडल की तो पांच की पांचों।

चुनाव नतीजों के बाद अयोध्या में कई लोग 2024 की भाजपा की 2014 के संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन से तुलना करते नजर आए। यह कहते कि जैसे 2014 में कांगे्रस के नेतृत्व वाले संप्रग ने मान रखा था कि धर्मनिरपेक्षता की अलमबरदारी के नाम पर वह जो कुछ भी सही-गलत करेगा, मतदाता आंखें मूंदकर उसे स्वीकार करते चलेंगे, वैसे ही इधर निरंकुश भाजपा ने मान लिया था कि ‘हिन्दुत्व’ के नाम पर वह कितनी भी मनमानियां करती रहे, मतदाता उसे छोड़ेंगे नहीं। क्या आश्चर्य कि अयोध्या की सैकड़ों परियोजनाओं पर केंद्र व प्रदेश सरकार के राजकोष से कोई पचास हजार करोड़ रुपये खर्च करवाकर भी वह मतदाताओं को बिदकने से नहीं रोक पाई।

निर्माणाधीन राम मंदिर में दर्शन-पूजन के लिए आने वाले तीर्थयात्रियों, श्रद्वालुओं व पर्यटकों की सुख-सुविधा के लिए अयोध्या में पिछले साल सड़कें चौड़ी करने का अभियान चला तो समुचित मुआवजे व पुर्नवास के वादे निभाये बिना नागरिकों के हजारों घरों, दुकानों व प्रतिष्ठानों को ध्वस्त कर दिया गया। इससे वे नाराज हुए तो कई बेदर्द भाजपाई हलके यह आभास कराते दिखे कि इससे देश भर के रामभक्त खुश होंगे और वे मिलकर शेष देश में भाजपा का बेड़़ा पार लगा दें तो अयोध्यावासियों की नाराजगी से फैजाबाद की एक सीट हार जाना उसकी बहुत छोटी कीमत होगी।

लेकिन इसके बाद प्रधानमंत्री ने ‘चार सौ पार’ का नारा दिया तो अयोध्या के सांसद व भाजपा प्रत्याशी लल्लू सिंह एक वीडियो में संविधान बदलने के लिए उसकी सफलता को जरूरी बताते नजर आए। फिर तो यह नारा भी ‘जो राम को लाए हैं़़…’ के नारे की तरह ही बैक फायर कर गया। दलित व पिछड़ी जातियोंं के मतदाता इस अंदेशे में सपा के बैनर तले एकजुट हो गए कि उनके पास बाबासाहब के संविधान और उसके दिए आरक्षण को बचाने का यह अंतिम अवसर है। वे दलित और पिछडेÞ भी जो 2019 में अलग-अलग कारणों से भाजपा की ओर चले गए थे, उसकी ओर से मुह मोड़कर वापस लौट आये।

इतनी पड़ताल से साफ है कि अयोध्या में भाजपा को दरअसल भाजपा ने ही हराया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से समन्वय के अभाव ने भी, जो इससे पहले के चुनावों में भरपूर दिखाई देता था। लेकिन एक और कारक की चर्चा किए बिना इस हार की कहानी पूरी नहीं हो सकती। वह यह कि सपा ने इस बार इस लोकसभा सीट के जातीय समीकरणों के मद्देनजर खूब सोच-समझकर अपने नौ बार के दलित विधायक अवधेश प्रसाद को अपना प्रत्याशी बनाया। अवधेश प्रसाद अपने समूचे प्रचार अभियान में अपनी पार्टी के इस प्रयोग को ‘क्रांतिकारी’ बताते हुए याद दिलाते रहे कि बसपा के संस्थापक कांशीराम ने कभी दलितों के लिए आरक्षित लोकसभा सीट से चुनाव नहीं लड़ा और सपा के संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने उन्हें पहली-पहल इटावा सीट से लोकसभा पहुंचाया था।

इसका समूचे चुनावी परिदृश्य पर असर हुआ और दलितों ने जून, 1995 के बहुचर्चित गेस्ट हाउस कांड के वक्त से ही सपा से चली आ रही दुश्मनी को भूलकर उसके पक्ष में एकजुट मतदान किया। अब कई हलकों में अवधेश प्रसाद की जीत की 1989 में इस सीट पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के मित्रसेन यादव को मिली जीत से तुलना की जा रही हैं। तब राम मंदिर के बहुप्रचारित शिलान्यास के बाद जहां विश्व हिन्दू परिषद व भाजपा फूली-फूली फिर रही थीं, कांग्रेस भी उनसे उसका श्रेय लेने की होड़ कर रही थी। मित्रसेन की जीत ने उन दोनों को ही चकित कर दिया था, क्योंकि वह उनके विरुद्ध दोनों के हाथ मिला लेने के बावजूद हासिल हुई थी। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि 1989 में भाजपा व कांगे्रस दोनों से खफा अयोध्या ने पिछड़ी जाति का वामपंथी सांसद चुन लिया था, जबकि इस बार भाजपा से खफा होकर समाजवादी दलित को सांसद चुन लिया है।


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