डॉ. राजेंद्र प्रसाद शर्मा
युवाओं के लिए रोजगार के अवसर केवल एक देश की समस्या ना होकर अब वैश्विक समस्या होती जा रही है। रोजगार को लेकर अब तो यह भी बेमानी हो गया है कि आपने कहां से अध्ययन किया है। हालात यह होते जा रहे हैं कि दुनिया के श्रेष्ठतक अध्ययन केंद्रों के पासआउट युवा भी अच्छे पैकेज के रोजगार के लिए दो चार हो रहे हैं। यह कल्पना या कपोल कल्पित नहीं बल्कि वास्तविकता है कि हार्वर्ड, स्टैनफोर्ड, शिकागो, कोलंबिया, एमआईटी, पेन्सिलवेनिया, एमआईटी जैसे वैश्विक ख्यातनाम संस्थानों से एमबीए करें युवाओं को पासआउट के तीन माह बाद तक आॅफर नहीं मिलने की संख्या में तेजी से इजाफा होता जा रहा है। ब्लूमबर्ग ने अमेरिका के सात शीर्ष संस्थानों से एमबीए का अध्ययन कर निकले विद्यार्थियों के प्लेसमेंट को लेकर अध्ययन कर रिपोर्ट में तो यही खुलासा किया है। चौंकाने वाली बात यह है कि 2021 की तुलना में 2024 में यह प्रतिशत करीब करीब चार गुणा बढ़ गया है। 2021 में केवल 4 प्रतिशत पासआउट छात्र ही ऐसे थे जिन्हें पासआउट के तीन माह बाद तक आॅफर नहीं मिलता था वह संख्या 2024 तक बढ़कर 15 प्रतिशत हो गई है। अमेरिका के शीर्ष सात संस्थनों में कहीं कहीं तो छह गुणा तक की बढ़ोतरी देखी गई है। यह इसलिए भी चिंताजनक है कि जिन संस्थानों के अध्ययन का स्टेण्डर्ड निर्विवाद समूचे विश्व में श्रेष्ठतम रहा है और जिनकी वैश्विक पहचान है उनकी ही यह हालत है तो आम संस्थानों की क्या होगी? यह अकल्पनीय है। हो सकता है कि ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट अतिशयोक्तिपूर्ण हो पर हालात जिस तरह के सामने आ रहे हैं उससे यह साफ हो जाता है कि प्लेसमेंट की समस्या दिन प्रतिदिन गंभीर होती जा रही है।
सवाल केवल प्लेसमेंट तक ही सीमित नहीं हैं अपितु पैकेज में भी लगातार कमी देखी जा रही है। कुछ चंद युवाओं को अच्छा पैकेज मिल जाना इस बात का प्रमाण नहीं हो सकता कि कंपनियों द्वारा युवाओं को अच्छा पैकेज दिया जा रहा है। दरअसल कोरोना के बाद से प्लेसमेंट और पैकेज को लेकर हालात बहुत हद तक बदल गए हैं। यदि हम भारत की ही बात करें तो देश के शीर्ष प्रबध संस्थानों से पासआउट युवाओं को 2022 में औसत 29 लाख का पैकेज मिल रहा था तो वह 2024 आते आते 27 लाख पर आ गया है। यह सब तो देश दुनिया के शीर्ष अध्ययन संस्थानों से पासआउट युवाओं को लेकर है। सामान्य व मध्यस्तरीय संस्थानों से पासआउट युवाओं को मिलने वाला पैकेज तो बहुत ही कम होता जा रहा है। दूसरी और घर बार छोड़कर 90 घंटे तक काम करने को लेकर बहस चल रही है। एक और पिकोक कल्चर, हाईब्रीड सिस्टम और वर्क फ्राम होम से कार्यस्थल पर युवाओं को लाने की जद्दोजहद जारी है तो दूसरी और कम होते अवसर चिंता का विषय बनते जा रहे हैं।
सरकारें लाख प्रयास करें या विपक्षी बेरोजगारी बढ़ने के लाख आरोप प्रत्यारोप लगाये पर लगता है कि प्लेसमेंट, रोजगार और पैकेज का संकट किसी एक देश का नहीं अपितु वैश्विक समस्या बनती जा रही है। इससे युवाओं में कहीं ना कहीं निराशा भी आती जा रही है। हांलाकि हार्वर्ड, शिकागो आदि के संदर्भ शिक्षा के स्तर को लेकर प्रश्न नहीं उठाया जा सकता पर तस्वीर का दूसरा पक्ष यह भी है कि हार्वर्ड, शिकागो या इस तरह की उच्च गुणवत्ता वाली संस्थाओं में अध्ययन करने वाले कितने युवा होते हैं तो दूसरी और कितने लोगों के लिए इन संस्थाओं के अध्ययन का खर्च उठाने की क्षमता होती है। जब इस तरह की उच्च गुणवत्ता वाली संस्थाओं से अध्ययन प्राप्त कर निकले युवाओं के सामने ही प्लेसमेंट या पैकेज का संकट आ रहा है तो अन्य संस्थानों से अध्ययन प्राप्त युवाओं की स्थिति क्या होगी यह अपने आपमें सोचनीय हो जाती है।
जहां तक हमारे देश की बात की जाए तो यह साफ हो जाता है कि हमारे यहां एक तरह से अंधी दौड़ चलती है। एक समय था जब कुकुरमुत्ते की तरह प्रबंधन संस्थान खुले और आज हालात यह है कि निजी क्षेत्र में खुले इस तरह के संस्थानों को क्षमता के अनुसार विद्यार्थी ही नहीं मिल रहे हैं। लगभग यही स्थिति इंजीनियरिंग कालेजों की होती जा रही है। गली गली में फामेर्सी संस्थान खुलते जा रहे हैं। सौ टके का सवाल यह है कि अध्ययन संस्थान खोलने की अनुमति के साथ ही अध्ययन का स्तर भी बनाये रखने के लिए फेकेल्टी को लेकर भी मान्यता देते समय सरकार को गंभीर होना होगा। जब तक स्तरीय अध्ययन उपलब्ध नहीं होगा तब तक हम पास आउट तो करते रहेंगे पर प्लेसमेंट या अच्छे पैकेज की बात करना बेमानी होगा। सरकार को शिकागो, हार्वर्ड कोलंबिया, पेन्सिलवेनिया या इसी तरह की संस्थानों से पासआउट के साथ जो हालात बन रहे हैं उससे समय रहते सबक लेना होगा और अन्य संस्थानों में भी शिक्षण और शोध की गुणवत्ता सुनिश्चित करनी होगी ताकि पासआउट की लंबी फोज नहीं बन सके। युवाओं में नैराश्य भी नहीं आए और देश को योग्य युवा मिल सकें।