नेतन्याहू जो इस्राइल के प्रधानमंत्री हैं को अंतत: आला अदालत के फैसले के आगे झुकना ही पड़ा। उन्हें अपने मंत्रिमंडल के दूसरे नंबर के सदस्य आरेय देरी को हटाना ही पड़ा। दरअसल इस्राइल की आला अदालत ने पिछले दिनों नेतन्याहू सरकार के गठबंधन के प्रमुख सहयोगी ‘शास पार्टी’ के नेता आरेय देरी के कैबिनेट मंत्री बनाने के निर्णय को खारिज किया था। जो उनकी सरकार में गृहमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री जैसे दो महत्वपूर्ण पद संभाल रहे हैं और जिन्हें बाद में वित्त मंत्रालय जैसा अहम जिम्मा भी दिया जाने वाला था। सर्वोच्च न्यायालय ने 10 बनाम 1 अर्थात बहुमत के फैसले में यह कहा कि उनकी नियुक्ति ‘अत्यधिक रूप में अतार्किक’ है क्योंकि वह न केवल आपराधिक मामलों में पहले दोषी साबित किए जा चुके हैं बल्कि वर्ष 2022 में भी टैक्स फ्रॉड के किसी मामले में भी उलझे हैं। गौरतलब है कि नेतन्याहू की तरह जो खुद इन दिनों घूसखोरी, धोखाधड़ी और विश्वासघात जैसे आरोपों का सामना कर रहे हैं और अदालत में उन पर मुकदमा भी चल रहा है।
आरेय देरी हमेशा ही विवादों में रहते आए हैं। उन्हें घुसखोरी, धोखाधड़ी आदि के लिए वर्ष 1999 में तीन साल की सजा भी हुई है। बाद के दिनों में वर्ष 2021 में कर उल्लंघन से जुड़े कुछ नए मामले भी सामने आए तब उनकी तरफ से यही संकेत दिया गया कि वह अब नेसेट अर्थात इस्राइल की संसद से इस्तीफा देंगे और भविष्य में कार्रवाई से बचेंगे।
जिसे उन्होंने अंजाम नहीं दिया और दिसम्बर 2022 में नेतन्याहू की सरकार झ्र जिसे अभी तक की ‘सबसे दक्षिणपंथी सरकार’ कहा जा रहा है उसमें महत्वपूर्ण पदों को लेकर मंत्री भी बने। यह ऐसा कदम था जिसने इस्राइल की सर्वोच्च न्यायालय के बहुमत ने उन्हें पद के लिए अयोग्य माना। जिसने इस्राइल की हाल की सियासी हलचलों पर गौर किया होगा तो वह बता सकता है कि दिसंबर माह में फिर एक बार नेतन्याहू के प्रधानमंत्री बनने में कामयाब होने के बाद से ही वहां जबरदस्त उथल-पुथल जारी है।
इस बात को लेकर जबरदस्त चिंता प्रकट की जा रही है कि सत्ता पाने के लिए किस- किस किस्म के दक्षिणपंथियों से नेतन्याहू ने हाथ मिलाया है। अदालत के आदेश के बाद पद से हटने वाले आरेय देरी खुद बेहद कटटरपंथी धार्मिक यहूदी पार्टी के लीडर हैं। जो न केवल फिलिस्तिनियों के अधिकारों को अधिकाधिक सीमित किए जाने के तथा उनके इलाकों में यहूदी बस्तियों को बढ़ाते जाने के पक्षधर हैं बल्कि समलैंगिकों के अधिकारों के विरोधी रहे हैं।
इस नयी सरकार को अंधराष्ट्रवादी और कट्टर दक्षिणपंथी सरकार कहा जा रहा है। जिसमें बेहद नस्लवादी इस्राइल सिर्फ यहूदियों के लिए और अरब विरोधी मंत्री भी शामिल हैं जिनमें से कुछ सभी फिलिस्तीनी बस्तियों को इस्राइल में मिलाए जाने के पक्षधर हैं। वैसे शेष दुनिया में इस्राइल के इस अंदरूनी घटनाक्रम को लेकर चिंता की लकीरें तेज हो रही है अलबत्ता यह बात दावे के साथ कही जा सकती है कि दक्षिण एशिया के इस हिस्से में-जिसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के तौर पर हम नवाजते हैं, जहां नेतन्याहू के ‘बेस्ट फ्रेंड’ मोदी की हुकूमत है, वहां के सत्ताधारी तबकों में वहां के आगे के घटनाक्रम को बहुत उत्कंठा से देखा जा रहा है, खासकर न्यायपालिका पर बंदिशें लगाने की कोशिशों को।
वजह साफ है कि इस ‘मदर आॅल डेमोक्रेसीज’ में भी वही सिलसिला जारी है, अलबत्ता थोड़े अलग तरीके से। यहां न्यायपालिका पर कभी सीधे हमले करके और कभी अन्य तरीके से दबाव डाल कर वही कोशिशें चल रही हैं। फिलवक्त यह कहना मुश्किल है कि किस मुल्क ने किस मुल्क को प्रेरित किया?
क्या 2014 में सत्तारोहण के बाद भारत में जनतांत्रिक संस्थाओं पर, वे चाहे संसद हो या कार्यपालिका हो एक तरह से नकेल डालने की जो कोशिशें यहां तारी हैं, उससे नेतन्याहू ने प्रेरणा ग्रहण की है या नेतन्याहू के आक्रामक कदमों पर मोदी सरकार फिदा हो गई है और उसी सिलसिले को दोहराना चाहती है। वैसे मोदी के वजीरे आजम बनने के बाद से ही इस्राइल के साथ भारत के संबंध अधिक गहरे हो चले हैं।
इसी गहराते रिश्ते का प्रतिबिम्बन भारत में इस्राइली दूतावास के प्रतिनिधि द्वारा जारी उस ट्विट में मिल सकता था, ‘ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे’ जो उसकी तरफ से तीन साल पहले किया था। इस ट्विट में तत्कालीन प्रधानमंत्राी नेतन्याहू और मोदी की एक शार्ट क्लिप शेयर की गई थी और पीछे शोले का गाना चल रहा था। मौका था अंतरराष्ट्रीय मैत्री दिवस का और नेतन्याहू अपने ‘बेस्ट फ्रेंड’ मोदी को पहले ही बधाई दे चुके थे और उसी अंदाज में मोदी ने भी जवाब दिया था।
मोदी के प्रधानमंत्रित्व काल में भारत का रूझान इस्राइल की तरफ अधिक बढ़ा दिखता है और नेहरू काल से चली आ रही फिलिस्तिनियों के समर्थन की नीति लगातार हल्की होती जा रही है। यह भी देखने में आ रहा है कि राज्य चलाने के चंद नुस्खे भी भारत इस्राइल से हासिल कर रहा है
अभी पिछले ही साल ‘तुरंत न्याय’ दिलाने के नाम पर बुलडोजर का इस्तेमाल भाजपा शासित सूबों में तेजी से शुरू हुआ। जिस रणनीति पर इस्राइल की हुकूमत लंबे समय से काम करती रही है। जिसके तहत लोगों को गैरकानूनी ढंग से सामूहिक सजा दी जाती है। अगर आप किसी अभियुक्त का मकान गिराने जाएं, बिना अदालत द्वारा उसके मामले पर कोई सुनवाई किए हुए उसके साथ मकान में रहने वाले तमाम लोग भी दंड के भागी बन जाते हैं।
उत्तर प्रदेश से शुरू हुआ यह सिलसिला मध्यप्रदेश, गुजरात और बाद में असम तथा कर्नाटक में भी पहुंचा है, जहां सामाजिक एवं धार्मिक अल्पसंख्यकों के मकानों को गिराने के पीछे ‘गैरकानूनी अतिक्रमण’ का आसान तर्क परोसा जा रहा है। वैसे यह महज संयोग नहीं है कि इस्राइल और भारत एक साथ ही न्यायपालिका पर अंकुश लगाने में मुब्तिला है, नेतन्याहू बाकायदा बिल लाकर इसे करना चाहते हैं तो मोदी सरकार विभिन्न तरीकों से आजमा रही है।
केंद्र सरकार की तरफ से न्यायपालिका में अपने नुमाइंदों को वहां बिठाने के लिए ढेर सारी कसरत की जा ही है। लोकतंत्र के दो अहम खंभों विधायिका और कार्यपालिका पर उसका नियंत्रण कायम हो चुका है और लोकतंत्र का चौथा खंभा लोकप्रिय भाषा में मुख्यधारा का मीडिया गोदी मीडिया में रूपांतरित हो चुका है और बचा है तीसरा खंभा न्यायपालिका का।
एक तरफ जहां इस्राइल के नागरिक लोकतंत्र को बचाने के लिए न्यायपालिका के तीसरे खंभे की हिमायत के लिए लाखों की तादाद में सड़कों उतर रहे हैं, वहीं भारत की जनता मोदी सरकार की इन नापाक कोशिशों के बारे में खतरे को जानते हुए अभी भी इस मसले पर सड़कों पर नहीं है। यह चुप्पी कब तक बनी रहेगी, यह अहम सवाल है।