Sunday, June 8, 2025
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मुद्दों पर नहीं चेहरे पर होगा लोकसभा चुनाव


पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा पिछले दिनों श्रीनगर में खत्म हो गई। समुद्र के किनारे बसे कन्याकुमारी से कश्मीर तक की यह यात्रा विभिन्न राज्यों से गुजरी। इसमें केवल राजस्थान में ही कांग्रेस की पूर्ण सत्ता है। तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, तेलंगाना, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान, उ.प्र, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब से होती हुई वह अपने गंतव्य श्रीनगर पहुंची। यात्रा में उनके साथ विभिन्न राज्यों से चुने गए कांग्रेस कार्यकर्ता अंत तक शामिल रहे जो उल्लेखनीय है। यात्रा की समाप्ति सकुशल हुई ये राहत का विषय है क्योंकि पंजाब और जम्मू कश्मीर सुरक्षा की दृष्टि से बेहद संवेदनशील थे। कांग्रेस ने इस यात्रा को आंदोलन का नाम दिया था जिसका मकसद घृणा और धार्मिक उन्माद मिटाकर लोगों को विभाजनकारी राजनीति के विरुद्ध एकजुट करना बताया गया।

इसके साथ ही गांधी जिस क्षेत्र से गुजरते वहां की स्थानीय समस्या पर भी लोगों से बात करते हुए अपना दृष्टिकोण रखते। धीरे-धीरे उनकी टी शर्ट और बढ़ती दाढ़ी भी चर्चा में आने लगी। उत्तर भारत की सर्दी में भी वे टी शर्ट पहने रहे। खबर है अब गुजरात से असम तक भारत जोड़ो यात्रा का दूसरा चरण निकाला जाएगा। अपने इस प्रयास में गांधी की पहली सफलता तो ये कही जाएगी कि उन्होंने कांग्रेस के भीतर नेतृत्व को लेकर व्याप्त अनिश्चितता पूरी तरह खत्म करते हुए यह स्थापित कर दिया कि वे ही पार्टी के चेहरे हैं और गांधी परिवार की विरासत के एकमात्र हकदार भी। जो लोग कुछ समय से उनकी बहिन प्रियंका वाड्रा को उनसे ज्यादा सक्षम साबित कर रहे थे उनकी बोलती इस यात्रा ने बंद कर रखी है।

दूसरी बात ये कि राहुल उस आरोप से बरी हो गए कि वे चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुए राजकुमार हैं, इसलिए उनका जनता से न संपर्क है और न ही संवाद। पूरी यात्रा उन्होंने पैदल की और निर्धारित दूरी प्रतिदिन तय करते हुए अपनी प्रतिबद्धता और शारीरिक क्षमता प्रदर्शित की। लेकिन भारत जोड़ो का नाम सार्थक करने में वे कितने सफल रहे इसका आकलन आने वाले कुछ दिनों तक राजनीतिक विश्लेषकों को व्यस्त रखेगा।

ये अनुमान शुरू में लगाया जा रहा था कि गांधी इस यात्रा के जरिए समूचे विपक्ष को अपने साथ लाकर 2024 के लोकसभा चुनाव हेतु भाजपा के विरोध में मोर्चे को आकार दे सकेंगे किंतु कुछ फिल्मी हस्तियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के अलावा केवल शिवसेना के आदित्य ठाकरे और अंत में उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती के कोई बड़ा विपक्षी चेहरा उनके साथ न चला और न ही अपना समर्थन भेजा। शरद पवार, ममता बैनर्जी, के. चंद्रशेखर राव, अरविंद केजरीवाल, सुखबीर सिंह बादल, ओमप्रकाश चैटाला, नीतीश कुमार, अखिलेश यादव, मायावती, जैसे नेताओं ने यात्रा को अनदेखा कर दिया। ऐसा लगता है बीच बीच में गांधी का ये कहना उक्त नेताओं को नहीं पचा कि कांग्रेस को धुरी बनाकर ही अगले लोकसभा चुनाव में विपक्षी एकता होनी चाहिए।

राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट को यात्रा के दौरान युद्धविराम हेतु राजी किया गया किंतु ज्योंही राहुल गांधी ने राजस्थान छोड़ा दोनों में टकराव होने लगा। दरअसल यात्रा की शुरुआत में ही अपशकुन हो गया जब श्री गहलोत द्वारा गांधी परिवार की मंशा ठुकराते हुए कांग्रेस अध्यक्ष बनने से इंकार के साथ ही राजस्थान की गद्दी सचिन पायलट को सौंपने से मना करते हुए केंद्रीय पर्यवेक्षकों को बेइज्जत कर लौटा दिया। उसके बावजूद जब मुख्यमंत्री समर्थित विधायकों के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं हुई तो अजय माकन ने महामंत्री पद छोड़ दिया। और भी ऐसी घटनाएं इस दौरान हुर्इं, जब पार्टी नेतृत्व विशेष रूप से गांधी परिवार असहाय नजर आया।

संभवत: यही देखकर गैर भाजपाई विपक्ष के नेताओं ने यात्रा से दूरी बनाकर चलने का रास्ता चुना। हालांकि राहुल राष्ट्रीय नेता के रूप में अपनी जगह बनाने में काफी हद तक सफल रहे जो उन्हें दूसरे विपक्षी नेताओं से कुछ ऊपर रखने में सहायक होगी। दिग्विजय सिंह द्वारा सर्जिकल स्ट्राइक पर संदेह व्यक्त किए जाने पर बिना देर किए उनकी बात का विरोध कर देना इसका प्रमाण था। लेकिन ये भी उतना ही सही है कि ममता, अखिलेश, केसीआर जैसे क्षेत्रीय क्षत्रप उनकी रहनुमाई शायद ही स्वीकार करेंगे, क्योंकि कांग्रेस उनके राज्य में अपना हिस्सा मांगे बिना नहीं रहेगी जो उन्हें स्वीकार्य नहीं होगा। बावजूद इसके इतना कहा जा सकता है कि राहुल गांधी ने कांग्रेस में सक्रियता बढ़ा दी है। राजनीतिक पंडित मानते हैं कि हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस को मिली जीत ने भी कांग्रेस की जरूरत को स्पष्ट कर दिया है। यदि इस साल होने वाले मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और कर्नाटक के चुनावों में कांग्रेस बेहतर प्रदर्शन करती है तो राहुल गांधी की 2024 की दावेदारी को और ज्यादा मजबूती मिल जाएगी।

जिस उत्साह से पार्टीजन उनकी यात्रा से जुड़े उसकी वजह से जी 23 नामक असंतुष्ट गुट पूरी तरह नेपथ्य में धकेल दिया गया। श्रीनगर में राष्ट्रध्वज फहराकर लौटे राहुल निश्चित रूप पहले से ज्यादा आत्मविश्वास से भरे होंगे। लेकिन इसका कितना लाभ कांग्रेस को मिलेगा ये इसी वर्ष होने जा रहे विधानसभा चुनाव के नतीजों से स्पष्ट हो जाएगा। भारत में चुनाव अक्सर चेहरे पर आकर ठहर जाते हैं। लोग मुद्दों से ज्यादा चेहरे को महत्व देते हैं। 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव इस बात के बड़े प्रमाण हैं कि देश की जनता मुद्दों से ज्यादा चेहरे को अहमियत देती है। ऐसी परिस्थिति में यदि विपक्ष मोदी के सामने कोई मजबूत चेहरा पेश करने में सफल रहता है तो उसकी राह कुछ आसान हो सकती है।


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