Wednesday, January 15, 2025
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छपे हुए शब्दों की महत्ता

Ravivani 28


SHAILENDRA CHAUHANसामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर जब मेरे लेख एवं टिप्पणियां किसी समाचार पत्र में प्रकाशित होती हैं तो जिस पत्र-पत्रिका में मेरा मोबाइल नंबर दिया गया होता है तो उसके मार्फत मुझे पर्याप्त फोन काल आते हैं। अक्सर पाठक लिखे हुए शब्दों को सच मान कर उनपर विश्वास करते हैं और उस पर अपनी प्रतिक्रिया या राय जाहिर करते हैं। इससे संतोष भी मिलता है और उत्साह भी बढ़ता है। सुखद यह कि सोशल मीडिया की तरह ट्रोल होने का खतरा भी नहीं होता। यदि कहीं उन्हें किन्हीं परेशानियों का सामना करना पड़ रहा हो तो वे आपसे मार्गदर्शन की अपेक्षा भी करते हैं।

विभिन्न मुद्दों पर अपनी सहमति या असहमति जताते हैं और व्यंग्यात्मक टिप्पणियां पढ़ कर आनंदित होते हैं एवं अपनी खुशी का इजहार करते हैं। मुझे यह सुखद भी लगता है और इस बात से आश्चर्य भी होता है कि लिखे हुए शब्दों के प्रति जन साधारण में कितना विश्वास है। बावजूद इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के भारी शोर-शराबे और उछलकूद के प्रिंट मीडिया की प्रासंगिकता कायम है। यद्यपि अखबारों का स्वरूप 2014-15 के बाद बदला है और कोरोना के बाद तो सोशल मीडिया की धूम के चलते अखबारों से पाठकों का ध्यान भटका है।

अभी हाल ही में कर्नाटक विधान सभा चुनावों में लक्षित परिणाम को लेकर तथा कांग्रेस पार्टी की आश्चर्यजनक बढ़त पर जब मेरी टिप्पणी अखबारों में प्रकाशित हुई तो अनेक फोन आए। प्रथम दृष्टया तो पाठकों को यह लगा कि यह नीति, समर्पण और सहजता की जीत हुई है, जिसे उन्होंने मेरे साथ शेयर किया। लेकिन चौंकाने वाली बात यह थी कि आधिकांश पाठकों ने मुझे कांग्रेस पार्टी का सदस्य मान लिया। अब मुझे दुविधा हुई कि क्या मैंने अपनी टिप्पणी में कोई आग्रह रखा है जो मुझे कांग्रेस का सदस्य मान लिया गया।

ऐसा ही 2014 में आप पार्टी के जीतने पर लिखी टिप्पणी पढ़कर लोगों ने कुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया दी थी। आज के जमाने में भी ऐसे प्राणी/तत्व/चारण पाए जाते हैं, जो शासक वर्ग का गुणगान करने में अपनी सारी ऊर्जा लगा देते हैं। यूं तो राजे-रजवाड़ों का जमाना अब नहीं रहा और उनके बदले में भारत सहित अधिकांश बड़े-छोटे देशों में (कुछ देशों को छोड़कर) प्रजातंत्र है। पर विडंबना यह कि लोगों ने अपने मत का प्रयोग करके नेताओं को जैसे ही गद्दी सौंपी और वे राज्य के नए मालिक हो गए। वे ही राजा बन बैठे।

जनता को अपनी प्रजा और रिआया मान बैठेऔर मनमानी पर उतर आए। नित नए भ्रष्ट-आचरण व ऐशो ऐयाशी में संलग्न हो गए। अब न उन्हें जनता के हितों की ही फिक्र होती है और न ही कोई खास सरोकार। और तो और अपनी वंशवाद की बेल बढाने के लिए वे अथक प्रयत्न करते नजर आते हैं (यह किसी दल विशेष की बात नहीं है)।

मीडिया की प्राथमिकताओं में अब शिक्षा, स्वास्थ्य, गरीबी, विस्थापन जैसे मुद्दे रह ही नहीं गए हैं। उत्पादक, उत्पाद और उपभोक्ता के इस दौर में खबरों को भी उत्पाद बना दिया गया है, जो बिक सकेगा, वही खबर है। दुर्भाग्य की बात यह है कि बिकाऊ खबरें भी इतनी सड़ी हुई हैं कि उसका वास्तविक खरीददार कोई है भी या नहीं, पता करने की कोशिश नहीं की जा रही है। बिना किसी विकल्प के उन तथाकथित बिकाऊ खबरों को खरीदने (देखने, सुनने, पढ़ने) के लिए लक्ष्य समूह को मजबूर किया जा रहा है। खबरों के उत्पादकों के पास इस बात का भी तर्क है कि यदि उनकी ‘बिकाऊ’ खबरों में दम नहीं होता, तो चैनलों की टीआरपी एवं अखबारों की रीडरशिप कैसे बढ़ती?

तकनीकी विस्तार के साथ-साथ मीडिया की पहुंच बहुत व्यापक हुई है। पर मीडिया के इस विस्तार के साथ चिंतनीय पहलू यह जुड़ा हुआ है कि यह सामाजिक सरोकारों से बहुत ही दूर हो गया है। मीडिया के इस बदले रुख से उन पत्रकारों की चिंता बढ़ती जा रही है, जो यह मानते हैं कि मीडिया का कार्य समाज को जागरूक करना, शिक्षित करना और सामाजिक सरोकारों के प्रति संवेदनशील बनाना है। दूसरी ओर उन पत्रकारों की भी कमी नहीं है, जो बाजारीकरण के दौर में मीडिया को व्यवसाय के रूप में देख रहे हैं।

तो क्या यह मान लिया जाए कि मीडिया का यह बदला हुआ स्वरूप ही लोगों को स्वीकार है। ऐसा मान लेने से मीडिया की परिभाषित भूमिका को हम नकार देंगे, और वंचितों एवं उपेक्षितों की आवाज बनने का दावा करने वाले, सच का आईना का दावा करने वाले और विकास और सामाजिक सरोकार के प्रतिबद्ध रहने वाले मीडिया को हम खो देंगे।

इसलिए आज ऐसे ही पत्रकारों की महती जरूरत है जो जनपक्षधर, निडर और निर्भीक हों। जन विश्वास मीडिया से अपेक्षा करता है कि उसकी भूमिका मूल्य आधारित विकास एवं सामाजिक मुद्दों के साथ-साथ जनता के दु:ख, तकलीफों और उसकी समस्यायों के प्रति सहानुभूतिपरक हो, संघर्षशील हो, यथार्थ हो ताकि उसकी विश्वसनीयता कायम रह सके। इस बाबत प्रिंट मीडिया से अपेक्षा अधिक है।


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