Wednesday, January 22, 2025
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साधारण में असाधारणता की खोज हैं ये कहानियां!

RAVIWANI


Sudhanshu Gupta 1 2पिछले कुछ वर्षों में आए कहानी-संग्रहों में ‘इच्छाएं’ कहानी संग्रह अलग और अकेला अच्छा है और मैं इसे ऊंचाई पर देखना चाहूंगा कि जब भी मैं इस संग्रह को पढ़ूं तो मेरा सिर भी ऊंचा रहे। दूसरों के साथ इसकी तुलना करना मुझे ठीक नहीं लगता। यह दूसरों को छोटा कर, बड़े होने जैसा न लगे, लेकिन इसे मैंने दूसरों से अलग कर अकेला रखा है। रचना-यात्रा के लिए आज भी हड़बड़ी में सामान बांधते समय मैं ‘इच्छाएं’ साथ में जरूर रखूंगा, भले दो रोटी का टिफिन भूल जाऊं। -विनोद कुमार शुक्ल

ये कहानियां हमारे जीवन के बेहद मामूली अनुभवों के बीच से असाधारणता का विरल तत्व खोजने का जो साहस दिखाती हैं, वह हिंदी के संदर्भ में बेहद औचक और नया है। समूचे सामाजिक एवं बौद्धिक जीवन में जो ठहराव धीरे-धीरे घर कर रहा है, उसकी तह तक पहुंचने, उसे तोड़ने और उसका सर्जनात्मक विकल्प तैयार करने का महत्वपूर्ण काम ये कहानियां सहजता और बेहद सादगी के साथ करती हैं। यही इन विलक्षण कहानियों की सबसे बड़ी सफलता भी है। -जितेन्द्र भाटिया

उपरोक्त दो टिप्पणियां थीं, जो मुझे कुमार अंबुज के कहानी संग्रह ‘इच्छाएं’ (राधाकृष्ण प्रकाशन) तक ले गईं। कुमार अंबुज मूल रूप से कवि हैं। उनकी कविताएं पढ़ी जाती हैं, पसंद की जाती हैं। कवि के लिए कहानी की दुनिया में प्रवेश करना बहुत सहज भी होता है। या वह दोनों दुनियाओं में आवाजाही कर सकता है।

हालांकि कुमार अंबुज का कहना है कि वह कहानी की मौजूदा स्थितियों से ऊब गए थे। उस समय लिखी जा रही कहानियों में उन्हें कृत्रिमता, नाटकीयता और स्थूलता दिखाई दे रही थी। लिहाजा लगभग डेढ़ दो दशक पहले उन्होंने कहानी की दुनिया में प्रवेश किया।

उनका पहला  संग्रह ‘इच्छाएं’ ही है, जिसका पहला संस्करण 2008 में आया। जाहिर है, कहानियां उससे कई वर्ष पहले लिखी जा रही होंगी। 15 कहानियों के इस संग्रह में अधिकांश कहानियां जीवन के बेहद साधारण अनुभवों पर आधारित हैं। लेकिन ये एक स्तरीय कहानियां नहीं हैं। कहानियों में जो कहा जा रहा है, उसी के बरक्स जो अनकहा है, वह अधिक महत्वपूर्ण है। कुमार अंबुज कहानियों में निजी अनुभवों को समाज से जोड़ते हैं।

‘हकला’ कहानी बाहरी स्तर पर एक हकले व्यक्ति की कहानी लगती है। लेकिन अंबुज इस कहानी  में समाज के उन लोगों की हकलाहट भी दिखाते हैं, जो सच बोलने में या सत्ता पक्ष का विरोध करने में हकलाने लगते हैं। इतनी सहजता से यह बात किसी अन्य कहानी में दिखाई नहीं पड़ती।

‘अप्रत्याशित रोग की कथा’ में अंबुज ‘अप्रत्याशित’ को भी सामान्य मानने की समाज की मौजूदा बीमारी पर उंगली रखते हैं। कहानी के अंत में वह व्यक्ति, जो अप्रत्याशित चीजों को सही नजर से देख पा रहा है, चिकित्सक के पास जाने को तैयार हो जाता है।

क्या आज के समय में यह नहीं हो रहा है, बाकायदा यही हो रहा है। ‘मैं तुम्हारा कोई काम नहीं करना चाहता’ एक ऐसी कहानी है, जिसमें आपको कोई ऐसा काम नहीं करने दिया जाता, जो आप करना चाहते हैं या जो कलात्मक हो। जब समाज हर काम को पैसे से तौलने लगता है, तब इस तरह की कहानियां आकार लेती हैं।

एक दिन मन्ना डे, बस, एक कौआ, उस सुबह मैं कुछ होना चाहता था, पीतल का आदमी बहुत सहज और सरल कहानियां हैं। जिनमें मनुष्य की इच्छाएं, उसके डर, उसके स्वप्न और उसकी फैंटेसी तक दिखाई पड़ती हैं। एक में नायक मन्ना डे को लाइव सुनने जाता और मन्ना डे से जुड़ी चिंताएं उसके सामने आती हैं, दूसरी में नायक कौए की खोज में निकलता है।

एक कहानी में नायक कुछ होना चाहता है- टहनी, चिड़िया, हथेली, चिकना तना या स्वस्थ साइकिल। यह कहानी मनुष्य की उस ऊब को चित्रित करती है, जब वह मनुष्य के अलावा सब कुछ होना चाहता है। पीतल का आदमी कहानी एक व्यक्ति के पीतल के प्रति मोह को दिखाती है।

साथ ही इस कहानी में यह भी देखा जा सकता है कि बाजार ने किस तरह पीतल को हाशिये पर पहुंचा दिया है।  ‘मां रसोई में रहती है’ एक स्त्री की कहानी है, जिसका अस्तित्व रसोई तक सीमित हो गया है। रसोई से बाहर उसका कोई अस्तित्व नहीं है।

वास्तव में भारतीय समाज में मध्यवर्गीय महिलाओं का जीवन रसोई का ही पर्याय  बन जाता है। रसोई ही उसकी पहचान हो जाता है। इससे बाहर आने के लिए वह कोई संघर्ष भी करती दिखाई नहीं देती। कुमार अंबुज अपने समय, समाज और राजनीति पर पूरी नजर रखते हैं। बाजार भी उनसे अछूता नहीं है।

पिछले कुछ वर्षों से समाज में  फैल रही सांप्रदायिकता को भी वह देख और महसूस कर रहे हैं। यह सांप्रदायिकता किस तरह परिवारों में भी मतभेद का कारण  बन रही है, इसे  ‘मुश्किल’ कहानी में सरलता से दिखाया गया है। घर में बुजुर्ग पहले धार्मिक तस्वीरें लगाने लगता है।

उसकी धार्मिक रुचियां बढ़ने लगती हैं। बेटा, पिता को उनके 70वें जन्मदिन पर 500 रुपए यह कहकर देता है कि इससे अपनी पसंद का स्वेटर ले लेना। लेकिन शाम को पता चलता है कि पिता उन पैसों की दो खाकी निकर ले आए हैं। यह आज के समय का कड़वा यथार्थ है।

कमोबेश हर घर में कोई न कोई शख्स ऐसा जरूर मिल जाएगा, जो निकरधारी हो गया है या हो जाना चाहता है। समाज में पैदा हो रहे नये किस्म के डर और आशंकाएं कुमार अंबुज की कहानियों में अनायास आ जाती हैं। ‘आर्ट गैलरी’ कहानी बड़े सहज रूप में शुरू होती है।

नायक कला भवन  के बगल से गुजर रहा होता है कि अचानक तेज बारिश आ जाती है। नायक चित्र देखने के लिए गैलरी के भीतर चला जाता है। संयोग से चित्रकार भी वहीं होता है। नायक चित्रकार के साथ मिलकर उसके बनाए सभी चित्र देखता और समझता है।

शुरू में यह लगता है कि आर्ट गैलरी देखने के बहाने लेखक यह बता रहा है कि चित्रों को कैसे देखा और समझा जाना चाहिए। लेकिन पाठक को धीरे-धीरे अहसास होता है कि वास्तव में यह आर्ट गैलरी मौजूदा समय को चित्रित कर रही है। अंत में चित्रकार कहता है, मैं अब  ‘नरसंहार’ शीर्षक से कुछ चित्र पेंट कर रहा हूं। नायक कहता है, कला प्रदर्शनी के लिए यह कुछ अटपटा शीर्षक नहीं है?

चित्रकार का जवाब है, मुझे तो लग रहा है कि यह पूरा समय ही अटपटा है। हम सबको मारा जा रहा है। हर उस आदमी को जो अपनी बात कह रहा है और अकेला है। या चुप है और मुश्किल में है।  ‘बारिश’ कहानी एक कविता-सी जान पड़ती है। नायक अपनी पत्नी को बारिश के रूप में देखता है। इसी संग्रह की एक लंबी कहानी है  ‘संसार के आश्चर्य’।

कहानी में बूढ़ा नायक संसार के तीन आश्चर्यों की यात्रा के लिए निकलता है। ये तीन स्थान हैं-पानी पर शहर, परियों का बगीचा और समय की भूल भुलैया। यह पूरी कहानी फैंटेसी में है, या स्वप्न की दुनिया में। कहते हैं कि फैंटेसी भी चौपाये पर खड़ी होती है और सपनों की दुनिया भी अतार्किक नहीं होती।

इस कहानी में कुमार अंबुज ने वर्तमान दुनिया के ही तीन चेहरे इस कहानी में दिखाए हैं। लेकिन यह कहानी अपनी रिद्म नहीं पकड़ पाती। अन्यथा पूरा संग्रह साधाराण में असाधारण की खोज करता दिखाई देता है। इस बहु स्तरीय संग्रह को पढ़ना अपने समय को पढ़ना है।


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