Monday, December 16, 2024
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स्मृति शेष : जावेद का यूं चले जान

Ravivani 29

जाहिद खान

जावेद अनीस ने इस बे—रहम दुनिया को अलविदा कह दिया है। यह लिखते हुए मुझे अब भी यकीन नहीं हो रहा कि मेरे जैसे कई साथियों का प्यारा—दुलारा दोस्त जावेद, अब हमारे बीच नहीं है। वह हर—दिल—अजीज और उसकी शख्सियत दिल—आवेज थी। वह बहुत कम—गो और अपने ही खयालात में गुम रहनेवाला शख़्स था। बेहद संवेदनशील। धीर—गंभीर। मुस्कान उसके होठों पर आहिस्ता से आती थी, और आते ही वहीं ठिठक जाती। वहीं कोई बात पसंद आ जाए, तो जोर से ठहाका लगाकर हँसना, उसकी फितरत में था। मुझे नहीं मालूम जावेद अनीस ने कभी किसी का दिल दुखाया होगा, किसी से कोई कड़वी बात की होगी या फिर किसी से उसकी दुश्मनी ! ना बाबा ना ! जावेद अनीस की यह फितरत ही न थी। भोपाल और इसके अलावा कई जगह हमारी मुलाकात हुई, वह हमेशा मुहब्बत और खुलूस से पेश आता था। एक—दूसरे के हाल—चाल जानने के बाद, अक्सर हमारी बात लेखन से ही शुरू होती। जिन लोगों ने जावेद अनीस का लेखन देखा—पढ़ा है, वे जानते हैं कि जावेद बहुत अच्छा लेखक था। हर मुद्दे पर उसकी बेहतर समझ थी। चीजों का विश्लेषण वह बेहतर तरीके से करता था। देश—दुनिया की राजनीतिक, सामाजिक खबरों पर उसकी हर दम नजर रहती। यथासंभव वह इन पर अपनी कलम भी चलाता। लेकिन उसके लेखन में निरंतरता नहीं थी। मिलने पर मैं इसकी शिकायत भी करता। पर वह अपनी ही चाल से चलने में पूरी तरह खुश और मुतमइन दिखाई देता।

पिछले चार—पांच साल से जावेद अनीस से मेरा इसरार था कि वह अब अपनी किताब भी लेकर आए। खास तौर पर मदरसों पर वह जो पीएचडी कर रहा था, मेरी दिली तमन्ना थी कि यह थीसिस किताब के तौर पर पाठकों तक पहुंचे। लेकिन जावेद अनीस लेखन में मुझे कभी ज्यादा महत्वाकांक्षी नहीं दिखाई दिया। लेखन उसके लिए समाज में अपना एक हस्तक्षेप था। सामाजिक सरोकार था। जो विषय उसके मन को आंदोलित करता, वह उसी पर अपनी कलम चलाता। खास तौर पर समाज में बढ़ती हुई साम्प्रदायिकता, असहिष्णुता और मजहबी कट्टरपन उसे परेशान करता। अपने लेखन में वह इन पर लगातार कड़ा प्रहार करता। जैसा कि आप जानते हैं, जावेद अनीस एक एनजीओ से वाबस्ता था। महिलाओं और बच्चों के अधिकार, उनकी शिक्षा आदि भी उसकी चिंताओं में रहता। जावेद की फेसबुक वॉल पर जाएं, तो आपको उसके ऐसे कई लेख दिखाई देंगे, जो उसकी सोच की नुमाइंदगी करते हैं। इन लेखों में वह बड़े ही सहजता से अपनी बात पाठकों के सामने रखता था। जावेद अनीस और मैं कई बार तमाम पत्र—पत्रिकाओं में एक साथ छपे। पर हमारे विषय बहुत कम आपस में टकराते थे। दोनों के ही लेख अलग—अलग मिजाज के होते। अखबारों एवं प्रतिष्ठित वेबसाइट मसलन ‘द वायर’, ‘न्यूज क्लिक’, ‘जनपथ’, ‘आई चौक’, ‘सत्य हिंदी’, ‘सब लोग’, ‘मीडिया विजिल’ के अलावा ‘समयांतर’, ‘समकालीन जनमत’ और ‘फिलहाल’ जैसी वामपंथी विचारधारा की पत्रिकाओं में भी जावेद अनीस मुसलसल लिखता रहा। शायद ही ऐसा हुआ हो कि संपादकों ने उसके आर्टिकल रिजेक्ट किए हों। क्योंकि उसका लेखन बड़ा ही सधा हुआ और भाषा जीवंत थी। वहीं उनमें वैचारिक स्पष्टता भी साफ दिखाई देती थी। कहीं कोई वैचारिक भटकाव नहीं। एक अच्छे लेखन की खुसूसियत भी यही है। यही वजह है कि सभी पत्र—पत्रिकाओं में वह अहमियत के साथ छपता था। तमाम एडिटर और एडिटोरियल पेज के प्रभारी उसे जानते—पहचानते थे।

लेखन के अलावा जावेद अनीस के मिजाज को जितना मैं आॅब्जर्व कर पाया, उसे अच्छा सिनेमा और घूमना पसंद था। जब भी कोई वैचारिक फिल्म आती, वह न सिर्फ उसे देखता, बल्कि इस पर अपने विचार भी साझा करता। फिल्म पर समीक्षा लेख लिखता। वैचारिक गोष्ठियॉं, सेमिनार और कॉन्क्लेव में जावेद अनीस हमेशा हिस्सा लेता।

‘भारतीय ज्ञान विज्ञान समिति’ यानी बीजीवीएस और ‘विकास संवाद’ के आयोजनों में उसकी अनिवार्य भागीदारी होती थी। जाहिर है कि इन्हीं मौकों पर मेरी उससे मुलाकात हुई। प्रगतिशील, जनवादी, धर्मनिरपेक्ष और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से जावेद अनीस ने कभी किनारा नहीं किया। जावेद अनीस सिर्फ लेखक ही नहीं, बल्कि एक एक्टिविस्ट भी था। दुनिया भर में इंसानियत के खिलाफ जब भी कोई हमला होता, इन प्रवृतियों के विरोध में भोपाल में जो विरोध—प्रदर्शन होते, वह उनमें पेश—पेश रहता। जावेद के साथ अक्सर उनकी जीवनसंगिनी उपासना जी भी होतीं। मुझे हमेशा यह दोनों खुश नजर दिखाई दिए। भोपाल और भोपाल से बाहर तमाम प्रोग्राम ये एक साथ अटेंड करते थे। जावेद की जिÞंदगी में यकायक ऐसा क्या घटा कि उसने एक आत्मघाती कदम उठाया? उसने खुद—कुशी कर ली। जाहिर है कि यह एक ऐसा सवाल है, जो उसके चाहनेवालों को हमेशा परेशान करता रहेगा।

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