वीरेंद्र कुमार पैन्यूली
बीस जनवरी 2025 को होने वाली अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ताजपोशी राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक उथल-पुथल के अलावा पर्यावरण को भी भारी संकट में डाल सकती है। ट्रंप ने पर्यावरण संरक्षण के प्रति अपनी अरुचि पिले कार्यकाल में ही उजागर कर दी थी। नए कार्यकाल में वे पर्यावरण के खिलाफ कौन से कारनामे करने वाले हैं? इनके क्या और कैसे असर होंगे?
दिसम्बर 2015 में पेरिस जलवायु समझौता ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन कम करने और जलवायु परिवर्तन के कुप्रभावों को घटाने के लिए दुनिया के 196 देशों के बीच हुआ था। इसका उददेश्य 2030 तक पृथ्वी के तापक्रम को 2 डिग्री सेंटीग्रेड कम करने का है। बजाए बाध्यकारी वैधानिकता के, इस समझौते के अनुपालन की अपेक्षायें नैतिकता आधारित हैं। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इसी समझौते के संदर्भ में अपने पहले कार्यकाल में 4 अगस्त 2017 को संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएनओ) को यह आधिकारिक सूचना दी थी कि उन्होंने अमेरिका को पेरिस जलवायु समझौते से मुक्त कर लिया है। इसके पहले उन्होंने एक जून 2017 को सार्वजनिक बयान भी दिया था कि अमेरिकी नौकरियों तथा उसके खनिज, तेल, कोयला उद्योगों के खरबों डालर के नुकसान से बचने के लिए वे अमेरिका को पेरिस जलवायु समझौते से बाहर निकालने का निर्णय कर रहे हैं।
बदली परिस्थितियों में अमेरिका आज इतना अलग-थलग पड गया है कि जुलाई में जी-20 सम्मेलन में राष्ट्रपति ट्रंप के हैम्बर्ग पहुंचने पर राजनैतिक विश्लेषकों ने आयोजन को 19 बनाम एक कह दिया था। यूएनओ के कार्यकारी निदेशक एरिक सोलेहेम का मानना था कि वाशिंगटन अपने को पेरिस जलवायु समझौते से बाहर खींच रहा है, अमेरिका नहीं। अमेरिका में ही कई राज्य, शहरी निकाय, बड़ी-बड़ी कम्पनियां व बहुसंख्यक नागरिक अपने पावों पर कुल्हाड़ी मारने को तैयार नहीं हैं। उनका कहना है कि वे कार्बन उत्सर्जन को कम-से-कम करने की अपनी-अपनी तय रणनीतियों पर चलते रहेंगे। यही नहीं, वे उन तकनीकों को भी विकसित करते रहेंगे जिनसे विभिन्न क्षेत्रों में ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन कम किया जा सके।
आज विश्व बिरादरी की सहमति इसी पर बनती लग रही है कि अमेरिका को धिक्कारने तथा उसके कदम पर हताशा व्यक्त करने से बेहतर है कि उसके सापेक्ष बड़ी-बड़ी लकीरें खींची जायें। पूर्ववर्ती राष्ट्रपति ओबोमा ने राष्ट्रपति ट्रंप के इस आत्मघाती कदम के संदर्भ में कहा है कि अमेरिका साथ रहे, न रहे अन्य देश पेरिस समझौते पर आगे बढ़ते रहेंगे। जनवरी 2025 (ट्रंप की ताजपोश) के बाद भी यही होने वाला है।
अमेरिका नेतृत्वकारी भूमिका से चूकेगा तो यूरोपीय संघ और चीन पेरिस समझौते के अगले नेता होंगे। यह समय की जरूरत भी है। कारण इनका सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) है। चीन बड़ी लकीर खींचने में लगा है। वह विश्व का दूसरे नम्बर का कार्बन उत्सर्जक है। साथ ही उसकी दूसरे नम्बर की जीडीपी कुल विश्व की 23 प्रतिशत है। भारत से तीन गुणा से भी ज्यादा। आज वह अपने कोयले आधारित संयंत्रों को बंद करने में नहीं हिचकिचा रहा। वैकल्पिक ऊर्जा टैक्नॉलॉजी में अग्रणी शोध कर रहा है। सौर-ऊर्जा तकनीकों के विकास में वह अग्रणी है।
बड़ी लकीर खींचने की जिम्मेदारी भारत पर भी है। ट्रंप का कहना था कि पेरिस समझौता भारत, चीन, ब्राजील पर विशेष नरम है व अरबों-खरबों डालर पाने के लालच में भारत ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं। भारत पर आरोप लगाते हुए राष्ट्रपति ट्रंप यह भूल रहे थे कि विश्व में पर्यावरण चेतना पैदा करने में प्रधानमंत्री स्व. इन्दिरा गांधी का महत्वपूर्ण योगदान था। उन्होंने लगातार वैश्विक पर्यावरण के मुददे को इतना जीवित रखा कि वह अन्तरराष्ट्रीय राजनैतिक विमर्शों का हिस्सा बनता गया।
1972 में मानवीय पर्यावरण पर यूएनओ द्वारा प्रायोजित पहले सम्मेलन में स्टॉकहोम में इंदिरा जी के भाषण ने ही भविष्य के जलवायु बदलाव की चिंता और कार्यवाहियों पर बहस, समर्थन या विरोध के लिए नींव तैयार की थी। इस सम्मेलन में मेजबान देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री ओलिफ पाल्मे के अलावा वे वहां उपस्थित किसी भी सरकार की अकेली मुखिया थीं। इस सम्मेलन में पहली बार विश्व नेताओं ने पृथ्वी के भविष्य और पर्यावरणीय सुरक्षा पर झ्र केवल एक पृथ्वी ही है – का उद्घोष कर प्रदूषण पर गंभीर चिन्ता जताई थी।
राष्ट्रपति ट्रंप अवश्य ही जीवाश्म र्इंधनों, मुख्यत: कोयले के उपयोग को प्रोत्साहित करने की अपनी नीति पर कायम रहेंगे। हालांकि विश्व को पहले की ही तरह वे यह भरोसा भी दिलायेंगे कि वे उसे साफ कर ऐसे उपयोग करेंगे, ताकि कार्बन उत्सर्जन कम-से-कम हो। जीवाश्म ईंधन का भी उपयोग यदि परिष्कृत कर हो रहा हो साथ ही अच्ी दक्षता वाले वाहनों मशीनों, पम्पों, आदि भी काम में लाये जा रहे हों, तो वह भी कार्बन उत्सर्जन की मात्रा अपेक्षकृत कम कर देगा।
पाश्चात्य देशों पर भारत की निर्भरता और खीज का एक कारण शायद यह भी है कि हमारी तरह कई विकासशील देशों ने विकास के वही मॉडल अपनाये हैं जो अमेरिका जैसे देशों के थे। इन मॉडलों के पर्यावरणीय कुप्रभावों से निपटने के लिए हल भी उन्हीं देशों की टैक्नॉलॉजी में देखने की बाध्यता हमने मान ली है, जबकि तथ्य यह है कि पाश्चात्य देश भी परोक्ष रूप से यह स्वीकार रहे हैं कि उनके विकास के तरीकों से पर्यावरण व जलवायु का संकट बढ़ा है। यदि ऐसा न होता तो वे क्यों कहते कि भारत, चीन, ब्राजील जैसी तेजी से बढ़ने वाली अर्थ व्यवस्थाओं के कारण पर्यावरण व जलवायु संकट और गहरा सकते हैं।
हमने अपने देश में भी मानसिकता यही अपना ली है कि विकास के लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन आवश्यक है। वह दोहन भी इस सीमा तक कि प्रकृति उसकी भरपाई ही न कर सके। जंगलों, जैव-विविधता का दोहन इस कदर कि पेड़ों का पुन: उगना, जंगलों में वृक्षाचदन का घनत्व और गुणवत्ता बनाये रखना तथा जैव-विविधता को समूल नष्ट होने से बचाये रखना निरंतर कठिन होता जा रहा है। खेदजनक है कि अपने प्रयासों से जो जंगल हमने बढ़ाये, उनमें भी पर्यावरणीय योगदान से ज्यादा व्यवसायिक लाभ का उददेश्य था। उत्तराखंड में तो चीड़ अभिशाप बन गया है। खेती में रसायनों व अत्यधिक जल का प्रयोग भी जलवायु संकट के अभिशापों को नजदीक लाया है।
भूजल का अब हम उपयोग ही नहीं कर रहे, वैज्ञानिकों की भाषा में खनन या माइनिंग कर रहे हैं। हिमनदियों के पास तक मानवीय गतिविधियां बढ़ाकर हम इन पर संकट ले आये हैं। इन सब से जलवायु संकट बढ़ेगा ही। आज बंजर क्षेत्र व मरूस्थल बढ़ रहे हैं, जबकि जंगल बढ़ाने की आवश्यकता है। पेरिस समझौते के अन्तर्गत भारत ने कहा था कि वह अपना वनाचदन इतना बढ़ायेगा कि 2.5 से 3 अरब टन के बराबर अतिरिक्त कार्बन डाई-आॅक्साइड सोख सके।
निस्संदेह भारत व अन्य देश अमेरिका के बिना भी पेरिस समझौते पर आगे बढ़ेंगे, किन्तु अमेरिकी राष्ट्रपति को यह तो एहसास कराया ही जाना चाहिए कि पृथ्वी के वायुमण्डल, सागरों तथा उसके समग्र स्वास्थ्य से विश्वजन का साझा भविष्य जुड़ा है। कतिपई देशों, व्दीपों व तटों का महासागरों में समाने का खतरा यथार्थ है। ऐसी चिन्ताओं के बीच अमेरिका को विश्व का सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जक बने रहकर अन्य देशों में जलवायु उथल-पुथल दंश बढ़ाने का हक नहीं है।
पेरिस समझौते से अमेरिका के बाहर निकलने का अर्थ केवल यही नहीं होगा कि अन्य देशों को पृथ्वी का तापमान कम करने के लिए जो धन उपलब्ध होना था, वह अब नहीं होगा, बल्कि यह एक ऐसे देश का पेरिस सझौते से बाहर हो जाना भी है, जिसकी जीडीपी विश्व की जीडीपी में 24 प्रतिशत है, जो विश्व में सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करता है। ट्रंप ने बहस ही पलटने का उपक्रम किया है। जो मुददा 1970 के दशक में पर्यावरण और गरीबी से शुरू हुआ था उसे पर्यावरण और अमीरी का बना दिया है। अमेरिका फर्स्ट को महत्ता दी है, किन्तु अर्थ फर्स्ट को महत्ता नहीं दी है।