Monday, July 1, 2024
- Advertisement -
Homeसंवादसप्तरंगदूसरे का पेट

दूसरे का पेट

- Advertisement -

 

Amritvani 1


यज्ञशिष्टाशिन: संतो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषै:।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात।।
हे अर्जुन! वह संत सब पापों से मुक्त हो जाते हैं, जो यज्ञ से बचा अन्न खाते हैं, लेकिन जो केवल अपने लिए ही पकाते हैं, वह पाप खाते हैं। जब किसी इंसान में बिना स्वार्थ के सबकी भलाई की भावना होती है, तब वह दूसरों के लिए सबसे पहले सोचता है। हालांकि ऐसा कम ही होता है, क्योंकि मन में तो हमेशा यही रहता है कि पहले मेरा काम होना चाहिए। खाना खाने के वक्त सोचते हैं कि पहले ही खा लेते हैं, पता नहीं बाद में मिले न मिले। वे यह नहीं सोचते कि पहले उन्हें खिलाया जाए, जिन्होंने शायद कई वक्त से कुछ नहीं खाया है। कहने का मतलब पहले अपना पेट भर लो, भले दूसरे के लिए बचे या न बचे। अक्सर देखने में आता है कि जब शादी या किसी पार्टी में जाते हैं, कई लोग इतना कुछ अपनी प्लेट में रख लेते हैं, जो उनसे तो दो आदमियों से भी न खाया जाए। उनको शंका रहती है कि पता नहीं कि खाना बाद में बचे या नहीं। अक्सर वह सब्जी तो बहुत ज्यादा प्लेट में डाल लेते हैं, जों स्वादिष्ट या महंगी होती है। धीरे-धीरे इस तरह की आदत बन जाती है इंसान की और फिर ये स्वार्थ की भावना मन में हमेशा दोष पैदा करती है। भगवान कह रहे हैं कि यदि तुम केवल अपने लिए पकाते हो और सोचते हो कि मेरा ही पेट भरना चाहिए तो यह गलत है। ऐसे में खाया गया भोजन पाप का हिस्सा बनता है। जब सबका पेट पहले भरे, बाद में मुझे मिले की भावना होती है, तब मन और आत्मा की सफाई की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। अब मैं और मेरा कम होकर, तू ही तू पक्का होने लगता है।


janwani address 8

What’s your Reaction?
+1
1
+1
5
+1
0
+1
0
+1
0
+1
0
+1
0
- Advertisement -

Recent Comments