Thursday, January 9, 2025
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सामयिक: बेचैन क्यों हैं किसान !

कृष्ण प्रताप सिंह
कृष्ण प्रताप सिंह
देश कोई भी हो, उसके भविष्य निर्माण में सबसे बड़ी भूमिका उसके किसान, मजदूर, छात्र और नौजवान ही निभाते हैं। खासकर किसान, चांद और मंगल पर पहुंच जाने के बावजूद दुनिया जिनके द्वारा उत्पादित अन्न का कोई विकल्प नहीं तलाश पाई है। लोगों के पेट की आग अभी भी अन्न से ही बुझती है और अन्न उनके खेतों में ही पैदा होता है, कारखानों में नहीं। अपने देश की बात करें तो इसमें किसानों का, उनकी बड़ी संख्या के कारण, सरकारें चुनने में भी कुछ कम योगदान नहीं है। इसलिए जो भी सरकार सत्ता में आती है, ‘उनकी’ होने का दावा करती ही करती है। भले ही ट्रैक बदलकर अर्थव्यवस्था की तेज रफ्तार के लिए खुद को उद्योगपतियों के भारी भरकम निवेशों की मोहताज बनाए रखती हो, जानती है कि संकट के वक्त उसकी गिरावट को थामने का दायित्व भी किसान ही निभाते हैं।
पाठकों को याद होगा, 2014 में सब कुछ बदल डालने और सारी दुर्दशाएं खत्म कर अच्छे दिन लाने का वायदा करती हुई नरेंद्र मोदी सरकार आई तो किसानों की उम्मीदें भी कुछ कम हरी नहीं हुई थीं। उनका मानना था कि उन्हें ‘अच्छे दिनों’ में बड़ा हिस्सा नहीं भी मिला तो भूमंडलीकरण की अनर्थकारी अर्थनीति द्वारा बरबस थोप दिए गए अन्यायों से तो निजात मिल ही जाएगी। उन्हें क्या मालूम था कि जल्दी ही यह सरकार भी पूर्ववर्तियों की तरह दिखावे की हमदर्दी की राह पकड़ लेगी-खाने के दांत भूमंडलीकरण की पैरोकार बड़ी पूंजी को दे देगी और बाकियों को दिखाने के दांतों का सब्जबाग छोड़ कुछ नहीं पाने देगी। 2019 में दोबारा चुनकर आएगी तो भी सबका विश्वास जीतने की ईमानदार कोशिशों के बजाय फांसे रखने की शातिर चालाकियों से काम लेगी।
2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के वायदे को लेकर तो इस सवाल का जवाब भी नहीं देगी कि किस वित्तवर्ष को उसका आधार मानेगी? एमएस स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुसार फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्यों को लागत का डेढ़ गुना करने का वचन निभाने को लेकर पहले सर्वोच्च न्यायालय में कह देगी कि लागत के 50 फीसदी से ज्यादा दे ही नहीं सकती, फिर उत्पादन लागत की गणना में वस्तुनिष्ठ होना तक गवारा नहीं करेगी और आगे चलकर न्यूनतम समर्थन मूल्य के खात्मे पर ही तुल जाएगी-प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षा के नाम पर शुरू की गई फसल बीमा योजना को किसानों से ज्यादा बीमा कम्पनियों के पक्ष में कर देगी और कर्जमाफी को कर्जे जैसा ही जी का जंजाल बना डालेगी।
हालांकि इस सरकार ने 2017 के अप्रैल महीने में ही संकेत दे दिए थे कि कुछ भावनात्मक फंसंतों को छोड़कर उसके पास किसानों को देने के लिए कुछ भी नहीं है। तब, जब महीने भर से राजधानी दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना दे रहे तमिलनाडु के किसानों का धैर्य इस कदर टूट गया था कि उन्होंने साउथ ब्लॉक स्थित प्रधानमंत्री कार्यालय के बाहर निर्वस्त्र होकर प्रदर्शन किया, लेकिन प्रधानमंत्री ने कोई शर्म नहीं महसूस की थी। तब भी नहीं, जब किसानों ने भयंकर सूखे व कर्ज के बोझ से जिंदगी हार जाने वाले अपने परिजनों की खोपड़ियां हाथों में लेकर, सिर मुंडवाकर और साड़ियां पहनकर प्रदर्शन किया और स्वमूत्रपान की कोशिश भी की। बाद में महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश व दूसरे कई राज्यों में अनसुनी से आजिज किसान अपनी उपजों के वाजिब दाम और कर्जमाफी वगैरह की मांगों को लेकर सड़कों पर उतरे तो भी सरकार उनसे अपनों की तरह नहीं ही पेश आई।
इन सुधारों के तहत अब अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज और आलू वगैरह न ‘आवश्यक वस्तुएं’ हैं और न ही इनकी जमाखोरी या कालाबाजारी कानूनन अपराध है। सरकार बता रही है कि किसानों की इन उपजों को उनके भले के लिए ही ‘मुक्त’ बाजार के हवाले किया गया है, लेकिन यह नहीं बता रही कि अब इनकी खरीद-बिक्री में बड़ी रिटेल कंपनियां प्रमुख खिलाड़ी होंगी, जो किसानों से अपनी शर्तों पर इन्हें खरीदेंगी और बेचेंगी। पता नहीं इस सरकार को ‘एक देश, एक….’ की तुकबंदी से कितना लगाव है कि कभी वह ‘एक देश, एक चुनाव’ की बात करती है, कभी ‘एक देश, एक राशनकार्ड’ की, कभी ‘एक देश, एक भाषा’ की और कभी ‘एक देश, एक बाजार’ की। अगर यह सारे देश को एक डंडे से हांकने की उसकी किसी परियोजना का हिस्सा है तो उसे समझना चाहिए कि विविधताओं से भरा यह देश इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता। सरकार से पूछा ही जाना चाहिए कि वह अपनी तुकबंदी को ‘एक देश, एक आय’ जैसी किसी योजना तक क्यों नहीं पहुंचाती?
बहरहाल, किसान इतने भर से ही खफा नहीं हैं। इसलिए भी खफा हैं कि इन कृषि सुधारों के तहत सरकार उन्हें मंडियों के बाहर भी उपज बेचने की जो ‘सहूलियत’ दे रही है, वह भी ‘एक देश, एक कृषि बाजार’ की तरह उनके लिए कोढ़ में खाज ही सिद्ध होगी। तिस पर अनुबंध आधारित खेती को कानूनी वैधता उन्हें अपने ही खेतों में मजदूर बनाकर छोड़ेगी।
बात को इस तरह समझ सकते हैं कि ‘एक देश, एक कृषि बाजार’ के तहत किसानों को देश में कहीं भी उपज बेचने की ‘आजादी’ प्रचार में जितनी आकर्षक नजर आती है, उतनी वास्तव में है नहीं। क्योंकि पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसी गेंहू उत्पादक किसान के लिए अच्छी कीमत के लालच में अपनी दस कुंतल उपज किसी दूसरे सूबे की मंडी या बाजार में ले जाना और बेचना इतना दुस्साध्य व समय साध्य होगा कि उसके फायदे को नुकसान में बदल दे। यह किसान तो अनेक विवशताओं के कारण अपनी उपज को निकटवर्ती मंडी तक भी मुश्किल से ही पहुंचा पाता है। तिस पर उसके पास उसके ज्यादा दिन तक भंडारण की सुविधाएं भी प्राय: नहीं ही होतीं।
यकीनन, ऐसे में तथाकथित कृषि सुधारों के तहत बिचौलियों और व्यापारियों की भूमिका बढ़नी ही है और कृषि उपजों की मंडियों से बाहर खरीद-बिक्री का मतलब किसानों को बड़े गल्ला व्यापारियों के रहमोकरम पर छोड़ देने के अलावा कुछ नहीं है। दरअअल, ये व्यापारी ही ‘एक देश, एक कृषि बाजार’ के वास्तविक लाभार्थी होंगे, जो किसानों से औने-पौने दाम में उनकी जिंसें खरीदकर अपनी सुविधा व लाभ के अनुसार देश के किसी भी हिस्से में बेचेंगे। ऐसे में साफ है कि किसानों का नए बंटाधार के अंदेशों से हलकान होना व सड़कों पर उतरना अकारण नहीं है। बेहतर होगा कि सरकार इन सुधारों पर अड़ी रहकर निवेशकों व पूंजीपतियों के हितों का पोषण करती रहने के बजाय किसानों को आश्वस्तिकारी संदेश देने के लिए अपने कदम पीछे खींच ले। इस कठिन समय में बेरोजगारों व युवाओं के साथ किसानों को भी उद्वेलित करना किसी भी लिहाज से ठीक नहीं होगा। क्योंकि वे राजद्वार ऊंचे करते रहने के लिए हमेशा अपनी झोंपड़ियां झुकाते नहीं रह सकते।

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