- तत्कालीन खतौली विधायक वीरेंद्र वर्मा पर लगा था भीतरघात का आरोप, कांग्रेस ने सीपीआई के उम्मीदवार को दिया था समर्थन
मिर्जा गुलजार बेग |
मुजफ्फरनगर: मुजफ्फरनगर लोकसभा सीट को यंू ही हॉट सीट नहीं कहा जाता, क्योंकि इस लोकसभा के मतदाताओं का मिजाज कब बदल जाये कहा नहीं जा सकता। जिन चौधरी चरणसिंह की वेस्ट यूपी की सियासत में तूती बोलती थी और दो बार यूपी के मुख्यमंत्री रह चुके थे, उन चरणसिंह को भी इस लोकसभा सीट पर हार का मुंह देखना पड़ गया था। यह चुनाव हारने के बाद चौधरी चरणसिंह ने इस लोकसभा सीट को छोड़ दिया था और बागपत को अपनी कर्मस्थली बना लिया था।
मुजफ्फरनगर लोकसभा सीट सियासी उठापटक के लिए हमेशा महत्वपूर्ण मानी जाती रही है। यूपी के दो बार सीएम रह चुके भारतीय क्रांति दल के उम्मीदवार के तौर से चौधरी चरण सिंह ने 1971 में मुजफ्फरनगर सीट से पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ा था। तब लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया था, लेकिन संपूर्ण विपक्ष इंदिरा हटाओ का नारा लगा रहा था। मुजफ्फरनगर की सभी आठ विधानसभा सीटों पर भारतीय क्रांति दल यानी बीकेडी का कब्जा था। चौधरी चरण सिंह के सामने कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार न उतारते हुए सीपीआई के ठाकुर विजय पाल सिंह को समर्थन की घोषणा की थी, जबकि चौधरी चरण सिंह विरोधी खेमे को भी उकसाया था।
कांग्रेस की इसी व्यूह रचना ने चौधरी चरण सिंह को चित कर दिया था और वो ठाकुर विजय पाल सिंह से 50 हजार से अधिक मतों से हार गए थे। चौधरी चरण सिंह की हार में बाबू नारायण सिंह और हुकम सिंह की भूमिका अहम् मानी जाती है। खतौली सीट से उस समय बीकेडी विधायक वीरेंद्र वर्मा थे, उन पर भितरघात का आरोप लगा था। इसके बाद वीरेंद्र वर्मा बीकेडी छोड़कर कांग्रेस में चले गए थे। मुजफ्फरनगर लोकसभा सीट हारने के बाद ही चौधरी चरण सिंह ने इमरजेंसी के बाद 1977 में हुए लोस चुनाव में बागपत सीट से चुनाव लड़ा। वो यहां से बड़े अंतर से जीते और पहले केंद्रीय गृहमंत्री फिर देश के प्रधानमंत्री भी रहे। चरण सिंह के बाद अजित सिंह भी बागपत से लगातार चुनाव लड़ते रहे।