Wednesday, July 3, 2024
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मन के अंतर्द्वंद्व

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Ravivani 32


सिंघई सुभाष जैन |

राष्ट्रपति चुनाव में विपक्षी सांसद, विधायकों ने कहा है कि हमारे मन में जो विचार आया है, उसी के अंतर्गत हमने राष्ट्रपति प्रत्याशी को मत दिया है। उन्हें उनके राजनीतिक दल की प्रतिक्रिया से कोई भय नहीं है। हम देखते हैं कि मन के प्रायोजित कार्यक्रम से प्रेरणा लेकर मन में जो बात आ जाए वो कहने, करने के लिए हम स्वतंत्र होते जा रहे हैं। करने- कहने के पश्चात बोल देते हैं, अरे भाई! मन में आया तो कर-कह दिया। मन तो स्वच्छ है। आपके-हमारे मन के विचारों में विपक्ष व पक्ष की तरह वैचारिक विभिन्नता हो सकती है, पर वह मन ही मन में है, खुले आसमान, सड़कों पर नहीं है। यह कौन नहीं जानता कि मन की बात के उद्घाटन से उद्बोधनकर्ता व उनके साथी संगिओं, संबोधितों के मध्य और अधिक दूरी बन सकती हैं।

सामाजिक कार्यक्रमों में मन का बहुत महत्व है। बारात रवाना होने के समय बन्ना व बन्नी के गीत गाए जाते हैं-मन ही मन में लड्डू फूटे, बन्नी घर जाना है। खाने-पीने के मामलों में कहा जाता है कि मन भर खा लें। इसके दो अर्थ होते हैं। एक अर्थ हैं कि यदि अतिथि भूखा-पेटू होगा तो भोजनभट्ट की तरह भूमिका निभाएगा। यदि सामान्य होगा तो शांत मन में जितनी न्यूनतम भूख होगी खाएगा। मन भर प्रसन्न होने की बात कही जाती है। जब सामाजिक माध्यम व दूरभाष, दूरदर्शन, मोबाइल, यूट्यूब नहीं थे, तब मन बहुत चंचल व चर्चित रहा करता था। उस समय मेला आदि में नौटंकी, कठपुतली, नाट्यमंडली, लोक संगीत चारों ओर देखा सुना जाता था। उन कार्यक्रमों में जब मन हुआ चले जाते थे। मन न लगता तो बीच में ही अपनी थैली, गमछा या टाट उठा-फटकार-झटकार के वहां से कहीं ओर खिसक लेते थे। अब तो मन का व्यावसायिकरण हो गया है। दूसरे के मन के बिना उठ-बैठ नहीं सकते।

एक युग था जब अलीबाबा और चालीस चोर कथानक प्रसिद्ध हुआ करता था। उन दिनों गांव-देहात में डकैती, चोरी हुआ करती थी। डाकू कहा करते थे कि हम अगर गांववालों से एक सेर अनाज ले लेते हैं तो क्या गुनाह करते हैं। गांव वालों के मन में आया होगा कि प्रत्येक चोर को एक सेर अनाज दिया जाना चाहिए। उस समय अनाज के नापने के लिए सेर नामक बांट हुआ करता था। चालीस चोरों की संख्या से प्रभावित होकर एक चोर के लिए एक सेर सामग्री रखे जाने के हिसाब से चालीस सेर का एक मन निर्धारित किया गया। मन के समकालीन सेर हुआ करता था। सेर अपने आप में वजनदार होता था। परिणामस्वरूप उसके सामने किसी अन्य शक्तिशाली के प्रकट होने पर आगन्तुक को सवा सेर कहा जाने लगा था।

मन की ख्याति फिल्मों में भी प्रवेश कर गई थी-दु:खी मन मेरे, सुन मेरा कहना, जहां नहीं चैना वहां नहीं रहना। मन में भले ही उथल-पुथल मच जाया करती है लेकिन मन की महत्ता कम नहीं हुई। किसी के अतिथि बन जाने पर भोजन के लिए पूछा जाता है। यह कहा जाता है कि आपके मन का भोजन बन जाएगा। मैं और मन को पर्यायवाची रूप भी दिया जाने लगा। मन में आ रहा है को मैं कहना चाहता हूं-कहा जाने लगा है। मन में आए भावों में परिवर्तन के लिए एक चित्रकार व्यंग्य रचना पढ़ लेता है। व्यंग्यकार ललित निबंध पढ़ना चाहता है। कोई बात किसी के मुंह से निकल जाती है और श्रवणकर्ता को चुभने की आशंका उत्पन्न होने की संभावना होती है, तब कहने वाला बोल देता है कि जो मैंने मन की बात कही है उसे मन में न लेवें। वैवाहिक देखा परखी में लड़का-लड़की से पूछा जाता है कि मन भरा या नहीं। जवाब मिलता है कि अभी मन भरा नहीं।

विपणन कंपनियों में कार्यरतों को मन से सम्बंधित पाठ्यक्रम की प्रशिक्षण दिया जाता है। इसे तकनीकी भाषा में मनोविज्ञान की पढ़ाई कही जाती है। उन्हें जनता के मन को अपने उत्पाद के प्रति आकर्षित करना होता है। मन के जीते जीत है मन के हारे हार है। मेरा पढ़ाई में मन नहीं लगता या फिर उससे बात करने में मेरा मन नहीं है। ये सामान्य संवाद हैं। प्राय: सुनने में आया करते हैं। मन को शीतलता प्रदान करने के लिए मधुर वचन बोले जाते हैं। लोक व्यवहार में अनेक शब्दों का उपयोग किया जाता रहा है-मन ही मन में बंटवारे की योजना। मन चंगा तो कठौती में गंगा। मन मारना। मन ललचाना। मन में ठानना। भारी मन मसोसकर मन में रखना। मन में बसना आदि। आभासी दुनिया के मित्रों की पढ़ने की गति मन के समान होती है। इधर किसी ने रचना प्रेषित की उधर बधाइयों की टिप्पणियां आना प्रारंभ हो जाती हैं। लेखक अपने आभासी खाते से निकल नहीं पाता। ढेर सारी बधाइयों के बोझ तले दब जाता है।


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