पिछले दिनों एक खबर आई कि दिल्ली के रोहिणी इलाके में स्थित आशा किरण नामक मंद बुद्धि आश्रय गृह में जुलाई माह में 14 लोगों की मौत हो गई। इनमें आठ महिलाएं और पांच पुरुष थे। जानकारी में आया है कि इस गृह में कुछ मृतक पांच साल से तथा कुछ विगत दो दशक से यहां रह रहे थे। दरअसल यह गृह दिल्ली सरकार के सामाजिक विभाग द्वारा आशा किरण के नाम से मानसिक रूप से दिव्यांग व्यक्तियों के लिए संचालित शेल्टर होम है। इसमें कुल रहने की क्षमता 250 लोगों की है। परन्तु इसमें 980 लोग रहे थे। यहां कुछ लोग दिव्यांगता की श्रेणी में तथा कुछ अन्य कई गंभीर शारीरिक बीमारियों से जूझ रहे हैं। राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा ने इस गृह का भ्रमण करते हुए बताया कि इस गृह में अनेक आश्रय लेने वाले लोग बिना उचित भोजन व पानी के रह रहे हैं। हालांकि दिल्ली प्रशासन और वहां की सरकार ने इस घटना की जांच के आदेश दिए हैं। परंतु विगत वर्षों की जांच बताती है कि उनका परिणाम भी कुछ सुखद नहीं रहा है। यही वजह है कि इस प्रकार के शेल्टर होम्स की लगातार अनदेखी हो रही है। परिणामत इन गृहों में ऐसी अमानवीय घटनाओं का सिलसिला जारी है।:
यह केवल एक आश्रय गृह की दारुण कथा है। दिल्ली में ऐसे 200 गृह संचालित हैं जो बेघर परिवारों, नि:सहाय स्त्री-पुरुषों तथा नशेडी लोगों के लिए आरक्षित हंै। आंकड़े बताते हैं कि देश में आश्रय गृहों की संख्या 2500 के आस-पास हैं। इनमें लगभग 1500 गृह सरकारी स्तर पर स्वीकृत हैं। शेष सामाजिक, धार्मिक व चैरिटेबिल संस्थाओं के द्वारा संचालित हैं। हैरत की बात है कि आज इन आश्रय गृहों में लाखों लोग आवासित तो हैं, परंतु जिन उद्देश्यों को लेकर इन गृहों की स्थापना की गई थी, आज इनमें से अधिकांश उन पर खरे नहीं उतर पा रहे हैं। सचाई यह है कि इन आश्रय गृहों की स्थापना इसलिए की गई थी ताकि बेघर हुए परिवारों,परित्यक्त
महिलाओं,पुरुषों,अनाथ शिशुओं व किशोरों तथा वृद्धजनों को एक आपात स्थिति में वहां रहने के लिए एक अस्थायी घर और जरूरत का सामान तथा इनमें एक सुरक्षित व स्व्च्छ वातावरण उपलब्ध कराया जा सके।
पड़ताल बताती है कि अनाथ शिशुओं, किशोर व किशोरी गृह तथा अपचारी बच्चों से जुड़े सम्प्रेक्षण गृहों का संचालन अधिकांश रूप में शासन व प्रशासन के द्वारा संचालित किए जाते हैं। प्रदेशों के महिला कल्याण और बाल विकास के द्वारा इनके संचालन के लिए एक अच्छे-खासे बजट का भी प्रावधान किया जाता है। इनके अतिरिक्त कुछ मंद बुद्धि अथवा दिव्यांगता से जुडेÞ शेल्टर होम भी सरकारी अनुदान से संचालित किए जाते हैं। शेष काफी संख्या में महिला व वृृद्धजनों से जुड़े आश्रय गृह ट्रस्टों व चैरिटेबिल संस्थाओं के द्वारा भी संचालित किए जा रहे हैं। इन आश्रयगृहों का ढांचा इसलिए विकसित किया गया था, ताकि यदि जहां सामाजिक व सामुदायिक संस्थाएं समाज के प्रति अपने दायित्व से चूकतीं हैं तो निराश्रित बच्चे, परित्यक्त महिलाएं, पुरुष, पलायन किए किशोर व किशोरी व वृद्धजन इत्यादि कुछ समय तक अस्थायी रूप से यहां इन सरकारी अथवा गैरसरकारी आश्रयगृहों में रहकर अपने जीवन को ठीक प्रकार से संचालित और संरक्षित कर सकें। परंतु देखने में आ रहा है कि आश्रयगृह चाहे किशोर-किशारियों के लिए हों अथवा कानून का उल्लंघन करने वाले अपचारियों के लिए या फिर वे चाहे मानसिक मंदित लोगों के लिए ही क्यों न हों, इनमें से अधिकांश गृह अपने निर्धारित उद्देश्यों को पूर्ण नहीं कर पा रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं कि आज जिस अनुपात में समाज के आपसी संबंधों की दीवारें दरक रहीं हैं व संयुक्त परिवार की टूटन से जिस प्रकार से परिवार व विवाह की संस्थाएं आधुनिकता का लबादा ओढ़ रही हैं, उसी अनुपात में आज किशोर किशोरियों के साथ नाबालिगों तक में घरों से पलायन करने की प्रवृति देखने में आ रही है।
पिछले दिनों कानून का उल्लंघन करने वाले बच्चों में भी यह प्रवृति तेज देखी गई है। इस सामाजिक परिवर्तन की तीव्र प्रक्रिया का प्रभाव इन शेल्टर होम्स पर भी पड़ा है। सच यह भी है कि किशोर-किशोरियों, पारिवारिक हिंसा से ग्रस्त महिलाओं व सामजिक संबधों में शक के दायरे का विस्तार तथा अपचारी बच्चों के संख्या में लगातार वृद्धि ने इन शेल्टर होम्स की सीमित संख्या को ध्वस्त कर दिया है। लिहाजा ये सभी होम्स अति संख्या का दंश झेल रहे हैं। इसका दुष्परिणाम यह है कि इनमें से अधिकांश गृहों का आंतरिक ढांचा चरमरा गया है, जिसके चलते यहां से आए दिन नाबालिग किशोर किशोरियो के साथ ही संम्प्रेक्षण गृहों तक से अपचारी बच्चों के भागने की खबरे अखबारों की सुर्खियों में रहती हंै। केवल इतना ही नहीं, कहीं कहीं तो किशोर व किशोरियों के ये गृह उनके पलायन करने के साथ-साथ उनमें यौन व्यभिचार की खबरें आती रही हैं।
समाज की इस प्रकार की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए भारतीय संविधान में अनुच्छेद 14, 19, 21, 39, 42 व 47 में स्पष्ट प्रावधान किया है कि सरकार अपने नागरिकों को आश्रय उपलब्ध कराए, ताकि उस देश के नागरिक सम्मान के साथ अपना जीवन व्यतीत कर सकें। इसके लिए सरकार का सामाजिक कल्याण मंत्रालय अनुदान भी उपलब्ध कराता है। कई बार इसके संचालकों की गिद्धदृष्टि इन आश्रय गृहों के स्रोतों को सुखा देती है, जिस कारण इन गृहों में रहने वाले लोग बीमारियों का दंश झेलने को मजबूर होते हैं और सरकार और समाज की साख को चोट पहुॅचती है।
आज परिवारों में राम का सद्चरित्र, कृष्ण की दूरदर्शिता, सीता की पतिव्रता, रानी लक्ष्मीबाई की वीरता, स्वामी रामकृष्ण परमहंस की आध्यात्मिक साधना, स्वामी विवेकानन्द का पाण्डित्य एवं श्रवण कुमार की मातृ-पितृ भक्ति जैसे गुण भारतीय परिवारों ने दूर हो चले हैं। परिवार, पारिवारिक मूल्य, नैतिकता एवं उनकी उपादेयता पर वैज्ञानिक तर्क हावी हंै। परिवार और विवाह के ये सतही रूप हमने स्वयं बना लिए हैं, जिनमें रिश्तों की टूटन एक स्वभाविक प्रक्रिया हो चली है। भारतीय संविधान और सरकार के साथ समाज की यह अपेक्षा रही कि यहां देश में समाज के सभी अंग वे चाहे स्थापित हों अथवा समाज की परिस्थितियों से विस्थापित हो गए हों, वे सभी आपसी प्रेम और सद्भाव के साथ समाज में एक अच्छे नागरिक की भूमिका में रहेंगे। मगर सदैव ऐसा नहीं हो पाता।
निश्चित ही ऐसे लोगों को तमाम विषम व्याधियों से बचाने के लिए ये आश्रय गृह इस समस्या का कोई स्थायी समाधान नहीं है। लेकिन फिर भी इन आश्रय गृहों के अंदरुनी ढांचे को संतुलित बनाने के लिए जरूरी है कि सरकार के साथ साथ देश व प्रदेशों के तमाम आयोग व इससे जुडे मंत्रालयों को आपसी सहयोग व समायोजन करके इन आश्रयग्रहों की भयावह होती समस्या की ओर बिना समय गवाएं संज्ञान लेकर आवश्यक कार्यवाही करने की आवश्यकता है। तभी इन ग्रहों में रहने वाले लक्षित समूहों को एक सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार मिलेगा। उसके बाद ही इन ग्रहों में निवासित सभी को समाज की सम्मानजनक मुख्य धारा में लाया जा सकेगा।