संसद का मानसून सत्र जिस तरह हंगामे, शोर-शराबे और व्यर्थ के व्यवधान की भेंट चढ़ गया उससे धन और समय की तो बर्बादी हुई ही, राजनीतिक दलों पर लोगों का भरोसा भी घटा। ऐसा होना एक तरह से भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी बजना है। इससे अधिक चिंताजनक और कुछ नहीं हो सकता कि मासून सत्र में नाममात्र का विधायी कामकाज हो सका। और कोरोना जैसे महत्वपूर्ण विषय पर कोई विमर्श नहीं हो पाया। हालांकि संसद में हंगामा पहले भी होता रहा है और पूरे के पूरे सत्र भी हंगामे की भेंट चढ़ते रहे हैं, लेकिन अतीत में जब भी ऐसा हुआ तब हंगामे के केंद्र में कोई एक बड़ा विषय था। पेगासस मामले में जानबूझकर विपक्ष संसद में गतिरोध बना रहा है। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने इस बाबत दायर की गई याचिकाओं पर याचिकाकतार्ओं को फटकार लगाई है। लगातार हंगामे के चलते संसद के सैकड़ों कामकाजी घंटे बर्बाद हुए और इस कारण भारी भरकम धनराशित व्यर्थ चली गई। लोकसभा की एक घंटे की कार्यवाही पर करीब 1.5 करोड़ और राज्यसभा की कार्यवाही पर 1.1 करोड़ रुपए प्रति घंटा खर्च किए जाते हैं। यह पैसा किसी सांसद या मंत्री के खजाने से नहीं आता। संसद के 13 दिन धुल चुके हैं। औसतन 15-20 फीसदी काम हो पाया है, जबकि 120 घंटे की कार्यवाही जरूर होनी चाहिए थी।
वित्त विधेयकों पर भी विपक्ष कार्यवाही के पक्ष में नहीं, जबकि ऐसे बिल पारित होने के बाद ही सांसदों को वेतन-भत्ते मिल सकते हैं। विडंबना यह कि कोई भी इसकी जवाबदेही लेने को तैयार नहीं कि मानसून सत्र में लोकसभा में काम-काज कम क्यों हुआ? अगर बीता सत्र पिछले कई सालों में सबसे कम काम वाला सत्र साबित हुआ तो यह सभी राजनीतिक दलों के लिए चिंता का विषय बनना चाहिए, लेकिन वे ऐसे संकेत तक नहीं दे रहे हैं। उलटे जनता को सफाई देने के लिए सड़कों पर उतरने की बात कह रहे हैं। बेहतर हो कि कोई इसकी सफाई भी दे कि संसद चली क्यों नहीं?
मानसून सत्र में संसदीय मर्यादाओं को तार-तार किया गया। क्या भारतीय संसद को पापड़ी-चाट का सदन कहा जा सकता है? संसद है या सड़क किनारे कोई खोमचेवाला पापड़ी-चाट तल कर बेच रहा है? क्या अब संसद की यही गरिमा शेष है? क्या पापड़ी-चाट के लिए ही देश की जनता अपने प्रतिनिधियों को चुन कर संसद में भेजती है? बौद्धिकता का मुखौटा ओढ़े जब कोई सांसद संसद की कार्यवाही की तुलना पापड़ी-चाट बनाने से करता है, तो भारत की संसद ही नहीं, संविधान, लोकतंत्र और मताधिकार प्राप्त जनता सवालिया हो जाते हैं। उनके अस्तित्व की प्रासंगिकता संदेहास्पद लगती है। प्रधानमंत्री मोदी ने भी ऐसी टिप्पणी को संसद, संविधान और जनता का अपमान करार दिया है।
डेरेक को भी सजा मिलनी चाहिए। संसद की बाधित कार्यवाही के लिए सरकार और विपक्ष दोनों ही कठघरे में हैं। दायित्व दोनों का है। अकेली सरकार ताली नहीं बजा सकती और न ही विपक्ष की शर्तों पर सदन चलाए जा सकते हैं। कमोबेश सभापति और स्पीकर के विशेषाधिकारों का भी सम्मान किया जाना चाहिए। हम इस राजनीति के पक्षधर नहीं हैं कि विपक्ष में रहते हुए भाजपा ने भी पूरे के पूरे सत्र धो दिए थे। भाजपा सांसदों ने कई दिन तक संसद की कार्यवाही भी नहीं चलने दी थी। क्या राजनीतिक दल इन्हीं परंपराओं की नकल करते रहेंगे? यह अच्छा नहीं हुआ कि संसद को एक तरह से विरोध प्रदर्शन का अड्डा बना दिया गया।
एक विडंबना यह भी रही कि संसद में जिन भी मसलों पर हंगामा किया गया उन्हें लेकर चर्चा करने से जानबूझकर बचा गया। अगर चर्चा हुई होती तो पक्ष-विपक्ष की राय के जरिये आम जनता इन मसलों की तह तक जा सकती थी। शायद विपक्षी दल यह चाहते ही नहीं थे कि इन मुद्दों पर नीर-क्षीर तरीके से बहस हो। इसीलिए बहस के स्थान पर हंगामे की राह पर चला गया। शायद विपक्षी दलों ने यह तय कर लिया था कि वे ज्वलंत समस्याओं पर संसद में चर्चा नहीं होने देंगे।
यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि हमारे राजनीतिक दल इससे बेपरवाह हो चुके हैं कि दुनिया के अनेक देशों में भारतीय लोकतंत्र की मिसाल दी जाती है। यह मिसाल इसीलिए दी जाती है, क्योंकि संसद लोकतंत्र को मजबूत करने का काम करती है। यदि आज विपक्ष को भाजपा से बदला लेना है, तो फिर यह प्रलाप क्यों किया जा रहा है कि सरकार सदन की कार्यवाही नहीं चलने देना चाहती? लिहाजा जासूसी कांड सरीखे बेहद संवेदनशील मुद्दे पर बहस और जांच नहीं कराई जा रही है। सदन में हंगामा और नारेबाजी के मायने ये नहीं हैं कि संसद को अभद्र और अराजक बना दिया जाए।
यदि संसद में बुनियादी काम ही नहीं होंगे तो फिर यह तय है कि वही देश भारतीय लोकतंत्र का उपहास उड़ाएंगे जो उसकी मिसाल देते हैं। इसके साथ ही देश की जनता भी संसद के रवैये पर निराशा प्रकट करेगी। आज जब इसकी आवश्यकता कहीं अधिक है कि संसद अपने हिस्से का काम सही तरह करे तब यह देखना दयनीय है कि राजनीतिक दल संसद को बाधित करने पर आमादा हैं। यह सही है कि यह जिम्मेदारी सत्तापक्ष की है कि संसद सही तरह चले, लेकिन विपक्ष की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वह संसद चलने में अपना सहयोग प्रदान करे। वह ठीक इसके उलट काम कर रहा है।
विपक्षी दल ऐसे व्यवहार कर रहे हैं जैसे उन्हें संसद के चलने-न चलने की परवाह ही नहीं। इसे देखते हुए ऐसे तौर-तरीके बनाने की जरूरत है जिससे संसद चलाने के मामले में सत्तापक्ष के साथ ही विपक्ष की भी जिम्मेदारी तय हो।