एक बार संत रामानुज के पास एक युवक आया और बोला, महाराज मैं आपके सानिंध्य में दीक्षित होना चाहता हूं। कृप्या मुझे अपना शिष्य स्वीकार करने की कृपा करें। यह सुनकर संत ने प्रश्न किया, तुम्हारा किसी से प्रेम है? युवक ने उत्तर दिया, नहीं महाराज। संत ने पुन: पूछा, क्या तुम्हारा अपने घर के किसी भी सदस्य कोई लगाव है? युवक बोला, नहीं महाराज, मैं तो सब कुछ त्याग कर आपकी शरण में आया हूं। मैंने सुना है कि भक्ति और दीक्षा के लिए सभी प्रकार के मोह, प्रेम और लगाव का त्याग करना होता है, तभी जाकर संन्यासी जीवन निभ पाता है। यह संत मुस्कराते हुए बोले, तब तो हमारी तुम्हारी नहीं बन सकती है। मैं तुम्हें कोई शिक्षा दे ही नहीं पाऊंगा।
युवक ने आश्चर्य से प्रश्न किया, क्यों महाराज? संत रामानुज बोले, अगर तुम्हारा किसी से लगाव होता या तुम्हें किसी से थोड़ा भी प्रेम होता तो मैं उस प्रेम को एक विराट स्वरूप दे सकता था। प्रेम का बीज होना चाहिए। मैं उस बीज को वृक्ष में बदल सकता था, लेकिन तुम्हारे भीतर तो बीज ही नहीं है और बगैर बीज के वृक्ष उगाने की क्षमता मुझमें नहीं है। युवक संत का आशय समझ गया। उसने उन्हें प्रणाम कर कहा, महाराज, आपने मेरी आंखें खोल दीं हैं। मैं अपने घर जा रहा हूं। अपने लोगों से स्नेह किए बगैर परम तत्व के प्रति भी प्रेम नहीं हो सकता। मर्म यह है की प्रेम ही भक्ति का दूसरा नाम है। भक्ति और प्रेम हमें अपनों के करीब लाती है। संसार की सेवा के साथ अपनों की सेवा करने का सौभाग्य प्रदान करती है। अपनों को त्यागने का अर्थ है, अपने कर्तव्यों और कर्म से विमुख होना।
प्रस्तुति: राजेंद्र कुमार शर्मा