Monday, July 1, 2024
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कार्यपालिका बनाम न्यायपालिका

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Samvad


31 23सर्वोच्च न्यायालय ने बीते दिनों निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति को लेकर एक अहम टिप्पणी की और एक मजबूत मुख्य चुनाव आयुक्त की जरूरत पर जोर दिया। एक याचिका पर सुनवाई करते हुए अदालत ने कहा कि संविधान ने मुख्य निर्वाचन आयुक्त और दो अन्य निर्वाचन आयुक्तों के ‘नाजुक कंधों’ पर बहुत जिम्मेदारियां सौंपी हैं और वह मुख्य चुनाव आयुक्त के तौर पर टीएन शेषन की तरह के सुदृढ़ चरित्र वाले व्यक्ति को चाहता है।संविधान पीठ चाहती है कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति समिति में देश के प्रधान न्यायाधीश को भी शामिल किया जाए। इससे नियुक्ति की प्रक्रिया और चयन में ‘तटस्थता’ सुनिश्चित हो सकेगी। ऐसे व्यक्ति को संवैधानिक पद पर बिठाया जा सकेगा, जो खुद को सरकार के सामने बाध्य अथवा भयभीत न होने दे। तमाम राजनीतिक दबावों से भी अप्रभावित रह सके। देश के अटॉर्नी जनरल और सॉलिसीटर जनरल ने इसे कार्यपालिका में न्यायपालिका का दखल माना है। वे इसे ‘लोकतंत्र पर खतरा’ भी मानते हैं। शीर्ष विधि अधिकारियों का मानना है कि इससे संविधान फिर से लिखना पड़ सकता है। संविधान ने लोकतंत्र के अलग-अलग स्तंभों और उनकी शक्तियों का वर्गीकरण तय कर रखा है, फिर हस्तक्षेप की गुंजाइश कहां है? दरअसल संदर्भ यह था कि कैबिनेट ने पंजाब काडर के आईएएस अधिकारी रहे अरुण गोयल को चुनाव आयुक्त नियुक्त किया है।

संविधान पीठ ने सिर्फ नियुक्ति-प्रक्रिया देखने के लिए उस केस की फाइल मांगी है, जिस पर अटॉर्नी जनरल ने आपत्ति दर्ज कराई है। संविधान पीठ को अधिकारी की स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति और चुनाव आयुक्त के तौर पर नियुक्ति में कुछ विसंगतियां लगती हैं। प्रधान न्यायाधीश को नियुक्ति में एक पक्ष बनाने का सुझाव तो प्रसंगवश है। जस्टिस केएम जोसेफ ने जवाब दिया कि सीबीआई निदेशक और केंद्रीय सतर्कता आयुक्तों की नियुक्ति में प्रधान न्यायाधीश भी एक पक्ष होते हैं। तो क्या लोकतंत्र खतरे में पड़ गया? दरअसल यह संविधान पीठ और कार्यपालिका के बीच एक संवैधानिक चुनौती बन गई है, जिसे हर हाल में संबोधित किया जाना चाहिए। संविधान पीठ का सरोकार और सवाल यह है कि मुख्य चुनाव आयुक्त और शेष दो आयुक्तों के कार्यकाल 6 साल तय हैं।

उन्हें पूरा क्यों नहीं किया जा रहा है? मुख्य चुनाव आयुक्त और आयुक्त तय कार्यकाल से पहले ही सेवानिवृत्त हो रहे हैं अथवा उन्हें इस्तीफे के लिए बाध्य किया जा रहा है? संविधान पीठ की चिंता है कि यदि सरकार अपने ‘यस मैन’ को आयुक्त नियुक्त करेगी, तो ऐसे व्यक्ति की सोच भी सरकार जैसी ही होगी। देखने में सब कुछ ठीक लगता है, लेकिन उसे कार्य करने में स्वतंत्रता है या नहीं, यह गंभीर सवाल है। आखिर यह देश के चुनाव आयोग का सवाल है, जो पूर्णतरू स्वायत्त और स्वतंत्र होना चाहिए।

संविधान पीठ के अध्यक्ष जस्टिस केएम जोसेफ हैं, जो इस केस के जरिए चुनाव आयोग की भूमिका और स्वायत्तता में महत्वपूर्ण सुधारों के पक्षधर हैं। उनके सामने नए चुनाव आयुक्त की नियुक्ति को चुनौती देने वाली याचिका भी है। भारत में चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्थान है, जो स्वतंत्र भारत में चुनाव-दर-चुनाव कराता रहा है। उसने नागरिकों के मताधिकार को जिंदा और प्रासंगिक बनाए रखा है।

पिछली सदी के अंतिम दशक में पूरे कार्यकाल में काम करने वाले मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन ने अपने विजन से चुनाव प्रक्रिया में आमूल-चूल परिवर्तन किये। बिना किसी राजनीतिक दबाव के चुनावी प्रक्रिया को पारदर्शी व विश्वसनीय बनाया। उनकी अनुशासित व सख्त कार्यशैली से राजनीतिक दल निरंकुश व्यवहार नहीं कर पाए।

लेकिन उनके बाद शायद ही किसी मुख्य चुनाव आयुक्त को पूरा कार्यकाल मिला हो जिससे वे चुनाव सुधार की प्रक्रिया को मूर्त रूप दे पाते। शायद यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ को इस बाबत एक याचिका पर सुनवाई के दौरान तल्ख टिप्पणी करनी पड़ी। कोर्ट को कहना पड़ा कि संविधान में मुख्य चुनाव आयुक्त व चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया तय न करके यह कार्य संसद पर छोड़ा गया था, जिसका सरकारें अनुचित लाभ उठाती रही हैं।

दरअसल, शीर्ष अदालत की टिप्पणी से पहले भी इस मुद्दे को लेकर सवाल उठाए जाते रहे हैं। संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार मुख्य चुनाव आयुक्त का कार्यकाल छह वर्ष या 65 वर्ष तक है, जो भी पहले पूरा होता हो। लेकिन पिछले कुछ समय से देखने में आ रहा है कि सरकारों द्वारा चुनाव आयुक्त की नियुक्ति इस तरह की जा रही है कि वे निर्धारित अधिकतम आयु सीमा आने के कारण अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाते। हालांकि सरकारों को पता होता है कि नियुक्त किये गये व्यक्ति की जन्मतिथि क्या है।

उल्लेखनीय है कि लॉ कमीशन भी अपनी रिपोर्ट में कह चुका है कि मुख्य चुनाव आयुक्त सहित सभी चुनाव आयुक्तों का चयन तीन सदस्यीय चयन समिति की सिफारिशों के अनुरूप हो, जिसमें प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष या लोकसभा में सबसे बड़े विपक्षी दल का नेता तथा मुख्य न्यायाधीश शामिल हों। यही वजह है कि इस मामले की सुनवाई कर रही संविधान पीठ के न्यायमूर्ति के.एम. जोसेफ ने सरकार से पूछा कि क्या वह इस प्रक्रिया में मुख्य न्यायाधीश को शामिल करेगी? यह तभी संभव है जब मुख्य चुनाव आयुक्त व चुनाव आयुक्त किसी सरकार, राजनीतिक दल व नेता के प्रभाव से मुक्त होकर निष्पक्ष ढंग से काम करें।

दरअसल दशकों से यह मांग उठती रही है कि चुनाव आयोग में नियुक्ति ‘द्विपक्षीय’ होनी चाहिए। सरकार के अलावा भी एक और पक्ष होना चाहिए, लिहाजा देश के प्रधान न्यायाधीश की मौजूदगी का सुझाव दिया गया है। संविधान पीठ ने दखल दिया है, तो सुधार व्यापक और दीर्घकालीन होने चाहिए। तदर्थवाद की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। चुनाव आयोग की शख्सियत वैसी ही हो, जैसी टीएन शेषन के कार्यकाल के दौरान थी। निस्संदेह, किसी भी लोकतंत्र की विश्वसनीयता उसकी पारदर्शी चुनाव प्रक्रिया पर निर्भर करती है।

संविधान और आम नागरिकों के भरोसे के मुताबिक मुख्य चुनाव आयुक्त को किसी भी राजनीतिक प्रभाव से अछूता माना जाता है, इसलिए उसे स्वतंत्र और स्वायत्त होना चाहिए। चुनाव आयोग ने अपनी निष्पक्ष भूमिका सदैव निभाई भी है। ऐसे में चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के सवाल को अदालत में प्रस्तुत सही प्रतीत नहीं होता है। वहीं इसे विधायिका में न्यायपालिका के बढ़ते दखल के तौर पर भी देखा जा सकता है। संविधान ने विधायिका को कानून बनाने की जिम्मेदारी सौंपी हैं। ऐसे में लोकतंत्र के सभी अंगों को अपनी तय सीमा में रहकर देश और कानून की मजबूती और रक्षा के लिए निष्पक्ष तरीके से काम करना चाहिए।


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