भारत दुनिया में कचरा पैदा करने वाला सबसे बड़ा देश है, जहां हर साल करीब 30 करोड़ टन से भी ज्यादा सॉलिड वेस्ट पैदा हो रहा है, लेकिन हम इसका 60 फीसदी ही निस्तारित कर पाते हैं। बाकी यह इधर-उधर ही पड़े रहकर पर्यावरण को प्रभावित कर रहा है। यह कचरा जल, वायु और भूतल प्रदूषण का कारण बन रहा है। देश में 75 फीसदी से ज्यादा कचरा खुले में डंप किया जाता है। वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट बताती है कि राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में सबसे ज्यादा कचरा उत्पन्न होता है। इस मामले में दिल्ली ने मुंबई, बेंगलूरु और हैदराबाद जैसे शहरों को काफी पीछे छोड़ दिया है। इन शहरों में भी इलेक्ट्रॉनिक, प्लास्टिक जैसे कचरे को अलग-अलग करने और सही ढंग से रीसाइक्लिंग की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है। इन शहरों में लैंडफिल साइट भर चुकी हैं। कचरे को कई जगहों पर जलाया जाता है। किसी भी जगह नई लैंडफिल साइट का लोग विरोध करते हैं, क्योंकि इससे कई प्रकार का प्रदूषण होता है। साल 2009 में भारत के शहर प्रतिदिन 80,000 मीट्रिक टन कचरे का उत्पादन कर रहे थे। अनुमान है कि साल 2047 तक भारत एक वर्ष में 26 करोड़ टन कचरे का उत्पादन करेगा, जिसका निपटान करने के लिए करीब 1,400 वर्ग मीटर के भराव क्षेत्र यानी कि लैंडफिल की आवश्यकता होगी। यह क्षेत्र हैदराबाद, मुंबई और चेन्नई को मिलाकर बने क्षेत्र के बराबर होगा। एक तथ्य यह भी है कि नियमों के बावजूद भी भारत में भराव क्षेत्रों को बढ़ावा दिया गया है। वर्तमान में अपशिष्ट प्रबंधन के लिए नगर निगमों द्वारा निजी ठेकेदारों को जो ठेके दिए जाते हैं, उनमें ठेका लेने वालों को ज्यादा से ज्यादा कचरा लाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। ठेके में शुल्क का भुगतान कचरा ले जाने वाले वाहनों की आवाजाही के अनुसार मिलता है। जितना ज्यादा कचरा लाएंगे, उतना ज्यादा शुल्क मिलेगा। भूमि की लागत और इसकी उपलब्धता पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता।
विशेषज्ञों का कहना है कि ठोस कचरे यानी ठोस अपशिष्ट को ठीक से प्रबंधित या निपटाने में विफलता होने से प्रदूषण हो सकता है। ठोस अपशिष्ट को भद्दा माना जाता है और इसे सड़क के किनारे फेंकने से अप्रिय गंध आने लगती है। ठोस अपशिष्ट के अनुचित निपटान से कई समस्याएं हो सकती हैं, जैसे पर्यावरण प्रदूषण, वेक्टर-जनित बीमारियों का प्रकोप, हानिकारक ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन, भूजल का प्रदूषण, परिवहन के दौरान ध्वनि और सूक्ष्म धूल। बढ़ती आबादी, शहरीकरण और बढ़ती प्रौद्योगिकी ठोस अपशिष्ट प्रदूषण के कुछ कारण हैं। ठोस अपशिष्ट से जुड़ी इन समस्याओं से निपटने के लिए ठोस अपशिष्ट का पुनर्चक्रण सबसे अच्छा तरीका है। पुनर्चक्रण का मतलब है कि कचरे को नए या उपयोगी उत्पाद में बदलना। वहीं कचरे को सूखे और गीले कचरे के रूप में अलग करना, घर-घर जाकर कूड़ा इकट्ठा करना और छंटाई के बाद इसे प्रोसेसिंग के लिए भेजना ठोस अपशिष्ट प्रबंधन के प्रमुख घटक हैं।
असल में कचरे का निपटान पूरी दुनिया के लिए गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है। जनसंख्या बढ़ने से अपशिष्ट की मात्रा लगातार बढ़ी है। ठोस अपशिष्ट प्रबंधन चर्चा में इसलिए भी है, क्योंकि लगभग सभी देश बढ़ते कचरे के कुशलतापूर्वक निपटान की चुनौती का सामना कर रहे हैं। असल में ठोस अपशिष्ट के निपटान की कोई उचित व्यवस्था नहीं है। सरकार की ओर से संचालित कुशल ठोस अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली का मुख्य उद्देश्य कूड़े-करकट से अधिकतम मात्रा में उपयोगी संसाधन प्राप्त करना और ऊर्जा का उत्पादन करना है, ताकि कम-से-कम मात्रा में अपशिष्ट पदार्थों को लैंडफिल क्षेत्र में फेंकना पड़े। इसका कारण यह है कि लैंडफिल में फेंके जाने वाले कूड़े का भारी खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। एक तो इसके लिए काफी जमीन की आवश्यकता होती है, जो लगातार कम होती जा रही है और दूसरा कूड़ा वायु, मिट्टी और जल-प्रदूषण का संभावित कारण भी है। ठोस अपशिष्ट को फेंकने से जमीन खराब होती है, वहीं उसे जलाने से वायु प्रदूषण बढ़ता है। साथ ही लोगों को कई बीमारियां अपनी चपेट में ले लेती हैं।
अगर कचरे की रिसाइक्लिंग की बात करें तो इस मामले में जर्मनी सबसे बेहतर काम कर रहा है, जो 56 फीसदी कचरे को रिसाइकिल कर देता है। इसके बाद आॅस्ट्रिया 53 फीसदी, दक्षिण कोरिया 53 फीसदी, वेल्स 52 फीसदी और स्विट्जरलैंड 49 फीसदी रिसाइक्लिंग कर देता है। इस मामले में स्वीडन, नार्वे और सिंगापुर भी अच्छा काम कर रहे हैं। भारत में भी रिसाइक्लिंग धीरे-धीरे एक उद्योग का रूप लेता जा रहा है। देश में कई छोटे-छोटे शहर भी रिसाइक्लिंग के मामले में बेहतरीन काम कर रहे हैं। अहमदाबाद और त्रिवेंद्रम अपने यहां के कुल कचरे का बड़ा भाग रिसाइकिल कर रहे हैं। हालांकि इस क्षेत्र को एक स्थाई उद्योग का स्वरूप देने के लिए बेहतर तकनीकी और आर्थिक मदद की आवश्यकता है। इस समय रिसाइक्लिंग के बाद बन रहे उत्पाद लोगों को कम पसंद आते हैं।
कचरा उत्पादन में प्लास्टिक कचरा एक बड़ी समस्या है। इस कचरे का कम से कम उत्पादन ही दुनिया को कचरे से मुक्ति दिलाने में मदद कर सकता है। इस संदर्भ में विशेषज्ञ चार आर का सिद्धांत अपनाने की बात करते हैं। इसमें पहले आर का अर्थ रिफ्यूज यानी प्लास्टिक पदार्थों के उपयोग से इनकार करना, दूसरे आर का अर्थ रिड्यूस यानी प्लास्टिक पदार्थों का कम से कम उपयोग करना, तीसरे आर का अर्थ रीयूज यानी नए की बजाय पुराने प्लास्टिक पदार्थों का उपयोग करना और अंत में रिसाइकिल यानी पुराने प्लास्टिक पदार्थों को रिसाइकिल कर दोबारा उपयोग करना है।