यह सही है कि शिक्षा विभाग की उच्च स्तरीय अफसरशाही की गलत नीतियों के कारण देशभर में सरकारी शिक्षा सिर्फ आंकड़ों से खेल बनकर रह गई है। हकीकत यही है कि सरकारी शिक्षकों को खुद की तकनीकें और आजादी के साथ पढ़ाने नहीं दिया जा रहा बल्कि सरकारी शिक्षकों और स्कूलों के मुखियों को अतिरिक्त कार्यो में उलझाकर रखा जा रहा हैं। यह शिक्षा जगत में सुधार के दृष्टिकोण पर करारा प्रहार है। देशभर में शिक्षकों को गैर-शैक्षणिक कार्यों से मुक्त करने की मांग उठती रही है, इसके बावजूद सरकारों की सक्रियता देखने में नहीं आई। गौरतलब है कि राजस्थान में शिक्षकों को गैर-शैक्षणिक कार्यों से मुक्ति दिलाने के लिए लगातार आवाजें उठती रही हैं। इसके अलावा पंजाब, उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश में शिक्षक ने अपना विरोध दर्ज कराया हैं। मौजूदा समय में शिक्षकों को शिक्षण कार्य के अतिरिक्त अन्य गैर शैक्षणिक कार्यों में लगाया जा रहा है। सच्चाई यही है कि शिक्षकों के विद्यालय में लिपिकीय कार्य में व्यस्त रहने से वे शिक्षण पर पूरा ध्यान नहीं दे पाते हैं। साथ ही विभाग की ओर से प्रतिदिन कई प्रकार की अनावश्यक सूचनाएं आॅनलाइन एवं आॅफलाइन मांगी जाती है जिससे शिक्षक उन सूचनाओं को बनाने में ही व्यस्त रहते हैं। इससे वास्तविक शिक्षण कार्य प्रभावित होता है। शिक्षकों को जब तक गैर-शैक्षणिक कार्यों में फंसाकर रखा जाएगा, तो उनसे गुणवत्तापूर्ण शिक्षण की उम्मीद बेमानी है, क्योंकि उसे आदेशों का अनुपालन कर नौकरी भी बचानी है। इसलिए शैक्षिक गुणवत्ता बेहतर करने लिए शिक्षकों को गैर शैक्षणिक कार्यों से हटाया जाना चाहिए।
उल्लेखनीय है कि नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में यह स्वीकार किया गया है कि गैर-शैक्षणिक कार्य शिक्षकों के लिए सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है। इसमें यह भी कहा गया है कि उच्चतम न्यायालय के निदेर्शों के मुताबिक चुनाव ड्यूटी और सर्वेक्षण करने से संबंधित न्यूनतम कार्यों के अलावा शिक्षकों को स्कूल के समय के दौरान ऐसी किसी भी गैर शैक्षणिक गतिविधि में भाग लेने के लिए न तो अनुरोध किया जाएगा और न ही अनुमति दी जाएगी, जो शिक्षक के रूप में उनकी क्षमताओं को प्रभावित करती हो।
इसके अलावा, शिक्षकों का गैर शैक्षणिक कार्यों में संलिप्त होने का दुष्परिणाम यह भी है कि गैर शैक्षणिक कार्य के कारण कक्षा में शिक्षकों की सीमित उपस्थिति और व्यस्तता के कारण पाठ्यक्रम पूरा होने में देरी होती है और छात्रों के सीखने पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यह आगे चलकर वंचित समुदायों के छात्रों के मौजूदा अधिगम अंतर को बढ़ाता है।
गौरतलब है कि हाल में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने शिक्षकों से करवाए जा रहे गैर शैक्षणिक कार्यों को लेकर बड़ा फैसला दिया था अदालत ने शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 का जिक्र करते हुए कहा था कि शिक्षकों से गैर शैक्षणिक कार्य नहीं करवाए जाएं।
कोर्ट ने उत्तर प्रदेश के सभी जिला अधिकारियों और जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी को निर्देश जारी कर इस आदेश का अनुपालन सुनिश्चित करने को कहा था। बता दें कि याचिकाकर्ता चारु गौर और दो अन्य की ओर से दाखिल याचिका पर सुनवाई करते हुए जस्टिस विवेक चौधरी की पीठ ने यह आदेश दिया था। याचिकाकर्ता के अधिवक्ता अग्निहोत्री कुमार त्रिपाठी ने हाई कोर्ट में दलील दी कि उनके क्लाइंट से बूथ लेवल आॅफिसर और इस तरह के अन्य बहुत से कार्य लिए जा रहे हैं। जबकि शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 और इसकी नियमावली के नियम 27 के अनुसार शिक्षकों की ड्यूटी गैर-शैक्षणिक कार्य में नहीं लगाई जा सकती हैं।
शिक्षकों से सिर्फ आपदा, जनगणना और सामान्य निर्वाचन के दौरान ही कार्य लिया जा सकता है। शिक्षकों को गैर-शैक्षणिक गतिविधियों में संलग्न करने के कारण शैक्षिक गतिविधियों में व्यवधान उत्पन्न हो रहा है। बता दें कि शिक्षकों से मिड डे मील बंटवाने, भवन और बाउंड्री वॉल का निर्माण करवाने, रंगाई-पुताई, स्कूल के खातों का संचालन और आधार कार्ड बनवाने में मदद जैसे बहुत से गैर-शैक्षणिक काम करवाए जा रहे हैं। शिक्षकों से शिक्षण कार्य न करवाकर उनसे गैर शैक्षणिक कार्य करवाने से जहां विद्यार्थियों की पढ़ाई बाधित होती है। अपितु शिक्षक के अध्यापन की कार्यकुशता में भी गिरावट आती है।
गौरतलब है कि देश में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने प्रस्तावित नई शिक्षा नीति के अपने अंतिम मसौदे में स्कूली शिक्षकों को गैर शैक्षणिक गतिविधियों से पूरी तरह से अलग करने का सुझाव दिया था। स्कूली शिक्षकों को चुनावी कार्य सहित दूसरे गैर-शैक्षणिक कार्यों से मुक्त करने का सुझाव इससे पहले नीति आयोग ने भी दिया था। इसके बावजूद आज तक शिक्षकों को गैर-शैक्षणिक कार्यों से मुक्त करने की दिशा में कोई विशेष और सख्त कदम नहीं उठाया गया। लिहाजा, देशभर में शिक्षा में सुधार के लिहाज से शिक्षकों को गैर-शैक्षणिक कार्यों से मुक्त किया जाना निहायत तौर पर जरूरी है।