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आंतरिक चेतना का विकास कैसे हो सकता है? अगर इस पर हमारा ध्यान जाए तो नाम, ग्राम, क्षेत्र भी प्रभावित हो सकता है, अन्यथा केवल नाम बदलने से क्या होगा? भावात्मक विकास कैसे हो? प्रयास इस बात का किया जाना चाहिए। एक आदमी मूर्ख के नाम से विख्यात था।
उसके सारे कार्य भी मूर्खतापूर्ण होते थे। गांव में सब उसे मूर्ख ही कहते थे। उसने विचार किया कि मैं यह गांव छोड़ दूं। कहीं ऐसी जगह चला जाऊं, जहां कोई मुझे पहचानता न हो। ऐसा विचार कर वह किसी अज्ञात स्थान की ओर चल पड़ा। 50-60 किमी दूर जाने के बाद उसे प्यास लगी।
सड़क के किनारे एक नल देखा, जिसमें से पानी की बूंदें टपक रही थीं। प्यास से अधीर वह नल के पास गया और सीधे नल की टोंटी में मुंह लगाकर उसने प्यास बुझाई। पानी पी चुकने के बाद नल से बंद हो जाने की प्रार्थना में वह इंकार के भाव से अपना सिर हिलाने लगा। सिर हिलने से तो नल बंद होता?
तो वह ‘बंद हो जाओ, बंद हो जाओ’ भी कहने लगा। एक आदमी ने उसे सिर हिलाते और ‘बंद हो जाओ’ कहते देखा। वह बोल पड़ा, ‘मूर्ख हो क्या?’ इतना कहना था कि वह सिर पकड़ कर बैठ गया और बोला, ‘इतनी दूर आने के बाद भी मैं पहचान लिया गया। भगवान! अब मैं कहां जाऊं?’
सार यह कि कहीं भी चले जाओ। धरती के इस छोर से उस छोर तक, जब तक अपनी वृत्तियां और आदतों को नहीं बदलोगे, भावों का परिष्कार नहीं करोगे, मूर्ख ही बने रहोगे। नाम और निवास स्थान बदल लेने से कुछ नहीं होगा।
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