मैं कहानी में आनंद नहीं तलाशता। कहानियों में मनोरंजन भी मेरी प्राथमिकता में कभी नहीं रहा। और कहानियां समय बिताने के लिए तो मैं नहीं ही पढ़ता। फिर मैं कहानियों में क्या खोजता हूं? शायद दुख, बेचैनी या आम आदमी की वे लाचारियां जिनपर किसी की नजर नहीं पड़ती। मुझे वे कहानियां पसंद आती हैं, जिनमें चित्रित दुख मेरे दुख से ‘मैच’ करता है या जो मेरी बेचैनी को पकड़ती हैं। जाहिर है मेरा दुख सिर्फ मेरा नहीं होता, बल्कि मेरे जैसे लाखों-करोड़ों लोगों का होता है। मुझे ऐसी ही कहानियाँ पसंद आती हैं और यही मेरे मन के करीब होती हैं। कहानियों में मैं यह भी देखता हूं कि लेखक द्वारा पकड़ा गया या चित्रित किया गया यथार्थ ठहरा हुआ तो नहीं है। यानी वह एक समय विशेष का यथार्थ तो नहीं है, अगर ऐसा है तो वह कहानी भी बस कुछ दिनों तक मेरे भीतर जीवित रहती है। मुझे लगता है, यथार्थ ‘ट्रेवल’ करता है, जिसे लेखक आज के समय का यथार्थ कहकर चित्रित करता है, जब वह आने वाले समय का भी यथार्थ बन जाता है, वही कहानियां मुझे प्रिय होती हैं।
पिछले दिनों रचनाकार आनंद हर्षुल का कहानी संग्रह ‘अधखाया फल’(राजकमल पेपरबैक्स) पढ़ने का संयोग बना। आनंद हर्षुल के अनेक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उनका एक उपन्यास ‘चिड़िया बहनों का भाई’ भी मैं पहले पढ़ चुका हूं। कुछ फुटकर कहानियां भी पहले पढ़ी थीं और यह स्पष्ट हो गया था कि आनंद भीड़ के कथाकार नहीं हैं। अपनी भाषा, शिल्प, बिंब और कथ्य में नितांत अलहदा लेखक हैं।
‘अधखाया फल’ ने इस बात को और पुख्ता किया। यह अनायास नहीं है कि वह समाज में फैल रही दुर्गंध को महसूस करते हैं और ‘यह दुर्गंध जो है’ जैसी कहानी लिखते है। एक घर है। घर में आंगन है। आंगन के दाहिनी ओर संडास है। संडास के बराबर ही रामशरण जी का कमरा है। रामशरण जी के खखारने और थूकने और करहाने की आवाजें शेष घर तक आ रही हैं। शेष घर में रामशरण जी का बेटा-बहू रहते हैं। इन दोनों को बराबर लगता है कि कमरे में दुर्गंध आ रही है।
यह सिर्फ एक बीमार आदमी से आती दुर्गंध नहीं है, जो पेशाब और शौच भी अपनी खाट पर ही कर रहा है। यह दुर्गंध है अनैतिकता की, क्षरित हो रहे मूल्यों की, बेईमानी की, संवादहीनता की, सांप्रदायिकता की, बेटियों के साथ हुई और हो रही नइंसाफियों की, बेईमानी से कमाए जा रहे पैसों की, अकेलेपन की। घर भी यहां केवल एक घर का ही प्रतीक नहीं है।
इसे आप पूरा देश मान सकते हैं। आनंद हर्षुल ने बेहद सलीके इस कहानी में तीन पीढ़ियों की बदलती दुनिया को चित्रित किया है। कहानी में उन्होंने लिखा, खाने के कमरे में जो तीन तस्वीरें हैं, वे पाटे में बैठकर खानेवाली पीढ़ी की हैं, रामशरण जी, उनके पिता और उनके पिता के पिता। रामशरण जी का बेटा जब मरेगा तो चौथी तस्वीर यहां आएगी तो शायद वह तीनों तस्वीरों से अलग होगी और अलग पहचान जाएगी कि वह पाटे पर बैठकर खाना नहीं खाता है।
उसके चेहरे पर डायनिंग टेबल और टीवी भी दिखेगा। कहानी में आनंद हर्षुल एक महत्वपूर्ण सवाल भी उठाते है। वह लिखते हैं, इस परिवार की दीवारों में स्त्रियों की कहीं कोई तस्वीर नहीं है, कि जितने पुरुष मरे हैं-कम से कम उतनी स्त्रियां तो मरी ही हैं तो उनकी तस्वीर कहां है? आनंद हर्षुल की यह बड़े फलक की यादगार कहानी है। ‘माइन्यूट डिटेलिंग’आनंद हर्षुल की एक अन्य खासियत है।
अगर आनंद हर्षुल एक फोटोग्राफर या निर्देशक होते तो उनका कैमरा निश्चित रूप से वह देखता, जिसे आमतौर पर कोई देखना नहीं चाहता या देखकर भी अनदेखा करता है। ‘कैमरे की आंख’ कहानी में उनकी नजर ऐसे ही एक बूढ़े पर जाती है, जो भूख से अपने परिवार को खोता जा रहा है।
कहानी में बूढ़े का पिता, बेटा और नाती की पहचान अब अलग-अलग पेड़ों से है। कहानी का अंत है-कैमरे को अब कुछ नहीं दिख रहा था…इस फिल्म का अंत- कैमरे के भीतर नहीं था। सचमुच भूख और गरीबी किसी कैमरे में दर्ज नहीं होती। यह एक बेचैन करने वाली कहानी है। खिड़की आनंद हर्षुल का प्रिय बिंब है। खिड़की से वह बाहर की दुनिया देखते हैं। प्रेम देखते हैं।
प्रेम का परवान चढ़ना देखते हैं। और फिर देखते हैं कि कैसे प्रेम का किला ढह जाता है। शीर्षक कहानी ‘अधखाया फल’ बीसवीं शताब्दी के आठवें दशक की ही प्रेम कहानी है, जिसमें सांवली नायिका निन्नी है, गुलमोहर का पेड़ है, नायक प्रेम है, उसका पहला प्रेम संदेश है। फिर प्रेम का अंत है मानो लड़की का प्रेम किसी बच्चे का अधखाया फल हो। ‘उस स्त्री का पति’ में खिड़की पत्नी के लिए बाहर के रास्ते खोलती है। पत्नी खिड़की से दिखाई देने वाले लड़के के साथ भाग जाती है, वापस आती है और फिर दूसरी खिड़की खोजने लगती है।
यह कहानी दांपत्य जीवन में आ गए ठहराव को तोड़ने के लिए स्त्री के बारबार किसी नये संबंध में पड़ जाने को चित्रित करती है। यह भी संभव है कि पुरुष की अक्षमताएं स्त्री को गैर-पुरुष की ओर धकेल रही हों। ‘दोपहर का बगीचा’ कहानी में भी प्रेम है-एकदम अलग अंदाज में। आनंद हर्षुल के यहां प्रेम वायवीय होकर आता है। हालांकि उनकी यह वायवीयता भी जमीन पर दिखाई देती है।
आनंद हर्षुल की कहानियों में कहीं भी कुछ बनावटी दिखाई नहीं देता। सब कुछ सहज है। यह भी साफ है कि उनके सरोकार आम आदमी से जुड़े हैं। वह कहानियों को दृश्यों में देखते हैं। ‘सवारी गाड़ी के दृश्य’ में वह मदारी के खेल दिखाते बच्चों की तकलीफ चित्रित करते हैं-बेहद मानवीय अंदाज में। संग्रह में कुल छह कहानियों के अलावा कुछ लघुकथाएं भी हैं। यहां भी उनका दर्शन और प्राथमिकता स्पष्ट दिखाई देती है। एक छोटी-सी लघुकथा है-‘खंडहर का देखना’। ‘वह बहुत अच्छा घड़ीसाज है। उसके स्पर्श से समय बहता है।
वह घड़ी को छूता है और समय नदी हो जाता है…समय झरना हो जाता है…पर एक घड़ी वह आज तक ठीक नहीं कर पाया: घर की घड़ी। बरसों हो गए हैं। अब घड़ीसाज बूढ़ा हो चुका है। घड़ी भी जर्जर है। दोनों एक-दूसरे को देखते हैं-जैसे एक खंडहर दूसरे को देखता है।’ इस छोटी सी लघुकथा में छोटे कारीगरों की तकलीफ दिखाई देती है। अन्य लघुकथाओं में भी आनंद हर्षुल के सरोकार आम आदमी और हाशिये के आदमी के प्रति साफ दिखाई देते हैं।
अधखाया फल कहानी संग्रह को पढ़ना कहानी की अपनी दुनिया को समृद्ध करना है। यह संग्रह जीवन की बहुतझ्रसी खिड़कियां पाठक के लिए खोलता है। मैं जिस भी लेखक की कहानियां पढ़ता हूं, हमेशा सोचता हूं कि अगर मैंने इस कहानी को लिखा होता तो ऐसे लिखता।
आनंद हर्षुल कहते हैं जब ‘मैं लिखता तो इस तरह लिखता’ की स्थिति नगण्य हो जाए तो कहा जा सकता है कि उससे बेहतर लिखने की नहीं सोच पाता। यकीन जानिए आनंद हर्षुल की कहानियां पढ़ने के बाद मैं यह कतई नहीं सोच पाया कि यदि इन कहानियों को मैं लिखता तो कैसे लिखता। साफ है इन कहानियों से बेहतर नहीं लिखा जा सकता।
सुधांशु गुप्त