डॉ.पवन शर्मा
होली का त्योहार प्यार और रंगों का वैदिक कालीन पर्व है।भारत में अनादिकाल से प्रत्येक ऋतु में एक न एक उत्सव मनाने की परम्परा चली आ रही है, किन्तु वसन्त ऋतु में तो उत्सवों का चरमोत्कर्ष मिलता है।होली पर्व को भारतीय तिथि पत्रक के अनुसार वर्ष का अन्तिम त्योहार कहा जाता है। यह पर्व फाल्गुन मास की पूर्णिमा को संपन्न होने वाला सबसे बड़ा त्योहार है।
होली क्या है?
होली नवसर्स्यष्टि है। नव-नई, सस्य-फसल, इष्ट-यज्ञ अर्थात नई फसल पर किया जाने वाला यज्ञ। इस समय आषाढ़ी की फसल में गेहूं, जौ, चना आदि का आगमन होता है। इनके अधपके दाने को संस्कृत में ‘होलक’ और हिंदी में ‘होला’ कहते हैं । शब्दकल्पद्रुमकोश के अनुसार ‘तृणाग्नि भ्रष्टार्द्धपक्वशमीधान्यं होलक:’। होला इति हिंदी भाषा।भावप्रकाश के अनुसार-अर्द्ध: पक्वशमी
धान्यैस्तृणभ्रष्टैश्च
होलक:।होलकोऽल्पानिलो भेद: कफदोषश्रमापह:। अर्थात तिनकों की अग्नि में भुने हुए अधपके शमीधान्य (फली वाले) अन्न को होलक या होला कहते हैं, जो अल्पवात है और चर्बी, कफ एवं थकान के दोषों का शमन करता है।
नई ऋतु का उत्सव
होली नई ऋतु का भी उत्सव है। अगले दिन चैत्र मास का प्रथम दिन है, जब बसन्त ऋतु आरम्भ होती है। बसन्त के आगमन पर हर्षोल्लास स्वाभाविक ही है। ऊनी वस्त्रों का स्थान सूती एवं रेशमी वस्त्र ले लेतें हैं। शीत के कारण जो व्यक्ति बाहर निकलने में संकोच कर रहे थे, वे अब निसंकोच होकर घूमने लगते हैं। सारा वातावरण नये नये फूलों की सुगन्ध से सुवासित होता है। सभी वृक्ष अपने पुराने पत्ते-पत्तियों का त्याग कर नये हरे पत्ते धारण करते हैं। इससे सारा वातावरण व उसका परिदृश्य मनमोहक व लुभावना बन जाता है।समाज के स्वस्थ जीवन के लिए व्यक्तिकी दिनचर्या में विनोद, हास और उल्लास के लिए भी कुछ क्षण आवश्यक हैं।उत्सव की इस सम्मोहनी शक्ति को हमारे द्रष्टा महर्षियों ने समझा था। उन्होंने यज्ञों में वसन्त को आज्य कहकर घोषित किया था।यथा ऋग्वेद का एक मन्त्र अवलोकनीय है-
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।
वसन्तो अस्यासीदाज्यं ग्रीष्म: इध्म: शरद्धवि।। (ऋग्वेद 10.90.6)
इन्हीं महर्षियों ने वसन्त माधुरी की मधुमयता से आनन्द विभोर हो मधुमास से अपने नववर्ष का प्रारम्भ करते हुए यजुर्वेद में परमेश्वर से प्रार्थना के रूप में कहा है कि हमारे लिए वायु मधु बनकर बहे, नदियाँ मधु-क्षरण करें, औषधियाँ मधुमयी हों। अर्थात् भूमि का कण-कण, आकाश, वनस्पतियां, सूर्य और हमारी गाएं सभी मधुमय हों। होली या वसन्तोत्सव का जो वर्तमान स्वरूप दिखाई पड़ता है वह हजारों वर्ष पुराना है। भारतवर्ष के पूर्व भाग में जो अनेक प्रकार की उद्यान-क्रीड़ाएं प्राचीनकाल में प्रचलित थी। वे इसी होली पर्व का ही एक अंग थीं। पाणिनि का ‘प्राचांक्रीणायां’ (6.2.72) सूत्र इनका परिचायक है। ‘वात्स्यायन’ ने उन्हें देश परम्परागत क्रीड़ाएं कहा है। फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से पूर्णिमा तक आठ दिन होलिकाष्टक नामक पर्व मनाया जाता था। होलिकोत्सव का वर्णन भविष्योत्तर पुराण में इस प्रकार किया गया है
अयं पंचदशी शुक्ला फाल्गुणस्य नाक्शाधित। शीतकालान्त सम्प्राप्तो प्रातर्मधु भविष्यति ॥
नाना रंगमयैर्वस्त्रै: चन्दना गुरु मिश्रितै:।
अबीरं च गुलालं च मुखे ताम्बूलभक्षणमं।
जल्पन्तु स्वेच्छया सर्वे निशंका यस्य यन्मतं।
तेन शब्देन स पापा होमेन च निराकृता ॥
अर्थात हे राजन! शीतकाल का अन्त है। इस फाल्गुनी पूर्णिमा के पश्चात प्रात: मुधमास होगा। सभी को आप अभय दीजिए। सभी रंग बिरंगे वस्त्र पहनकर चन्दन, अबीर और गुलाल लगाकर पान चबाते हुए एक-दूसरे पर रंग डालने के लिए पिचकारियाँ लेकर निकलें। जिनके मन में जो आए सो कहें। ऐसे शब्दों से तथा हवन करने से वह पापिनी (होलिका) नष्ट हो जाती है। चैत्र कृष्णा प्रतिपदा को सूर्योदय के पश्चात नित्य नियम से निवृत्त हो तर्पणादि कर होलिका की विभूति को धारण किया जाता था। विभूति स्वयं लगाकर एक दूसरे को लगाते-लगाते विनोद में एक-दूसरे पर उछालना आरम्भ हुआ होगा। होली का त्योहार आपसी सोहार्द व भाईचारे का प्रतीक है, क्योंकि हमारी संस्कृति वसुधैव कुटुम्बकम की भावना को मानने वाली संस्कृति है। रंग हमारे जीवन में पूरी तरह घुले-मिले हैं। धर्म में भी रंगों की मौजूदगी का खास उद्देश्य है। पूजा के स्थान पर रंगोली बनाना कलाधर्मिता के साथ रंगों के मनोविज्ञान को भी प्रदर्शित करता है। कुंकुम, हल्दी, अबीर, गुलाल, मेहंदी के रूप में पांच रंग तो हर पूजा में शामिल हैं। धर्म ध्वजाओं के रंग, तिलक के रंग, भगवान के वस्त्रों के रंग भी विशिष्ट रखे जाते हैं। ताकि धर्म-कर्म के समय हम उन रंगों से प्रेरित हो सकें, हमारे अंदर उन रंगों के गुण आ सकें। सूर्य की किरणों में सात रंग हैं। जिन्हें वेदों में सात रश्मियां कहा गया है-“सप्तरश्मिरधमत् तमांसि” (ऋग्वेद 4.50.4)।वेदों के अनुसार संसार में दिखाई देने वाले सभी रंग सूर्य की किरणों के कारण ही दिखाई देते हैं। सूर्य किरणों से मिलने वाली रंगों की ऊर्जा हमारे शरीर को मिले इसके लिए ही सूर्य को अर्घ्य देने का धार्मिक विधान है।
नई फसल का पर्व
होलिका पर्व अपने मूल रूप में वसन्तोत्सव और नई फसल का पर्व है। होली वस्तुत: किसानों के परिश्रम के फल का नया अन्न पैदा होने का त्यौहार है। नया अन्न सर्वप्रथम देवताओं को अर्पित करने की परम्परा भारत में प्राचीन काल से ही रही है, गीता में कहा है- ‘तैर्दत्तानप्रदायेभ्दो यो भुंक्ते स्तेन एव स:’। अर्थात देवताओं को चढ़ाए बिना जो स्वयं खा लेता है वह चोर है। इसलिए जब-जब नया अन्न पैदा होता था तब-तब एक इष्टि (यज्ञ) होता था। श्रौतसूत्रों में इस कृत्य को आग्रायण इष्टि कहा गया है। मनु ने इसे नवशस्येष्टि कहा है। प्राचीनकाल से आज तक भारत में होली को आनन्द के महोत्सव के रूप में मनाया जाता रहा है। सामाजिक रूप से इसे जनमानस की ऊंच-नीच की दीवार को तोड़ने वाला पर्व माना जाता रहा है। कृषक इसे लहलहाती फसल काटने का आनन्द-उल्लास का और भगवदीयजन इसे बुराई के ऊपर भलाई की विजय का पर्व मानते हैं। होली पर्व का मुख्य सन्देश है बुराइयों की, कटुताओं की, वैमनस्यता की, दुभार्वों की होली जलाई जाये, इनका दहन किया जाये और प्रेम का, सद्भाव का, सदाचार का रंग सब पर बरसाया जाए। इस प्रकार का जा सकता है कि होली परस्पर सौहार्द व भाईचारे का त्योहार है।