सेमीफाइनल हो गया और इंडिया ( कांग्रेस) गठबंधन 01-03 से हार गया। यहां भाजपा से लड़ाई में गठबंधन की तरफ से केवल कांग्रेस लड़ाई में थी। अन्य को उसने सीटों में एडजस्ट करने से मना कर दिया था। कुछ कटुता हुई किंतु भाजपा भय वाली मजबूरी ने इन सबको फिर से एक साथ रहने को बाध्य कर दिया। उनकी कोर कमेटी की बैठक भी कुछ ना नुकुर के बाद हो ही गयी और कुछ अंदरूनी और कुछ व्यवहारिक बातें की गयी तथा बाहर प्रेस कांफ्रेंस में सबने एक जुटता बनाये रखने का दावा किया।
अब यक्ष प्रश्न यह है कि क्या यह गठबंधन अपने आप में संपूर्ण है और क्या इसकी तैयारियां इतनी ठोस हैं कि 2024 के लोकसभा चुनाव में यह भाजपा गठबंधन को बराबरी की चुनौती दे सके? इस सवाल का जवाब़ देने से पहले हमें इस गठबंधन की संरचना को समझ लेना होगा। इस गठबंधन के प्रत्येक घटक का प्रभाव क्षेत्र अलग अलग है और इससे यह फायदा है कि इनमें आपस में बड़ा संघर्ष होने की ना के बराबर संभावना है। प्रत्येक राज्य में एक प्रमुख दल लड़ाई और जमीन में है और बाकी दल न्यूनतम उपस्थिति वाले हैं। उदाहरण स्वरूप हिमाचल, गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, असम, कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्र, केरला, ओडिशा में केवल कांग्रेस, उत्तरप्रदेश में समाजवादी, बिहार में राजद और जनता यू, तमिलनाडु में द्रमुक, बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, झारखंड में मुक्ति मोर्चा, कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस और महबूबा, पंजाब-दिल्ली में आप मुख्य दल हैं और ये ही दल भाजपा से टक्कर लेंगे।ये ही दल अपने में से कुछ सीटें निकाल कर अन्य सहयोगी दलों को देंगे। इस प्रकार सीट एडजस्टमेंट में कोई बड़ा विवाद नहीं रहेगा। हां, पंजाब, दिल्ली में आप बनाम कांग्रेस से विवाद हो सकता है। महाराष्ट्र में कांग्रेस के पास यह कहने को है कि उसमें कोई टूट नहीं हुई है जैसे कि एनसीपी और उद्धव ठाकरे शिवसेना करीब-करीब खाली हो गई हैं। यह तथ्य उसे सौदेबाजी में बढ़त देगा।
इंडिया गठबंधन का भविष्य इस बात पर अधिक निर्भर करेगा कि उनका कौनसा नेता नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के मुकाबले में आगे लाया जाएगा, क्योंकि आगे आने वाला संसदीय चुनाव चेहरे पर और प्रतिबद्ध कार्यकर्ताटों के बूथ मैनेजमेंट पर लड़ा जाएगा और दोनों ही मामलों में भाजपा मीलों आगे है। गठबंधन को इस फासले को पाटने का अभी से गहन प्रयास करना होगा। अभी छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस केवल अपने नकारा चुनाव मैनेजमेंट और बड़े नेताओं के अहंकार की वजह से ही चुनाव हारी है और उसकी जो अभी के हालात है, उससे यह नहीं लगता कि वो अपनी कार्यशैली को बदलने का कोई प्रयास भी कर रही है। गठबंधन के जो बाकी दल हैं, उनके पास एक लाभप्रद स्थिति यह है कि उन्हें अपने काडर और जातीय समूहों का स्थायी बल प्राप्त है जो चुनावों में काम आता है।
रही बात चेहरे पर चुनाव लड़ने की तो गठबंधन को कोई एक चेहरा संभावित प्रधानमंत्री के तौर पर रखना ही होगा। यह कहने से काम नहीं चलने वाला है कि सामूहिक नेतृत्व में चुनाव लड़ेंगे। जनता के सामने मोदी के रूप में एक लोकप्रिय और आजमाया हुआ चेहरा है। ऐसे में वो अन्य के पक्ष में वोट तभी करने को प्रेरित होगी जब एक ऊर्जावान चेहरा सामने होगा। इसमें शंका है कि खड़गे, पवार जैसे वयोवृद्ध लोग प्रमुख चेहरा बनकर मोदी से मुकाबला कर सकेंगे। यहां गठबंधन को राहुल, नीतीश, केजरीवाल, ममता में से कोई एक चुनना पड़ेगा जो अपने भाषण, ऊर्जा और चेहरे से वोटर को आकर्षित कर सके। इसमें अखिलेश, तेजस्वी, मायावती आदि जाति आधारित नेता भी फिट नहीं बैठेंगे। यदि गठबंधन के लोग जाति, वर्ग के आधार पर किसी को आगे लाने का प्रयास करेंगे तो मात खा जायेंगे क्योंकि आज तक के किसी भी लोकसभा चुनाव में जनता ने नायक की जाति देखकर वोट नहीं किया चाहे नेहरू, इंदिरा, राजीव, नरसिम्हा राव, मनमोहन सिंह हों या अटल, मोदी हों। केवल व्यक्तित्व की ओर आकर्षित होकर वोट पड़े हैं। जातिगत समीकरण विधानसभा चुनाव में काम करते हैं।
एक प्रबल समस्या इंडिया गठबंधन के सामने फंड की है। जब आप विराट संसाधनों से सुसज्जित और शासन में रह रहे दल से मुकाबले में आते हैं तो आपको कार्यकर्ताओं के साथ अपार धनराशि की आवश्यकता पड़ती है। बड़े कारपोरेट समूह अपने राजनैतिक चंदे का बड़ा हिस्सा केवल भाजपा को दे रहे हैं। अन्य घराने भी ईडी सीबीआई के डर से शायद ही विपक्ष को कोई सहयोग कर सकें। इस स्थिति में विपक्ष की जहां प्रदेश सरकारें हैं, वहीं से कुछ मदद मिल पाएगी। इनमें से भी कांग्रेस अपने फंड रेजर प्रदेश राजस्थान और छत्तीसगढ़ को खो चुकी है। हिमाचल छोटा राज्य है। बस जो सहयोग आना है वह कर्नाटक और तेलंगाना से आना है। हां बंगाल, तमिलनाडु, पंजाब और बिहार, झारखंड में यह दिक्कत कम रहेगी, क्योंकि वहां क्षेत्रीय दलों की सरकार है। सबसे बड़े फंड रेजर राज्य महाराष्ट्र में भाजपा समर्थक सरकार होने और शरद पवार तथा उद्धव ठाकरे के कमजोर पड़ जाने के कारण विपक्ष वहां सांस लेने के लिए संघर्ष कर रहा है।
जब चुनावी लड़ाई अपने चरम पर पहुंचेगी तब विपक्ष को भाजपा के संभावित राष्ट्रवाद एवं हिंदुत्व ब्रह्मास्त्र से निबटना पड़ेगा और इसके लिए उन्हें पहले से ही रणनीति बना कर रखनी होगी। विपक्षी नेता और मुख्यत: कांग्रेसी इस संदर्भ में आत्मघाती गोल करने में सिद्धहस्त हैं और समय-समय पर उन्होंने इसे साबित करके दिखाया भी है। ऐसे में उन्हें अनेक स्टालिनों, खड़गों, मौर्यों, दिग्विजयों, अय्यरों, चिदंबरों, खुशीर्दों को मौन रखना होगा। ये खीर बिगाड़ लोग हैं और सनातन धर्म, जाति, राष्ट्रवाद पर इनकी अनावश्यक टिप्पणियों से माहौल विपरीत जा सकता है। कांग्रेस को अधिक आवश्यकता इस बात की है कि वो अपने ओल्ड गार्ड्स को भाजपा की तरह रिटायरमेंट दे। कमलनाथ, दिग्विजय, सलमान खुर्शीद, अशोक गहलोत, हुड्डा, मुकुल वासनिक आदि अब पार्टी पर बोझ बन गए हैं। अन्य सभी दलों में अब अपेक्षाकृत युवा नेतृत्व जगह ले रहा है, किंतु कांग्रेस उस पुरानी और बुढ़ियाती पीढ़ी की कोटरी से बाहर निकलने को तैयार ही नहीं है। 80 साला बुजुर्ग खड़गे को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाकर वो नई पीढ़ी के मतदाताओं को आकर्षित नहीं कर पाएगी। उसे राहुल गांधी को नए कलेवर में तैयार करना होगा।
विपक्ष के लिए आगे आने वाले समय में महत्वपूर्ण बात यह है कि उसे देश की जनसंख्या के 80 प्रतिशत भाग का प्रतिनिधित्व करने वाले हिंदू मतदाता और उसके सनातन धर्म को आदर सम्मान का स्पर्श देना ही होगा। उसे तथा उसके प्रतीकों को नकार कर वह भारत में शासन नहीं कर सकता। यह एक सच्चाई है जो बीते वर्षों में अधिक स्पष्टता से दिखाई दे रही है। जातिगत आंकड़ों और अल्पसंख्यक वाद से कोई भी दल केंद्र की सत्ता में नहीं आ सकता।