दुनिया के कोने -कोने में बसे प्रवासी भारतीयों को अपनी मातृभूमि से जोड़ने के लिए प्रत्येक वर्ष 9 जनवरी को प्रवासी भारतीय दिवस मनाया जाता है। इस परम्परा की शुरुआत 2003 में पूर्व प्रधानमंत्री एवं भारत रत्न अटल विहारी बाजपेयी के कार्यकाल में प्रसिद्ध विधिवेत्ता डॉ. लक्ष्मीमल सिंधवी के प्रयासों के फलस्वरूप हुई थी। तब से लेकर आज तक यह निरन्तर जारी है। बीच के कुछ वर्षों में यह आयोजन अपने मूल उद्देश्य से भटक गया था। राजग सरकार ने प्रवासी भारतीय सम्मेलन को प्रेमोन्मुख बनाया था, लेकिन उसके बाद आयी सप्रंग सरकार ने इसके मायने ही बदल डाले थे। उसने इसे महज रस्म अदायगी का विषय बनाते हुए लाभ उन्मुख बना दिया। सप्रंग सरकार की नजरें केवल उन प्रवासियों पर रहती थी जो विदेशों में अच्छी धाक जमा चुके हैं और उन लोगों को नजरअंदाज करती रही है जो अफ्रीका, दक्षिणी अमेरिका एवं खाड़ी के देशों में अभी भी निचले स्तर पर जीवन यापन करने के लिए विवश हैं। लेकिन जब नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो उन्होने फिर से इसे अपने मूल ढर्रे पर ला खड़ा किया। उन्होंने अपने वक्तव्य में यह स्पष्ट कर दिया कि यह आयोजन केवल डॉलर और पाउण्ड की आमद के उद्देश्य से नहीं किया जाता अपितु अपने जनों के दिलों के मेल के लिए किया जाता है।
आज के समय में विश्व के सौ से अधिक देशों में बसे प्रवासी भारतीयों की संख्या 3.54 करोड़ आंकी गई है। एक अनुमान के मुताबिक विश्व का हर छठा प्रवासी भारतीय है। कई देशों में तो प्रवासी भारतीय वहां की औसत जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करने के साथ-साथ वहां की आर्थिक व राजनीतिक दशा दिशा को भी तय करते हंै । जहां भी भारतीय गये वहां पर उन्होने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। वे व्यापारी, शिक्षक, चिकित्सक, अधिवक्ता, अभियन्ता, वैज्ञानिक, अनुसंधानकर्ता, शासक एवं प्रशासक आदि के रूप में स्वीकार किए गए। विदेशी आर्थिक तंत्र को मजबूती प्रदान करने में भी भारतीय पीछे नहीं हैं। कुछ देशों में तो वहां की राष्ट्रीय आय में एक बड़ा हिस्सा प्रवासी भारतीयों का ही होता है। भारतवंशियों की इन्हीं सफलताओं के चलते भारत की छवि में दिन-ब-दिन निखार आ रहा है। अक्सर यह प्रश्न उठता है कि प्रवासी भारतीयों के इतने सशक्त एवं प्रभावी होने के बावजूद भी भारत के विकास में योगदान देने से क्यों हिचकिचाते हैं? वे चीनी प्रवासियों की तरह अपने मूल देश की तरक्की में बढ-़चढ़कर योगदान देने में पीछे क्यों हैं?
एक अनुमान के मुताबिक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में प्रवासी भारतीयों का हिस्सा महज 6 फीसदी है, जो चीन के मुकालबे बहुत ही कम है। एक सर्वे के मुताबिक चीन के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में प्रवासी चीनियों का 67 फीसदी हिस्सा है। अब सवाल यह खड़ा होता है कि क्या प्रवासी भारतीयों को अपने मूल देश से प्रवासी चीनियों के मुकाबले कम लगाव है? क्या वे मातृभूमि के प्रति अपने फर्ज को भूल गए हैं? यदि प्रवासियों के भारत के प्रति उदासीनता के कारणों का विश्लेषण किया जाए तो मालूम चलता है कि कमी उनके चरित्र में नहीं, अपितु हमारे राष्ट्रीय चरित्र में ही है। प्रवासी भारतीयों के चरित्र पर उंगली उठाने से पहले अपने गिरेबां में झांकने की जरूरत है। एक साधारण भारतीय चाहे वह देश में रहता हो या विदेश में अपने देश से समान लगाव रखता है। भारत के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में प्रवासी भारतीयों की कम भागीदारी के लिए हमारी सरकारी नीतियां ही सीधे तौर पर जिम्मेदार हैं। सरकार की नीतियों का निष्पक्ष एवं ईमानदारी से आंकलन करने से पता चलता है कि हालात उससे कहीं ज्यादा गंभीर हैं, जितना कि हम सोचते हैं। निवेश वहीं होता है जहां पर लाभ की गुजाइश होती है। यही कारण है कि अनिवासी भारतीय तो दूर निवासी भारतीय भी भारत में निवेश से कतराते हैं। पिछले 2-3 वर्षों से भारत के सभी बड़े औद्योगिक घराने विदेश में निवेश को ज्यादा तवज्जो दे रहे हैं और उनके टर्न ओवर का एक बड़ा हिस्सा विदेश में किए गए निवेश से आ रहा है।
कंगाली की चपेट से बहुत ही मुश्किल से हम 1991 में निकले थे और आर्थिक सुधारवाद की नीतियों पर चलते हुए 8 फीसद तक की औसत वृद्धि दर भी हासिल कर ली थी, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से एक के बाद एक हो रही गलतियों की वजह से आज फिर भारत आर्थिक संकट के दलदल में फंसता नजर आ रहा है। बजटीय घाटा का बढ़ना, रुपए का डालर के मुकालबे निम्न स्तर पर पहुंचना आदि कारणों ने आज हमारी हालत को ‘आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपया’ की कहावत से भी बदतर कर दिया है। आज आवश्यता यह है कि देश में आर्थिक हालात का जायजा लेने और सुधारवाद पर एक साधा न्यूनतम कार्यक्रम बनाने की, जिस पर राजनीतिक दलों की आमराय और स्वीकृित हो। कमाई नहीं होगी तो उस वर्ग का भला कैसे होगा जिसकी दुहाई देते हुए आर्थिक सुधारवाद के कार्यक्रमों का विरोध किया जाता है?
सरकार मौजूदा आर्थिक विपदा को एक अवसर में तब्दील करने का अगर संकल्प लेती है तो इससे प्रवासी एवं अप्रवासी दोनों को लाभ मिलेगा। एक बात और जो हमारे मन में उठ रही है वह यह है कि क्या हम अपने प्रवासी भाई-बंधुओं से अपना अधिक से अधिक आर्थिक हित साधने के लिए उनसे नाता रखना चाहते हैं? हमें यह याद रखना होगा कि पैसा ही सब कुछ नहीं है। प्रवासी भारतीयों से परस्पर ज्ञान और विज्ञान के विनिमय से भी भारत विकास के पथ पर तेजी से दौड़ सकता है। इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता है कि प्रवासी भारतीय अपनी प्रतिभा का पूरी दुनिया में फहराये हुए हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार नासा में कार्यरत 36 प्रतिशत वैज्ञानिक भारतीय मूल के हैं। अमेरिका के 38 प्रतिशत डॉक्टर भारतीय हैं। माइक्रोसॉफ्ट में काम करने वाले 34 प्रतिशत, आईबीएम में 28 प्रतिशत एवं इंटेल में 17 प्रतिशत भारतीय ही हैं। स्वदेश पैसा भेजने के मामले में भी भारतीय पहले नंबर पर हैं। विश्व बैंक की रिपोर्ट बताती है कि विगत वित्त वर्ष के दौरान भारतीयों ने अपने देश को कुल 56 अरब डॉलर की राशि भेजी है। भारत सरकार ने प्रवासी भारतीयों के लिए एक अलग मंत्रालय की स्थापना की है लेकिन सुविधाओं के अभाव में अभी तक इसके द्वारा प्रवासी भारतीयों के लिए काई कारगर पहल नहीं की गई।
प्रवासी भारतीयों को दोहरी नागरिकता देने का वादा भी अभी जस का तस है। मत देने का अधिकार जरूर दे दिया गया है लेकिन यह नाकाफी है। यदि प्रवासियों से किए गए वादों पर नजर डाला जाए तो एक लम्बी फेहरिस्त नजर आती है। अब वादों की फेहरिस्त लंबी करने की बजाए पूरा करने पर जोर दिया जाए तो निश्चय ही आने वाले समय में देश को इसका लाभ मिलेगा।