Monday, July 8, 2024
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ग्लोबल वार्मिंग का खेती पर असर

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Samvad 25


Pankaj Chaturvadi jpg 1पंजाब हरियाणा के गेहूं किसान इस बार ठगा सा महसमस कर रहे हैं, मार्च के पहले सप्ताह से ही जो गर्मी पड़नी शुरू हुई कि गेहूंद का दाना ही सिकुड़ गया। इंडियान ग्रने मेनेजमेंट एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट की टीम ने इन दोनों राज्यों के लगभग हर जिले में जा कर सर्वे किया तो पाया कि गेहंू का दाना कोई छी फीसदी सिकुड़ गया है। इससे कुल फसल के वजन पर 10 से 12 प्रतिशत की कमी तो आ ही रही हे, गुणवत्ता के तकाजे पर दोयम होने से इसके दाम कम मिल रहे हैं। उधर गोवा में काजू उत्पादक भी बेसमय गर्मी से फसल चौपट होने पर दुखी हैं। गेहूं के कमजोर होने का दायरा मध्य प्रदेश में भी व्यापक है।
कश्मीर में ट्यूलिप हो या सेबफल-आड़ू हर एक पर जलवायु परिवर्तन और वैश्विक तपन की मार तीखी पड़ रही है। जनवरी 1891 के बाद अर्थत लगभग 130 साल बाद कश्मीर में मार्च में इतनी गर्मी पड़ी है।

इस बार जनवरी-फरवरी में बर्फ भी कम गिरी व मार्च में बरसात नाममात्र की हुई। इसका असर है कि देश के कुल सेब उत्पादन का 80 फीसदी उगाने वाले कश्मीर में 20 से 30 प्रतिशत कम उत्पादन होने का अंदेशा हे। यहां पिछले साल 26 लाख टन सेब हुआ था। अकेले सेब ही नहीं, चेरी, आड़ू, आलू बुखारा जैसे फलों के भी गर्मी ने छक्के छुड़ा दिए हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि तीखी गर्मी से सेब की मिठास व रसीलेपन पर भी विपरीत असर होगा।

कृषि मंत्रालय के भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का एक ताजा शोध बताता है कि सन 2030 तक हमारे धरती के तापमान में 0.5 से 1.2 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि अवश्यंभावी है। साल-दर-साल बढ़ते तापमान का प्रभाव सन 2050 में 0.80 से 3.16 और सन 2080 तक 1.56 से 5.44 डिग्री हो सकता है। जान लें कि तापमान में एक डिग्री बढ़ोतरी का अर्थ है कि खेत में 360 किलो फसल प्रति हैक्टेयर की कमी आ जाना।

इस तरह जलवायु परिवर्तन के चलते खेती के लिहाज से 310 जिलों को संवेदनशील माना गया है। इनमें से 109 जिले बेहद संवेदनशील हैं जहां आने वाले एक दशक में ही उपज घटने, पशु धन से ले कर मुर्गी पालन व मछली उत्पाद तक कमी आने की संभावना है।

देश की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार कृषि है और कोरोना संकट में गांव-खेती-किसानी ही अर्थ व्यवस्था की उम्मीद बची है। आजादी के तत्काल बाद देश के सकल घरेलू उत्पाद में खेती की भूमिका 51.7 प्रतिशत थी जबकि आज यह घट कर 13.7 प्रतिशत हो गई हे।

यहां गौर करने लायक बात यह है कि तब भी और आज भी खेती पर आश्रित लोगों की आबादी 60 फीसदी के आसपास ही थी। जाहिर है कि खेती-किसानी करने वालों का मुनाफा, आर्थिक स्थिति सभी कुछ दिनों-दिन जर्जर होती जा रहा है।

भारत मौसम, भूमि-उपयोग, वनस्पति, जीव के मामले में व्यापक विविधता वाला देश है और यहां जलवायु परिवर्तन का प्रभाव भी कुछ सौ किलोमीटर की दूरी पर अलग किस्म से हो रहा है। लेकिन पानी बचाने और कुपोषण व भूख से निबटने की चिंता पूरे देश में एकसमान है। हमारे देश में उपलब्ध ताजे पानी का 75 फीसदी अभी भी खेती में खर्च हो रहा है। तापमान बढ़ने से जल-निधियों पर मंडरा रहे खतरे तो हमारा समाज गत दो दशकों से झेल ही रहा है।

प्रोसिडिंग्स आॅफ नेशनल अकादमी आॅफ साइंस नामक जर्नल के नवीनतम अंक में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार भारत को जलवायु परिवर्तन के कृषि पर प्रभावों को कम करते हुए यदि पोषण के स्तर को कायम रखना है तब रागी, बाजरा और जई जैसे फसलों का उत्पादन बढ़ाना होगा। इस अध्ययन को कोलंबिया यूनिवर्सिटी के डाटा साइंस इंस्टीट्यूट ने किया है।

कोलंबिया यूनिवर्सिटी के डाटा साइंस इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक डॉ कैले डेविस ने भारत में जलवायु परिवर्तन के कृषि पर प्रभावों, पोषण स्तर, पानी की कमी, घटती कृषि उत्पादकता और कृषि विस्तार के लिए भूमि के अभाव पर गहन अध्ययन किया है। उनके अनुसार भारत में तापमान वृद्धि के कारण कृषि में उत्पादकता घट रही है और साथ ही पोषक तत्व भी कम होते जा रहे हैं।

भारत को यदि तापमान वृद्धि के बाद भी भविष्य के लिए पानी बचाना है और साथ ही पोषण स्तर भी बढ़ाना है तो गेहूं और चावल पर निर्भरता कम करनी होगी। इन दोनों फसलों को पानी की बहुत अधिक आवश्यकता होती है और इनसे पूरा पोषण भी नहीं मिलता।

जलवायु परिवर्तन या तापमान बढ़ने का बड़ा कारण विकास की आधुनिक अवधारणा के चलते वातावरण में बढ़ रही कार्बन डाईआक्साइड की मात्रा है। ‘हार्वर्ड टीएच चान स्कूल आॅफ पब्लिक हेल्थ’ की ताजा रिपोर्ट बताती है कि इससे हमारे भोजन में पोशक तत्वों की भी कमी हो रही है। रिपोर्ट चेतावनी देती है कि धरती के तापमान में बढ़ोतरी खाद्य सुरक्षा के लिए दोहरा खतरा है। ‘आईपीसीसी’ समेत कई अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों में इससे कृषि उत्पादन घटने की आशंका जाहिर की गई है। इससे लोगों के समक्ष खाद्य संकट पैदा हो सकता है।

ताजा रिपोर्ट और बड़े खतरे की ओर आगाह कर रही है। दरअसल, कार्बन उत्सर्जन से भोजन में पोषक तत्वों की कमी हो रही है। रिपोर्ट के अनुसार कार्बन उत्सर्जन में बढ़ोतरी के कारण चावल समेत तमाम फसलों में पोषक तत्व घट रहे हैं। इससे 2050 तक दुनिया में 17.5 करोड़ लोगों में जिंक की कमी होगी, 12.2 करोड़ लोग प्रोटीन की कमी से ग्रस्त होंगे।

दरअसल 63 फीसदी प्रोटीन, 81 फीसदी लौहतत्व तथा 68 फीसदी जिंक की आपूर्ति पेड़-पौधों से होती है, जबकि 1.4 अरब लोग लौहतत्व की कमी से जूझ रहे हैं जिनके लिए यह खतरा और बढ़ सकता है।

शोध में पाया गया है कि अधिक कार्बन डाई-आॅक्साइड की मौजूदगी में उगाई गई फसलों में जिंक, आयरन एवं प्रोटीन की कमी पाई गई है। वैज्ञानिकों ने अपने प्रयोगों के जरिए इस बात की पुष्टि भी की है। रिपोर्ट में कहा गया है कि कार्बन डाई-आक्साइड पौधों को बढ़ने में तो मदद करती है, लेकिन पौधों में पोषक तत्वों की मात्रा को कम कर देती है। यह रिपोर्ट भारत जैसे देशों के लिए अधिक डराती है क्योंकि हमारे यहां पहले से कुपोषण एक बड़ी समस्या है।

जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण कृषि पर मंडराते खतरों के प्रति सचेत करते हुए ‘इंटरनेशनल सेंटर फॉर रिसर्च इन एग्रो-फारेस्ट्री’ के निदेशक डॉ. कुलूस टोपर ने भी अपनी रिपोर्ट में बताया है कि आने वाले दिन जलवायु परिवर्तन के भीषणतम उदाहरण होंगे जो कृषि उत्पादकता पर चोट, जल दबाव, बाढ़, चक्रवात व सूखे जैसी गंभीर समस्याओं को जन्म देंगे।

विभिन्न अध्ययनों के आधार पर यह तथ्य उभरकर सामने आया है कि यदि तापमान में वृद्धि होती है तो उत्पादकता में कमी आएगी। इसके अतिरिक्त वर्षा आधारित फसलों को अधिक नुकसान होगा, क्योंकि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण वर्षा की मात्रा कम होगी जिसके कारण किसानों को सिंचाई हेतु जल उपलब्ध नहीं हो पाएगा।


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