जब सृष्टि-चक्र का विराम होता है, तो व्यक्त प्रकृति क्रमश: सूक्ष्मतर होते-होते आकाश तत्व के रूप में विघटित हो जाती है, जिसे हम न देख सकते हैं और न अनुभव ही कर सकते हैं, किन्तु इसी से पुन: समस्त वस्तुएं उत्पन्न होती हैं। प्रकृति में हम जितनी शक्तियां देखते हैं|
जैसे, गुरुत्वाकर्षण, आकर्षण, विकर्षण अथवा विचार, भावना एवं स्नायविक गति- सभी अन्ततोगत्वा विघटित होकर प्राण में परिवर्तित हो जाती हैं और प्राण का स्पंदन रुक जाता है। इस स्थिति में वह तब तक रहता है, जब तक सृष्टि का कार्य पुन: प्रारंभ नहीं हो जाता। उसके प्रारंभ होते ही प्राण में पुन: कंपन होने लगते हैं। इस कंपन का प्रभाव आकाश पर पड़ता है और तब सभी रूप और आकार एक निश्चित क्रम में बाहर प्रक्षिप्त होते हैं।
मनुष्य की अन्तनिर्हित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है। ज्ञान मनुष्य में स्वभाव-सिद्ध है, कोई भी ज्ञान बाहर से नहीं आता, सब अन्दर ही है। हम कहते हैं कि न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण का आविष्कार किया। तो क्या वह आविष्कार कहीं एक कोने में न्यूटन की राह देखते बैठा था? नहीं, वरन उसके मन में ही था। जब समय आया, तो उसने उसे जान लिया या ढूंढ निकाला।
संसार को जो कुछ ज्ञान प्राप्त हुआ है, वह सब मन से ही निकला है। विश्व का असीम ज्ञान भंडार स्वयं तुम्हारे मन में है। जिसे हम गुरुत्वाकर्षण का नियम कहते हैं, वह न तो सेब में था न पृथ्वी के केन्द्रस्थ किसी वस्तु में।
समस्त ज्ञान अपने भीतर है
अत: समस्त ज्ञान, चाहे वह लौकिक हो अथवा आध्यात्मिक, मनुष्य के मन में है। बहुधा वह प्रकाशित न होकर ढका रहता है। और जब आवरण धीरे-धीरे हटता जाता है, तो हम कहते हैं कि हम सीख रहे है। ज्यों-ज्यों इस आविष्करण की क्रिया बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों हमारे ज्ञान की वृद्धि होती जाती है। जिस मनुष्य पर से यह आवरण उठता जा रहा है, वह अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक ज्ञानी है, और जिस पर यह आवरण तह-पर-तह पड़ा हुआ है, वह अज्ञानी है।
जिस पर से यह आवरण पूरा हट जाता है, वह सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हो जाता है। चकमक पत्थर के टुकड़े में अग्नि के समान, ज्ञान मन में निहित है और सुझाव या उद्दीपक-कारण ही वह घर्षण है, जो उस ज्ञानाग्नि को प्रकाशित कर देता है। सभी ज्ञान और सभी शक्तियां भीतर हैं। हम जिन्हें शक्तियां, प्रकृति के रहस्य या बल कहते हैं, वे सब भीतर ही हैं। मनुष्य की आत्मा से ही सारा ज्ञान आता है। जो ज्ञान सनातन काल से मनुष्य के भीतर निहित है, उसी को वह बाहर प्रकट करता है, अपने भीतर देख पाता है।
आत्मा में अनन्त शक्ति है
वास्तव में किसी व्यक्ति ने किसी दूसरे को नहीं सिखाया। हममें से प्रत्येक को अपने आपको सिखाना होगा। बाहर के गुरु तो केवल सुझाव या प्रेरणा देनेवाले कारण मात्र हैं, जो हमारे अन्त:स्थ गुरु को सब विषयों का मर्म समझने के लिए उद्धोधित कर देते हैं। तब फिर सब बातें हमारे ही अनुभव और विचार की शक्ति के द्वारा स्पष्टतर हो जाएंगी और हम अपनी आत्मा में उनकी अनुभूति करने लगेंगे।
वह समूचा विशाल वटवृक्ष, जो आज कई एकड़ जमीन घेरे हुए हैं, उस छोटे से बीज में था, जो शायद सरसों-दाने के अष्टमांश से बड़ा नहीं था। वह सारी शक्तिराशि उस बीज में निबद्ध थी। हम जानते हैं कि विशाल बुद्धि एक छोटे से जीवाणुकोष में सिमटी हुई रहती है। इसको जानना, इसका बोध होना ही इसका प्रकट होना है।
पारदर्शक आवरण
अन्त:स्थ दिव्य ज्योति बहुतेरे मनुष्यों में अवरुद्ध रहती है। वह लोहे की पेटी में बन्द दीपक के समान है- थोड़ा सा भी प्रकाश बाहर नहीं आ सकता। पवित्रता और नि:स्वार्थता के द्वारा हम अपने अवरोधक माध्यम की सघनता को धीरे-धीरे झीना करते जाते हैं और अन्त में वह कांच के समान पारदर्शक बन जाता है। श्रीरामकृष्ण लोहे से कांच में परिवर्तित पेटी के समान थे, जिसमें से भीतर का प्रकाश ज्यों-का-त्यों दिख सकता है।
-स्वामी विवेकानंद