सायंकाल का समय था। एक गाय जंगल में घास चर रही थी। सहसा उसने एक बाघ को अपनी ओर बढ़ते देखा। वह भयभीत हो भागने लगी। बाघ भी उसके पीछे दौड़ने लगा। भय से भागते-भागते गाय घबरा कर एक तालाब में उतर गई। पीछे-पीछे बाघ भी तालाब के अंदर घुस गया। तालाब में पानी कम और कीचड़ ज्यादा था। दोनों कीचड़ में धंसने लगे। दोनों के बीच की दूरी काफी कम थी।
परंतु दोनों ही कुछ भी कर पाने में असमर्थ थे। न गाय भाग पा रही थी न ही बाघ उसे पकड़ पा रहा था। वह गाय उस कीचड़ के अंदर धीरे-धीरे धंसने लगी। बाघ, गाय के करीब होते हुए भी उसको पकड़ने में लाचार था। देखते देखते दोनों ही करीब-करीब गले तक उस कीचड़ के अंदर फंस गए। गाय ने उस बाघ से पूछा, क्या तुम्हारा कोई गुरु या मालिक है? बाघ ने गुर्राते हुए कहा, मैं तो जंगल का राजा हूं।
मैं खुद ही जंगल का मालिक हूं। गाय ने कहा, लेकिन तुम्हारी उस शक्ति का यहां पर क्या उपयोग है? उस बाघ ने कहा, तुम भी तो फंस गई हो और मरने के करीब हो। गाय ने मुस्कुराते हुए कहा, बिलकुल नहीं। मेरा मालिक शाम को मुझे घर पर न पाकर ढूंढते हुए यहां जरूर आएगा और मुझे इस कीचड़ से निकाल कर अपने घर ले जाएगा। तुम्हें कौन ले जाएगा? थोड़ी ही देर में सच में ही एक आदमी वहां पर आया और गाय को कीचड़ से निकालकर अपने घर ले गया।
जाते समय गाय और उसका मालिक दोनों एक-दूसरे की तरफ कृतज्ञता पूर्वक देख रहे थे। वे चाह कर भी बाघ को नहीं निकाल सकते थे, क्योंकि उन्हें अपनी जान का खतरा था। आत्मनिर्भर होना अच्छी बात है, लेकिन अपने आप को सब कुछ मान कर अहंकार करना ही विनाश का आरंभ है। परम पिता परमेश्वर से बड़ा इस दुनिया में सच्चा हितैषी कोई नहीं होता।
प्रस्तुति: राजेंद्र कुमार शर्मा