जनवाणी ब्यूरो |
नई दिल्ली: सोमवार को यूपी चुनाव का आखरी दिन था। कसमें-वादे, घात-प्रतिघात, आरोप-प्रत्यारोप के बीच इस चुनाव में एक खूबसूरत तस्वीर तब बनती दिखी जब कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने 40 फीसदी महिलाओं को चुनाव में टिकट देने का वादा किया। कांग्रेस के मुताबिक पार्टी ने अपना वादा निभाया है। प्रियंका गांधी ने यह वादा करते हुए कहा था कि 40 फीसदी महिलाओं को टिकट देने का मकसद ज्यादा से ज्यादा महिलाओं को राजनीति में भागीदारी देना है।
प्रियंका गांधी ने कहा कांग्रेस चाहती है कि यूपी में ऐसी सरकार बने जिसमें महिलाएं बिजली बिल से लेकर बच्चों की फीस तक फैसला करे। बहरहाल चुनाव नतीजे 10 मार्च को आने वाले हैं और तभी साफ हो पाएगा कि कांग्रेस की 40 फीसदी महिला उम्मीदवारों में से कितनों को कामयाबी हासिल हुई? लेकिन इतना तय है कि कांग्रेस के इस कदम ने राजनीति में महिलाओं की भागीदारी और हिस्सेदारी देने के मामले में एक बढ़ते लेने की कोशिश की है।
राजनीति में महिलाएं कहां ?
हालांकि भारतीय राजनीति में अभी महिलाओं की स्थिति बेहद असंतोषजनक है। राजनीति में पर्याप्त महिलाएं अभी भी शामिल नहीं हो सकी हैं। अमर उजाला.कॉम पर लेखिका ऋतु सारस्वत ने हिलेरी क्लिंटन की किताब व्हाट हैपेंड का जिक्र किया है जिसमें लिखा है ‘यह पारंपरिक सोच नहीं है कि महिलाएं नेतृत्व करें या राजनीति के दांव-पेच में शामिल हों। यह न तो पहले सामान्य था और न ही आज। यह बात भारतीय राजनीति में महिलाओं की हैसियत को लेकर भी सटीक बैठती है।
‘ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट, 2021’ के मुताबिक विश्व भर में 35,500 संसदीय सीटों (156 देशों) में महिलाओं की उपस्थिति मात्र 26.1 प्रतिशत है। वहीं ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2020 के अनुसार, भारत राजनीतिक सशक्तिकरण के मामले में 18वें स्थान पर है।
महिलाएं, एक निर्णायक वोट बैंक
भले ही राजनीतिक दलों ने महिलाओं के हिस्से में ज्यादा कुछ नहीं रखा और अपना दिल बड़ा नहीं किया है, लेकिन बीते कुछ सालों में चुनाव में जीत-हार का निर्णायक फैसला देने की वजह से राजनीतिक दलों का ध्यान महिला मतदाताओं की तरफ जरूर गया है।
महिलाएं राजनीतिक रूप से लामबंद हो रही हैं और एक निर्णायक वोट बैंक के रूप में उभर रही हैं। एक दिलचस्प आंकड़ें के मुताबिक पिछले 57 वर्षों में महिलाओं के वोट प्रतिशत में करीब 19 फीसदी का इजाफा हुआ है।
जबकि पुरुषों के मतदान प्रतिशत में बमुश्किल चार फीसदी का इजाफा हुआ है। इस वजह से महिला वोट बैंक एक अहम मुद्दा साबित हो रहा है और राजनीतिक दल महिला मतदाताओं को एक उभरते हुए निर्वाचन क्षेत्र के रूप में देख रहा है।
वोटिंग में पुरुषों से आगे महिलाएं
एक दशक पहले, केवल लगभग 15 फीसदी महिलाओं ने अपने परिवार के पुरुष सदस्यों से प्रभावित हुए बिना स्वतंत्र रूप से मतदान किया। लेकिन अब, 50 फीसदी से कुछ अधिक महिलाएं स्वतंत्र रूप से मतदान करती हैं।
महिलाएं निश्चित रूप से पहले की तुलना में कहीं अधिक संख्या में मतदान कर रही हैं। वोटिंग में भी वे पुरुषों से आगे हैं। लिहाजा वे राजनीतिक दलों का ध्यान खींच रही हैं और सियासी पार्टियां उनके हिसाब से चुनावी वादे करने को मजबूर हो रही हैं।
महिलाओं को ध्यान में रखकर चलाए गए योजनाओं का फायदा मिला
सियासत में महिलाओं की अहमियत का अंदाजा अब इस बात से होने लगा है कि जिन पार्टियों ने महिलाओं को ध्यान में रखकर कुछ योजनाओं चलाईं या चुनावी वादे किए उन्हें इसका फायदा भी मिला।
जैसे भारतीय जनता पार्टी को उज्जवला योजना जैसे कार्यक्रम और तीन तलाक जैसे फैसलों से काफी फायदा हुआ। इसी वजह से 2019 के लोकसभा चुनाव में आधी-आबादी ने भाजपा पर भरोसा जताया था और पार्टी को महिलाओं का खूब समर्थन हासिल हुआ। 2019 में भाजपा फिर सत्ता में आई। भाजपा नेतृत्व भी इस बात को गहराई से समझता है कि आधी आबादी में विश्वास की भावना जगाए बगैर सत्ता को पाना मुश्किल है। लिहाजा इस चुनाव में भी पार्टी ने महिलाओं को रिझाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
नीतीश कुमार की जीत के पीछे ‘महिला शक्ति’
धीरे-धीरे लगभग सभी पार्टियां इस फॉर्मूले को फॉलो करने लगी हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तो महिलाओं को पंचायतों में 50 फीसदी आरक्षण देकर और शराबबंदी की घोषणा करके कथित तौर पर उनके ‘नायक’ साबित हुए।
नीतीश लंबे समय से महिला वोटरों की अहमियत समझ रहे हैं और वे बिहार में अपने महिला मतदाताओं को मजबूती से जोड़े रखना चाहते हैं। इसलिए चुनाव जीतने के बाद उन्होंने एक के बाद एक ऐसे सुधारवादी फैसले लिए हैं जिससे महिला मतदाताओं के बीच उनकी साख बनी रहे।
साल 2016 में ही नीतीश कुमार ने बिहार पुलिस में महिलाओं के लिए 35 फीसदी आरक्षण की घोषणा की थी। 2020 का विधानसभा चुनाव जीतने के बाद बिहार के मुख्यमंत्री ने राज्य के मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज में लड़कियों के लिए आरक्षण देने का फैसला किया।
उन्होंने जदयू में भी महिलाओं के लिए 33 फीसदी सीट आरक्षित कर दी है। पार्टी का दावा है कि देश में वही एकमात्र पार्टी है जिसने महिलाओं को आरक्षण दिया है। इससे पहले पंचायतों और सरकारी नौकरियों में भी महिलाओं को आरक्षण देकर वे महिला मतदाताओं का विश्वास हासिल कर चुके हैं।
जयललिता भी जीत गईं थीं महिलाओं का भरोसा
महिला मतदाताओं की बढ़ती अहमियत को देखते हुए तमिलनाडु की मुख्यमंत्री रहीं जयललिता ने भी उन्हें लुभाने के लिए महिलाओं से संबंधित स्कीमें लांच की थीं।
मुफ्त किचन अप्लायंसेज, यूनीफॉर्म और किताबें उनकी ऐसी ही घोषणाओं का नतीजा थीं। 2016 के चुनावों में उनकी इन घोषणाओं ने रंग भी जमाया था और उन्होंने जीत हासिल करने में सफलता पाई थी।
महिलाओं ने ममता पर भी ‘ममता’ दिखाई
इसी तरह ममता बनर्जी ने महिला मतदाताओं को रिझाने के लिए कई तरह की योजनाएं चलाईं। ममता ने महिलाओं और कन्याओं के लिए कन्याश्री, रूपाश्री, मातृत्व/शिशु देखभाल योजना, शिक्षा और विवाह के लिए नकद राशि का भुगतान, छात्राओं को मुफ्त साइकिल देना, विधवा पेंशन जैसी कई छोटी-बड़ी योजनाएं चलाईं जिससे महिलाओं ने उन पर अपना भरोसा बरकरार रखा।
वहीं अधिक से अधिक महिलाओं का वोट हासिल करने के लिए उन्होंने 2021 के विधानसभा चुनाव में 291 उम्मीदवारों में से 50 महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया था। लोकसभा चुनाव में ममता ने 41 फीसदी महिलाओं को टिकट दिया था। टीएमसी उन पार्टियों में है, जिसकी सबसे ज्यादा महिला सांसद हैं। वर्तमान में टीएमसी के लोकसभा में कुल 22 सांसद हैं, जिनमें से नौ महिलाएं हैं।
ओडीशा के सीएम भी पीछे नहीं
इसी तरह ओडीशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने पिछले लोकसभा चुनाव में 33 फीसदी महिलाओं को टिकट दिया। यही वजह है कि संसद में उनके कुल 12 सांसदों में 5 महिलाएं हैं। ओडीशा के पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय बीजू पटनायक पहले सीएम थे, जिसे पंचायत राज में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण दिया था। अब तो यह आरक्षण बढ़कर 50 फीसदी हो गया है।
यह भारतीय राजनीति में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी का संकेत है। हालांकि लोकसभा चुनाव में भाजपा ने महज 12.5 फीसदी और कांग्रेस ने महज 13.5 महिला उम्मीदवारों को ही चुनावी मैदान में उतारा।
मौका मिला तो लगा दी छलांग
कई सियासी पार्टियां महिलाओं को टिकट देने के मामले में कंजूसी करती हैं, क्योंकि महिलाओं को अक्सर ‘जिताऊ और टिकाऊ’ उम्मीदवार नहीं माना जाता है। इसलिए पार्टियां ज्यादा महिलाओं को मैदान में उतारने से परहेज करती हैं। लेकिन जहां कहीं भी महिलाओं को मौका मिला, अपनी कामयाबी साबित करने में वे पीछे नहीं रहीं।
राजनीतिक विश्लेषक मनीषा प्रियम के मुताबिक चुनाव में जब महिलाओं को टिकट मिलेगा तो चुनावी प्रक्रिया में वे मुखर होंगी। एक बार जब राजनीतिक प्रतिभा सामने आ जाएंगी तो उन्हें दबाना मुश्किल होगा।
पंचायतों में मिले आरक्षण ने साबित कर दिया
1992 के 73वें संवैधानिक संशोधन ने देश में ग्राम-पंचायत के मुखिया के एक तिहाई पद महिलाओं के लिए आरक्षित होने अनिवार्य कर दिया। इससे स्थानीय स्तर पर महिलाओं का राजनीतिक प्रतिनिधित्व बढ़ा।
इस नीति के प्रभाव पर विचार करने के लिए कई शोध किये गये हैं, जो यह बताते हैं कि ग्राम सरपंच के रूप में चुनी गई महिलाओं की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है। केंद्र सरकार ने 2017 के मानसून सत्र में संसद में बताया कि देश की पंचायतों में हैं करीब एक लाख महिला सरपंच हैं और इनकी सबसे ज्यादा संख्या उत्तर प्रदेश में है।
यूपी के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि जब 2021 के पंचायत चुनाव में बड़ी संख्या में महिलाओं ने जीत हासिल की है। विजयी महिला उम्मीदवारों ने ग्राम प्रधान से लेकर जिला पंचायत प्रमुख तक प्रमुख पदों पर पुरुषों को पछाड़ दिया। ब्लॉक प्रमुख के 75 पदों में से 42 पर आधी आबादी का कब्जा है और 31 हजार से ज्यादा महिलाएं अपने गांव की प्रधान बनी हैं। अब तो बात सांसद, विधायक, मंत्री और सूबे का मुख्यमंत्री बनने तक पहुंच गई है। राजनीति में महिलाओं ने हर चुनौतियों का सामना किया है।
आजादी के बाद सिर्फ एक महिला बनी ‘मंत्री’
भारत में आजादी के बाद पहली बार बनी जवाहरलाल नेहरू की सरकार में के 20 कैबिनेट मंत्रियों में सिर्फ एक महिला राजकुमारी अमृत कौर थीं, जिन्हें स्वास्थ्य मंत्रालय का जिम्मा दिया गया था।
आजादी के 75 सालों बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दूसरे कैबिनेट फेरबदल में महिलाओं का प्रतिनिधित्व और सम्मान दोनों बढ़ा है। पिछले साल जुलाई में हुए फेरबदल के बाद नरेंद्र मोदी सरकार में पहले के मुकाबले इस बार महिला मंत्रियों की संख्या लगभग दोगुनी हो गई है।
इस फेरबदल से पहले मोदी मंत्रिमंडल में केवल छह महिला मंत्री थी जिनकी संख्या अब बढ़कर 11 हो गई है। 2004 के बाद से केंद्र सरकार में अभी सबसे अधिक महिला मंत्री है। निर्मला सीतारमण वित्त मंत्रालय जैसे अहम मंत्रालय का कार्यभर देख रही हैं।
रेंगती हुई गति से बढ़ रहे
इस बार संसद में भी पिछली बार के मुकाबले ज्यादा महिला सांसद चुन कर आई हैं। 17वीं लोकसभा में कुल 78 महिलाएं चुनी गईं। भाजपा नेतृत्व ने 2014 के बाद से लेकर अब तक 8 महिलाओं को राज्यपाल और एलजी बनाया है।
पीआरएस इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक इस बार के लोकसभा चुनाव में 78 महिलाओं की संख्या अब तक की सबसे ज्यादा संख्या है। निश्चित तौर पर महिला उम्मीदवारों की संख्या में उछाल तो है, लेकिन ये रेंगती हुई गति से आगे बढ़ रही है।
अन्य देशों की तुलना में कम महिला सांसद
पहली लोकसभा में 24 महिलाएं थीं जो कुल उम्मीदवारों का 5 फीसदी है। 16वीं लोकसभा में 66 महिलाएं थीं जो कुल उम्मीदवारों का 12 फीसदी रहा। 2019 के लोकसभा में चुनाव में यह आंकड़ा महज 14 फीसदी पर पहुंचा है।
हालांकि, महिला सांसदों का प्रतिशत पिछले कुछ वर्षों में बढ़ा है, लेकिन कुछ देशों की तुलना में यह अभी भी कम है। रवांडा में ये संख्या 62 फीसदी, दक्षिण अफ्रीका में 43 फीसदी, ब्रिटेन में 32 फीसदी, अमरीका में 24 फीसदी और बांग्लादेश में 21 फीसदी है।
माना जाता है कि राजनीति में महिलाओं की नेतृत्व क्षमता अभी भी सर्वस्वीकार्य नहीं है और अक्सर पुरुष रिश्तेदारों के हस्तक्षेप के कारण कई सवाल उठाए जाते हैं। उदाहरण के लिए 2017 में, सपा ने 42 महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारा, जिनमें से केवल सात ही जीत सकीं।
ज्यादातर वे ही महिलाएं जीत कर आई हैं जिनका संबंध या तो बाहुबली या संपन्न परिवारों से है या जो किसी राजनेता के परिवार की पत्नी, बहू या बेटी हैं। एक अनुमान के मुताबिक यूपी, बिहार, महाराष्ट्र में अधिक संख्या में महिला उम्मीदवार राजनीतिक परिवारों से हैं।
ज्यादातर इस वजह से राजनीति में
वहीं अभी राजनीति में जो स्थापित महिला चेहरे हैं जैसे सोनिया गांधी, प्रियंका गांधी, मायावती, सुप्रिया सूुले, एम के कनिमोझी, कविता चंद्रशेखर राव, हरसिमरत कौर बादल, डिंपल यादव इनके बारे में माना जाता है कि वे राजनीति में अपने परिवार या मेंटॉर की वजह से एक जगह बनाने में कामयाब हो सकीं। यानी राजनीति उन्हें अपने पति, पिता या गुरु से विरासत में मिली है।
वहीं कुछ महिलाओं ने जमीनी संघर्ष करके राजनीति में अपना एक मुकाम हासिल किया है। इसमें ममता बनर्जी का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। कुछ महिलाएं ग्लैमर की दुनिया से निकलकर संसद और विधानसभा के गलियारे तक पहुंचीं हैं। जैसे जया बच्चन, जया प्रदा, हेमा मालिनी, स्मृति ईरानी। इसमें पश्चिम बंगाल फिल्म इंडस्ट्री की कई अभिनेत्रियां भी शामिल हैं। जैसे मुनमुन सेन और नुसरत जहां।
हालांकि जो महिलाएं बड़े दलों में जगह बनाने में कामयाब रहती हैं, उनके लिए पार्टी में शीर्ष तक पहुंचने का रास्ता बहुत मुश्किल होता है। दरअसल हमारा ध्यान अक्सर उन महिला नेताओं पर जाता है, जो आम तौर पर मीडिया की निगाहों में रहती हैं। लेकिन कई महिला नेता ऐसी हैं, जो जमीनी स्तर पर संघर्ष कर रही हैं और कई नए चेहरे अपनी जमीन तलाश रहे हैं। बहरहाल, महिलाओं की यह लड़ाई अभी लंबी है और उन्हें कई बाधाओं को पार करना है।