हाई स्पीड इंटरनेट की बढ़ती जरूरतों को देखते हुए आकाश से इंटरनेट सेवा लाने की दौड़ में अब अमेजन भी शामिल हो गया है। उसने तीन हजार से अधिक सेटेलाइट लांच करने का एक प्रोजेक्ट बनाया है। उसकी निगाह भारत के सबसे बड़े इंटरनेट बाजार पर है, जो एयरटेल और जीयो के लिए खतरे की घंटी बन सकती है। उनके सेटेलाइट पृथ्वी के सबसे निकटतम भू—स्थिर कक्षा यानी लो अर्थ आर्बिट (एलईओ) में स्थापित किए जाएंगे और फिर पृथ्वी के चारो ओर सेटेलाइटों के समूह का जाल बन जाएगा। इस सिलसिले में पिछले एक दशक से प्रयास जारी है। इंटरनेट स्पीड बढ़ाने से लेकर सभी जगहों पर उसकी सहज उपलब्धता को लेकर तरह—तरह के उपाय ढ़ूंढे जा रहे हैं। इन दिनों पूरी दुनिया में इंटरनेट के लिए समुद्र में केबल फैलाए गए हैं। तकनीक की दुनिया में अमेरिका की बादशाह बन चुकी मल्टीनेशनल कंपनियां इस मैदान में हैं। गूगल और फेसबुक से लेकर एलन मस्क की स्पेसएक्स तक इसमें शामिल हैं। हालांकि इनमें फेसबुक और गूगल को अप्रत्याशित सफलता नहीं मिली है, किंतु फेसबुक ने 2013 में अपना प्रोजेक्ट इंटरनेट डॉट ओआरजी शुरू किया था। आकाशीय इंटरनेट के लिए सेटेलाइट भी छोड़े। असफल हुए। भारी नुकसान हुआ।
इसी तरह से गूगल ने बैलून के जरिए इंटरनेट उपलब्धता का प्रयोग किया। उन्हें भी आशा के अनुरूप सफलता नहीं मिली। इस क्षेत्र से दोनों ने अपने हाथ खींच लिए। उसके बाद पिछले दिनों स्पेसएक्स सैंकड़ो सेटेलाइट के जरिए आकाश से इंटरनेट सेवा देने में सफलता की कुछ सीढ़ियां पार कर चुके हैं। उसकी योजना भी 2824 सेटेलाइट छोड़ने की है। अमेरिकी एयरोस्पेस कंपनी स्पेसएक्स को यूएस फेडरल कम्युनिकेशंस कमिशन स्टारलिंक उपग्रहों को निचली पृथ्वी की कक्षा में तैनात करने की मंजूरी मिल गई है।
स्पेसएक्स दुनिया को अपने ‘स्टारलिंक’ प्रोजेक्ट से जोड़ना चाहती है, जो छोटी सैटेलाइटों का एक सिस्टम है। उनके उपग्रहों का वजन करीब 200 किलोग्राम है और उन्हें अंतरिक्ष में 340 से 1150 किलोमीटर की ऊंचाई में स्थापित कर दिया जाता है। सैटेलाइटों की पहली किस्त के तौर पर 60 सेटेलाइटें इंस्टॉल कर मई 2019 में छोड़े जा चुके हैं। ये उपग्रह पूरे अमेरिका को ध्यान में रखेंगे। इसी तरह से एशियाई देशों को ध्यान में रखकर भी पिछले दिनों सेटेलाइट छोड़े गए हैं। पूरे विश्व में यह सेवा फैलाने के लिए स्टार लिंक को करीब 12,000 सैटेलाइटों की जरूरत पड़ेगी। इनकी अनुमानित लागत करीब 10 अरब अमेरिकी डॉलर की है। अमेजन के भारत में हाई-स्पीड सैटेलाइट इंटरनेट सेवाओं को लाने की दौड़ में शामिल होने को भारती समर्थित वन-वेब और एलोन मस्क के स्पेसएक्स के खिलाफ प्रतिस्पर्धा के नजरिए से देखा जा रहा है।
ग्लोबल ई—कॉमर्स की दिग्गज अमेजन भारत में हाई-स्पीड सैटेलाइट इंटरनेट सेवाएं शुरू करने की व्यापक योजना पर काम रही है। नाम ‘प्रोजेक्ट कुइपर’ दिया गया है। इसकी नींव अप्रैल 2019 में ही कुइपर सिस्टम्स एलएलसी अमेजॅन की एक सहायक कंपनी के तहत डाली गई थी। इसकी स्थापना तब ब्रॉडबैंड इंटरनेट कनेक्टिविटी प्रदान करने के लिए एक बड़े ब्रॉडबैंड उपग्रह इंटरनेट समूह को तैनात करने के लिए की गई थी। उन्हीं दिनों अमेजन ने घोषणा की थी कि वह इस परियोजना में उपग्रह इंटरनेट समूह को तैनात करने के लिए 10 बिलियन अमेरिकी डॉलर अर्थात करीब 64 हजार करोड़ रुपये का निवेश करेगा। इसके तहत कुल 3236 सेटेलाइट लॉंच किए जाने हैं।
अमेजन ने सेटेलाइट लांचिंग की सारी तैयारी के बाद भारत सरकार से संपर्क में है, ताकि विभिन्न कानूनी वैधता हासिल कर ले। इनमें खासकर इंटरनेट सेवाओं में अहम भूमिका निभाने वाले कारकों में तौर-तरीके, प्राधिकरण, परमिट, लैंडिंग अधिकार और उपग्रह बैंडविड्थ पट्टे की लागत आदि शामिल है। उल्लेखनीय है कि अमेजन को भारत में विदेशी उपग्रहों के संकेतों को डाउनलिंक करने के लिए लैंडिंग अधिकारों की भी आवश्यकता होगी, जो अंतरिक्ष विभाग द्वारा प्रदान किया जाएगा। यानि कि अमेजन को भारत में अंतरिक्ष विभाग (डॉस) और दूरसंचार विभाग (डीओटी) के साथ सहमति बनने एवं उनसे अनुमति मिलने पर ही सेटेलाइट सर्विस का इस्तेमाल भारत के लिए कर पाएगा। इसके लिए आवश्यक नियामक के अनुमोदन की जरूरत होगी और भारत के कानूनी दायरे में रहकर सेवाएं बहाल करने की इजाजत मिलेगी। तकनीकी तौर समझें तो पाएंगे कि अमेजॅन एलईओ उपग्रहों का एक तारामंडल बनाने की योजना पर काम कर रहा है। इसपर निर्धारित दस बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक की राशि में भारत में कितना निवेश होगा, इस पर उसने खुलासा नहीं किया है।
एक अहम सवाल है कि आकाश से बेतार इंटरनेट देने के लिए इतनी होड़ क्यों मची हुई है? इसका जवाब स्पेसएक्स, अमेजन और गूगल के पास है। उसके अनुसार इसमें सफलता मिलने पर इंटरनेट कनेक्टिविटी संबंधी दिक्कत हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी। उनकी मंशा धरती के चप्पे—चप्पे को इंटरनेट से जोड़ना है। साथ ही उसमें एकाधिकार वाले कारोबारी हित के छिपे होने से भी इनकार नहीं किया जा सकता। बहरहाल, ग्लोबल इंटरनेट एक्सेस की जब भी बात होती है तो विभिन्न देशों की बीच इसकी उपलब्धता में काफी अंतर की भी चर्चा होती है। करीब 96 फीसदी दक्षिण कोरियाई नियमित रूप से आॅनलाइन बने हुए हैं, जबकि सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक में सिर्फ 5 फीसदी लोग ही इंटरनेट इस्तेमाल करते हैं। इस अंतर को तारों के सहारे खत्म करना बहुत ही मुश्किल और खर्चीला है। इसी का उपाय निकाला गया है आकाश से आने वाला वायरलेस इंटरनेट।