उत्तराखंड के दरकते शहर जोशीमठ ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि हम जिसे विकास कहकर फूले नहीं समाते, दरअसल वह बेहद बेरहम विनाश ही है। ऐसा नहीं है कि जोशीमठ जैसी त्रासदियों पर किसी ने कोई चेतावनी नहीं दी, लेकिन मौजूदा विकास में गाफिल लोकतंत्र के विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया के स्तंभों ने इसे लगातार अनसुना ही किया है। उत्तराखंड का एक और ऐतिहासिक शहर जोशीमठ बर्बादी की कगार पर है। आदिगुरू शंकराचार्य की तपस्थली के लिए जाना जाने वाला यह नगर भू-धसाव की जद में है। सरकारी सर्वेक्षण के मुताबिक पिछले कुछ महीनों में दो बड़े होटलों समेत 600 से अधिक आवासीय संरचनाएं भू-धसाव से क्षतिग्रस्त हो चुकी हैं। यह सरकारी सर्वेक्षण का आंकड़ा है, वास्तविक क्षति इससे अधिक होने का अनुमान है। ‘बदरीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग’ का बड़ा हिस्सा भू-धसाव की चपेट में है।
लोगों के खेतों में हर दिन चौड़ी हो रही बड़ी-बड़ी दरारें पड़ी हैं। बीते दिनों मारवाड़ी के समीप जेपी कालोनी में अचानक एक जगह जलधारा फूट पड़ी है, इससे लोग घबराये हुए हैं। इस त्रासदी से सर्वाधिक प्रभावित जोशीमठ नगरपालिका के रविग्राम, गांधीनगर, मनोहरबाग, सिंहधार वार्डों में सबसे अधिक भू-धसाव देखा गया है। सुरक्षा की दृष्टि से अब तक कई परिवार अपने घरों को छोड़ चुके हैं। कुछ अपने परिचितों के यहां रह रहे हैं तो कुछ शरणालयों में रह रहे हैं। हालात ऐसे बन रहे हैं कि शरण लेने वालों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जाएगी।
शहर की तलहटी में बदरीनाथ से निकली तीव्र प्रवाह वाली अलकनन्दा और धौलीगंगा हैं। इसी तलहटी पर विष्णुप्रयाग में धौलीगंगा, अलकनन्दा नदी में मिलती है। विष्णुप्रयाग, जो उत्तराखण्ड के पांच प्रयागों में पहला प्रयाग है, जोशीमठ की ऐतिहासिकता का मूक गवाह है। धार्मिक और सांस्कृतिक शहर के साथ भारत-चीन सीमा के करीब यह सबसे बड़े नगरों में एक होने तथा अपनी विशिष्ट स्थिति से सामरिक दृष्टि से भी अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। नगर की मौजूदा पीड़ा के साथ देश की सुरक्षा से जुड़े ये पहलू भी उतने ही महत्वपूर्ण माने जा रहे हैं।
20 से 30 हजार की आबादी और एक दर्जन से अधिक गांवों की खुशहाली से जुड़े इस शहर के लिए भू-स्खलन और भू-धसाव की घटनाएं कोई नई नहीं हैं। इसकी बसावट और भूगोल में यह दंश छिपा है। यदि नया कुछ है तो वह इन खतरों की जानबूझकर अनदेखी करना है जिसके चलते जोशीमठ जैसे सदियों पुराने शहर के अस्तित्व पर ही सवाल खड़े होने लगे हैं। सैंतालीस साल पहले ‘नवभारत टाइम्स’ और ‘दिनमान’ में छपी रिपोर्ट इस बात की तस्दीक करती हैं। ‘नवभारत टाइम्स’ ने मार्च 1976 ‘चिपको आंदोलन’ के चंडीप्रसाद भट्ट की जोशीमठ की स्थिति और कारण तथा निराकरण को लेकर और ‘दिनमान’ ने जुलाई 1976 पर्यवरणविद् अनुपम मिश्र की भी इसी जोशीमठ शहर के भूस्खलन और भू-धंसाव को लेकर रिपोर्ट प्रकाशित की थीं।
इनमें आज से कुछ कम, लेकिन आज जैसी ही समस्या से दो-चार होते जोशीमठ के हालात पर लिखा गया था। जोशीमठ की बसावट को लेकर प्रख्यात भूगर्भवेत्ता हेम और गैंसर की रिपोर्ट का हवाला देते हुए कारण और बचाव पर चर्चा की गई थी। ‘नवभारत टाइम्स’ में छपी रिपोर्ट के बाद तत्कालीन उत्तरप्रदेश सरकार ने समस्या के निराकरण के लिए तत्कालीन गढ़वाल के आयुक्त महेशचंद्र मिश्र की अध्यक्षता में विज्ञानियों, तकनीकीविदों, प्रशासकों और चमोली की जिला पंचायत के अध्यक्ष और जोशीमठ के प्रमुख समेत 18 सदस्यीय समिति का गठन किया था।
इसमें चंडीप्रसाद भट्ट को भी सदस्य बनाया गया था। समिति के विज्ञानियों और तकनीकीविदों ने जोशीमठ के भूगर्भीय हालात और भौगोलिक स्थिति का भ्रमणकर भू-धंसाव और भू-स्खलन के कारणों का अध्ययन किया था।
‘मिश्रा-समिति’ द्वारा नगर के निचले हिस्से में दोनों नदियों की ‘टो-कटिंग’ आदि पर ध्यान दिया गया था, जिससे जोशीमठ की तलहटी से शुरू होने वाली पहाड़ी के ‘टो-सपोर्ट’ प्रभावित होने से भू-स्खलन और भू-धसाव सक्रिय हो जाते हैं।
‘हिलवासिंग’ और ‘जलरिसन’ जो शीतकाल में बर्फ के साथ शुरू होता है, उन कारणों में एक बताया गया था जिससे जोशीमठ में भू-धंसाव हो रहा था। इस प्रक्रिया में बर्फ का पानी धरती के अंदर रिसता है जिससे मिट्टी और बौल्डर्स की आपसी पकड़ कमजोर हो जाती है। इस सबके साथ जोशीमठ नगर में अनियोजित विकास को बड़ा कारक माना गया था। वर्ष 62 के भारत-चीन युद्ध के बाद निर्माण गतिविधियों में तेजी आई थी जिसके लिए विस्फोटक आदि का उपयोग हुआ था।
इन संरचनाओं के निर्माण में विस्फोटक के उपयोग के साथ-साथ अवशिष्ट जल की निकासी की उचित व्यवस्था पर ध्यान न दिया जाना भी एक कारण था। जोशीमठ के प्राकृतिक वन इन निर्माण और विकास गतिविधियों की भेंट चढ़े थे। जिस पहाड़ी पर जोशीमठ नगर बसा है वह मूल रूप में ‘जिनेसिस श्रेणी’ की चट्टान हैं जो एक परत के ऊपर दूसरी परत होती है। इन सारे कारकों के असर से ये परतें दूसरी परत से अलग हुईं और इससे भू-धसाव और भू-स्खलन की प्रक्रिया तेज हुई।
‘मिश्रा-समिति’ ने जोशीमठ नगर का जीवन बचाने के लिए 47 साल पहले जो सुरक्षात्मक उपाय बताए थे वे आज भी उसी तरह प्रासंगिक हैं। भारी निर्माण कार्यों पर पूर्ण रोक, आवश्यक निर्माण कार्यों के लिए भूमि की भारवहन क्षमता के आधार पर निर्माण की अनुमति, सड़क और अन्य संरचनाओं के निर्माण के दौरान बौल्डर्स के खोदने और विस्फोट से हटाने जैसी प्रक्रिया पर पूरी तरह रोक लगाने, नदी तट से पहाड़ी की ओर पत्थरों की निकासी न करने, जोशीमठ के निचले हिस्से में वनीकरण तथा संरक्षित क्षेत्र में हरियाली का दायरा बढ़ाने के तब के सुझाव आज भी प्रासंगिक हैं।
‘मिश्रा-समिति’ ने जहां-जहां दरारें थीं उन्हें भरने, नैनीताल की तर्ज पर नालियों की व्यवस्था करने जिससे भू-कटाव की संभावना कम हो जाय, गड्डों में पानी जमा होकर रिसे नहीं इसके लिए गड्डेनुमा संरचना को पूरने की व्यवस्था करने, नगर के भीतर और बाहर से लाए गए साफ तथा गंदे पानी और मल की निकासी की उचित व्यवस्था के साथ ही नदी तट पर ‘टो-कटिंग’ वाले इलाकों में इंजीनियरिंग वर्क की संस्तुति की थी।
‘मिश्रा-कमेटी’ के कुछ सुझावों पर राज्य सरकार ने तभी कार्य शुरू कर दिया था, खासतौर पर इंजीनियरिंग से जुड़े कुछ कार्य शुरू किए गए थे, लेकिन निरोधात्मक कार्यों पर कभी ईमानदारी से कार्य नहीं हुआ। भारी निर्माण कार्य बदस्तूर चलते रहे। विस्फोटकों का उपयोग निर्माण कार्यों के लिए अभी भी उसी गति से हो रहा है। निर्माण कार्य के लिए भूमि की ‘भार-वहन क्षमता’ का भी कभी आकलन नहीं हुआ।
आबादी बढ़ने के साथ बाहर से पाईपों से पानी पहुंचाया गया, लेकिन निकासी की व्यवस्था में उस गति से कोई नई संरचना नहीं बनी। आज 1976 के मुकाबले आबादी कई गुना बढ़ गई है, लेकिन सीवर से लेकर पानी की निकासी की व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं आया है।
प्रख्यात पर्यावरणविद और जोशीमठ को बचाने के लिए 1976 में डेढ़ माह तक जोशीमठ के मारवाड़ी में एक सौ पचास छात्रों के साथ पौधरोपण शिविर का अयोजन करने वाले चंडीप्रसाद भट्ट कहते हैं कि 7 फरवरी 2021 को तपोवन हादसे के दौरान धौलीगंगा में जो उफान आया था, उसने जोशीमठ की तलहटी में पहले धौली के तट को और फिर अलकनन्दा के तट पर विष्णुप्रयाग से मारवाड़ी पुल तक को ‘टो-कटिंग’ से अस्थिर कर दिया था।
उस इलाके में, उस दिन कुछ मिनट के लिए नदी का पानी दस से बीस मीटर तक ऊपर उठ गया था और तटवर्ती पहाड़ी की मिट्टी भी काटकर अपने साथ ले गया था। इससे मिट्टी खिसकने की प्रक्रिया शुरू हुई, जिसका असर जोशीमठ नगर पर दिखायी दे रहा है।
इसके साथ ही औली में हो रहे निर्माण में भी इलाके की संवेदनशीलता को ध्यान में नहीं रखा जा रहा है। औली में कृत्रिम बर्फ बनाने के लिए बाहर से पानी लाया गया है, झील बनायी गई है। ‘मिश्रा-समिति’ ने बौल्डर्स हटाने पर रोक की सिफारिश की थी जो लागू नहीं हुई। इसी के नीचे से बड़ी परियोजनाओं की सुरंग बन रही है। धरती के बाहर और भीतर दोनों जगहों पर खतरों की जानकारी होने के बाद भी दुस्साहस किया जा रहा है।
‘मिश्रा-समिति’ के सुझाव आज भी प्रासंगिक है। इन्हें लागू किया जाना चाहिए जिससे कुछ हद तक स्थिति फिर से ठीक हो सकती है। पीड़ित जोशीमठ आज सड़कों पर है और पुनर्वास व दीर्घकालिक उपायों को लागू करने की बात कर रहा है। बालू और पत्थरों के ढेर पर बसे इस शहर को सरकार से ज्यादा वहां के लोग ही बचा सकते हैं। वे ‘मिश्रा-समिति’ के सुझावों का कड़ाई से पालन हो, इसके लिए दबाव बना सकते हैं। अन्यथा उत्तराखण्ड के सैकड़ों गांव उत्तरकाशी के बागी जैसे गांव की स्थिति में आ जायेंगे जिसके सारे घर भू-धंसाव के कारण धरती के गर्भ में समा चुके हैं।