
इस साल जब कोरोना लॉकडॉउन खुला तो खेती-किसानी के नए कानून, लुटियंस दिल्ली में खड़ी संसद में लॉक होने जा रहे थे। बाद में सरकारी दस्तावेजों में दर्ज कानूनों को आखिर विरोध का सामना करना ही पड़ा। इसका अंदाजा सरकार को नहीं था और कानून के विरोध को हंसी-खेल मान लिया गया था। नतीजे में नए कृषि कानूनों की मुखालिफत हर दिन बढ़ती गई। मात्र तीन हफ्तों में खेती के कानूनों का हल्ला गांवों की चौपाल तक पहुंच गया। सरकार के साथ सत्ताधारी संगठन भाजपा ने अभियान चलाते हुए कानून के फायदे गांव-गांव में चौपाल लगाकर बताने की मुहिम छेड़ी है। किसी भी सरकार द्वारा विरोध का जवाब देने का इससे बेहतर प्रयास क्या होगा? लेकिन सरकार को यह काम कानून बनाने के पहले करना था। अब मजबूरी वश करना पड़ रहा है तो भी इससे खेती-किसानी का ही फायदा है। दोनों ओर से सोते-जागते, उठते-बैठते सारा जोर खेती पर है। राष्ट्र के केंद्र में इस तरह खेती शायद पहली बार आई है।
आंदोलन द्वारा सरकार के विरोध और सरकार समेत सत्ताधारी पार्टी द्वारा आंदोलन के खिलाफ मोर्चा लेने से खेती के प्रति देशभर में बड़ा जनजागरण हो गया है। दोनों मामलों में खेती किसानी की बेहतरी ही है। यह भी कह सकते हैं कि किसान आंदोलन ने सरकार के साथ राजनीतिक दलों व नौकरशाहों सहित सबको खेती के महत्वपूर्ण काम से लगाने का ऐतिहासिक काम कर दिया है। कानूनों और आंदोलन का जो भी हो, पर फिलहाल यह किसानों की बड़ी जीत है। तमाम मुसीबतों से जूझते आंदोलन की अहिंसात्मक एकजुटता की मजबूत ताकत ने देश को खेती की महत्ता व गांवों की असीम शक्ति का एहसास करा दिया है। किसानों के आगे इस कथित मजबूत सरकार की लाचार स्थिति देख गांव, खेत व किसान से दूर होती युवा पीढ़ी और देश की जनता को खेती-बाड़ी की अनिवार्यता अच्छी तरह समझ आ गई है। अंग्रेजों द्वारा खेती को जान-बूझकर उपेक्षित किया गया था। आजादी के बाद भी खेती-किसानी का गला घोंटने की नीतियां बनाना ही सरकारी शगल बना हुआ था। आजाद भारत में ‘जी-हुजूरी’ में रत नौकरशाही के एक बड़े तबके पर अंग्रेजों की मानसिकता हावी है। किसानों के हित में किसानों से सलाह-मशविरा किए बिना आधे-अधूरे कानून बनाना किसानों के प्रति सरकार की गंभीरता में कमी दर्शाता है।
फसलों के ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ (एमएसपी) की तरह ही इस समय राजनीतिक दलों (सत्ताधारी और विरोधी पक्ष) के लिए खेती न्यूनतम राजनैतिक वोट हासिल करने का सबब बन गई है। ‘इंडिया’ की सरकार, समाज और मीडिया सहित देश की नजरों में ‘भारत’ राष्ट्र के गांव, खेत, खलिहान व किसान कल तक दोयम दर्जे के रहे थे, पर आज किसानों के सड़क पर आते ही दृश्य बदल गया है। इस मायने में, सरकार के साथ बंदर-गुलाटी खाते मीडिया में हिकारत भरी नजरों से देखी जाने वाली खेती को किसान आंदोलन ने प्राइम टाइम का हाई प्रोफाइल ईश्यू बना दिया है। मीडिया को अच्छे से समझ आ गया है कि खेती-किसानी दोयम नहीं, वरन देश की आवाज के साथ टीआरपी व करोड़ों के सरकारी विज्ञापनों की फसल बटोरने वाली बड़े उपभोक्ता बाजार की दूध देती गाय है।
खेती के नए कानून के खिलाफ खड़े किसानों की मुखालिफत में केंद्र सरकार व भाजपा के सलाहकार परम्परागत कोशिशों से प्रायोजित प्रपोगंडा के साथ मैदान लड़ा रहे हैं। दूसरी ओर, अपने हितों व व्यवसायिक स्वार्थों की खातिर उत्तर-भारत के छोटे, बड़े, मझौले किसान, मजदूर, आढ़तिये, व्यापारी सभी किसान आंदोलन का हिस्सा हैं। वामपंथ, मध्यपंथ आदि के खुले समर्थन और दक्षिण पंथीय एक बड़े किसानी वर्ग का मौन समर्थन भी आंदोलन की प्रमुख मांगों के साथ है। किसानों के साथ लाल, हरा, केसरिया, सफेद (गांधीवादी) सभी रंग प्रत्योक्ष या परोक्ष रूप से घुले-मिले हैं। सरकार के संकटमोचक इस पर चाहे ‘लाल’ या ‘हरा’ रंग पोतें, राष्ट्रवादी किसान बेफिक्र नजर आते हैं।
इसमें कोई दो मत नहीं कि सरकार वाकई में खेती की खातिर आमूलचूल बदलाव चाहती है। माना जा सकता है कि नए कानूनों की रचना इसी मकसद से हुई हो। फिर कमी कहां रह गई? लगता है हर समस्या का हल पूंजीवाद पर टिके निजीकरण को मानने वाले अर्थशास्त्रियों व नौकरशाही ने जमीनी सच्चाई से आंख मूंदकर कानून बनवा दिए। इन लोगों ने नए विचार व ठोस उपाय ढूंढ़ने की तकलीफ नहीं उठाई। इसके बजाए पुरानी सरकारों के जमाने में खेती की बेहतरी के लिए बनी आधी-अधूरी सिफारिशी रिपोर्ट्स व देशी-विदेशी कॉरपोरेट घरानों के हाथ खेत-खलिहान की सुरक्षा की कल्पना को आधार बना लिया। सरकार ने, हो सकता है, गुजरात जैसे एक राज्य में आजमाए खेती-किसानी के पुराने मॉडल को पूरे देश के लिए उपयुक्त मान लिया हो। जबकि भौगोलिक रूप से विविध कृषि-जलवायु क्षेत्रों में फैले देश के लिए एक राज्य के प्रयोग कारगर नहीं हो सकते हैं। इसलिए किसानों से सलाह-मशविरा किए बिना कानून बनाने के परिणाम से अफसर व सत्ताधारी नेता बेखबर रहे। यही कारण है कि अब सरकार उहापोह की स्थिति के साथ कठघरे में है। ऐसा इसलिए भी कि आरएसएस के प्रमुख किसान संघ के बड़े पदाधिकारी के हवाले से प्रकाशित समाचार में कहा गया है कि कानून बनाने के समय हमने सुझाव रखने की कई कोशिशें कीं, पर अफसर मिलने का समय तक नहीं देते थे। यही नहीं, जो सुझाव भेजे गए उन पर भी बात नहीं की, न ही कोई जवाब दिये। जाहिर है, कहीं-न-कहीं बड़ी गड़बड़ हुई।
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