Monday, July 8, 2024
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नजरिया: खेती में कीटनाशकों प्रयोग बन रहा घातक

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डॉ. महक सिंह
डॉ. महक सिंह
हरित क्रांति से कृषि में समृद्धि तो आई परंतु इसका हानिकारक प्रभाव भी पड़ा। खेती में बढ़ते जहरीले रसायनों और कीटनाशकों के बढ़ते प्रयोग से मनुष्य, पर्यावरण, पशु और भूमि के स्वास्थ्य पर भी इसका प्रभाव दिख रहा है। समय-समय पर सरकार इन कीटनाशकों की जांच कर इनसे होने वाले हानिकारक प्रभाव को देख प्रतिबंधित भी करती है। हाल में सरकार ने 27 कीटनाशकों को रोक के लिए प्रतिबंधित किया है। इसके खिलाफ कीटनाशक निर्माता लॉबी कोर्ट चली गई। अब यह यह प्रतिबंध कानूनी दांव पेंच में उलझ गया है।
फसलों में प्रयोग किए जाने वाले जहरीले रसायनों में से 27 कीटनाशकों को प्रतिबंधित करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा नोटिफिकेशन जारी कर दिया गया है। जहां आम नागरिक इसके पक्ष में हैं, वहीं हजारों-करोड़ों रुपये का कारोबार करने वाली कंपनियां प्रतिबंध से खाद्य सुरक्षा का हवाला देकर इसे रुकवाने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगा रही हैं। इन कीटनाशकों को विदेशों में प्रतिबंधित किया जा चुका है। भारत में यह प्रक्रिया 2013 से चल रही है, परंतु सरकार पेस्टीसाइड लॉबी के दबाव में इसे लागू न करने के दबाव में है। ये कीटनाशक यूरोपीय देशों में मनुष्यों और मधुमक्खियों के लिए हानिकारक हैं। वहीं विकासशील देशों भारत व ब्राजील में आराम से अपने रसायन बेच रही हैं। भारत में बेचे जाने वाले रसायनों में 59 प्रतिशत अत्यधिक हानिकारक श्रेणी में आते हैं, जबकि ब्राजील में 47 प्रतिशत, चीनी में 31 प्रतिशत, थाईलैंड में 47 प्रतिशत, अर्जेंटीना में 47 प्रतिशत, वियतनाम में 44 प्रतिशत प्रतिबंधित हैं। 2019 में विकासशील देशों में यह आंकड़ा 43 प्रतिशत और विकसित देशों में यह आंकड़ा 27 प्रतिशत है। भारत में कीटनाशकों की अधिक खपत महाराष्ट्र में किसान कपास उत्पादन में करते हैं। इसके बाद यूपी व पंजाब का नंबर है। लचर कानूनों से विकासशील देशों में कंपनियां अपने उत्पाद बेच रही हैं। महाराष्ट्र में पिछले तीन वर्षों से जुलाई से अक्टूबर के बीच किसानों के कीटनाशक पोइजिनिंग के केस बढ़ रहे हैं। यह मौसम कपास की खेती का है। कपास की खेती में कीटनाशकों का अधिक प्रयोग (6 से 7 बार) किया जा रहा है।
सच्चाई यह है कि 30 प्रतिशत कीटनाशक फसल और कीट पर जाता है, 70 प्रतिशत हवा में रह जाता है। इसकी चपेट में आकर किसान कैंसर जैसी बीमारियों से पीड़ित हो जाता है। किसान दुकान से लेकर कीटनाशक डाल देता है और उसे वैज्ञानिक सलाह नहीं मिलती। किसानों को अधिक पैदावार के लिए हाईब्रिड और जीसम बीज बोने का सुझाव दिया जाता है, जिसमें रासायनिक खादों और कीटनाशकों का और अधिक प्रयोग होता है। पंजाब में भटिंडा कैंसर सिटी बन गया है और किसानों में त्वचा रोग की संख्या अधिक है। इससे कई किसान आत्महत्या भी कर रहे हैं। पश्चिमी उड़ीसा में खतरनाक पेरावेट के प्रयोग से मुंह, स्तन, गर्भाश्य कैंसर के मामले सामने आ रहे हैं। 80 प्रतिशत किसान बिना सही वैज्ञानिक जानकारी के कीटनाशक व रसायनों का प्रयोग कर रहे हैं। 20 प्रतिशत किसान ही कृषि विशेषज्ञों की सलाह पर कीटनाशकों का सही प्रयोग करते हैं। अनाज की फसल से फल और सब्जियों पर कीटनाशकों का अधिक प्रभाव पड़ता है। कीटनाशक के अधिक प्रयोग से बच्चों में कैंसर होने की आशंका अधिक होती है। ग्रीन पीस आॅफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार कीटनाशक बच्चों को दीमक की तरह खोखला कर देते हैं। बच्चों का मानसिक विकास भी धीमा हो जाता है।
वर्ष 2017-18 में देश भर में 27 प्रयोगशालाओं में सब्जियों, फलों, मसाले, चावल, गेहंू, दाल, दूध, मछलियों, मांस आदि के 23,660 नमूनों की जांच में 4510 में कीटनाशकों के अंश पाए गए। लोकसभा में 9 जुलाई 2019 में कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने बताया था कि वर्ष 2014-15 के दौरान किसानों से 2950 (2.5 प्रतिशत) नमूनों में निर्धारित सीमा से अधिक रसायनों का अवशेष पाया गया। विशेषज्ञ कहते हैं कि किसान फसलों में अधिक कीटनाशकों का प्रयोग कर रहे हैं और उनके अवशेष अनाज, फल, सब्जी और अन्य माध्यमों से मानव शरीर में इकट्ठा हो रहे हैं। सबसे अधिक खतरनाक कीटनाशक सब्जियों और दूध के माध्यम से पहुंचते हैं। कीटनाशक चारे के द्वारा पशुओं में पहुंचता है और वसा में इकट्ठा होता रहता है।  भारतीय कृषि अनुसंधानशाला के वैज्ञानिक किसानों को दोषी मानते हैं। उनके अनुसार कीटनाशक डालने का उचित समय तक प्रतीक्षा के बाद ही किसानों को फसल काटनी चाहिए। किसान पकी फसल पर भी कीटनाशक डाल देते हैं।
वर्तमान खेती में कीटनाशक ही नहीं, फफूंदीनाशक एवं असंतुलित उर्वरक, फसलों के अवशेष जलाने, सिंचाई के गलत तरीके से उत्पादन घटा और व्यय बढ़ा है। इसलिए खेती में बदलाव की आवश्यकता है। किसानों को जैविक खेती प्रारम्भ करनी चाहिए, उर्वरकों का संतुलित और फसल की आवश्यकतानुसार प्रयोग करना चाहिए। वर्तमान में भूजल में तेजी से गिरावट पर काबू पाने के लिए टपक और बौछार सिंचाई विधि अपनानी चाहिए। फसल के अवशेषों को जलाना नहीं चाहिए, इन्हें खेत में रिसाइकिलिंग करना चाहिए। हरी खाद से भूमि की उर्वरता बढ़ाई जाए। यदि जमीन, गाय और स्वास्थ्य को बचाना है तो प्राकृतिक और स्वयंपोषित खेती को अपनाना होगा। इसके अतिरिक्त फसलों को आवारा और जंगली पशुओं से बचाना होगा। ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते प्रभाव से चावल, गेहूं की पैदावार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। खेती की पद्धति में परिवर्तन करके किसान और बढ़ती जनसंख्या को बचाने की अति आवश्यकता है।
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