आस्ट्रेलिया के बाद अब फ्रांस, डेनमार्क, ब्रिटेन, यूरोपियन यूनियन और अमरीका के कुछ राज्यों में बच्चों को मोबाइल फोन से दूर रखने के लिए कानून लाए जा रहे हैं। जाहिर है, इन देशों ने बच्चों पर मोबाइल के दुष्प्रभावों को भुगता होगा। भारत में भी मोबाइल एक जैविक खतरे की तरह व्याप्त हो गया है। बच्चों के फोन इस्तेमाल को नियंत्रित करने के लिए जल्दीबाजी से नहीं, योजनाबद्ध तरीके से काम करने की जरूरत है। सबसे जरूरी है कि परिवार मिलकर स्पष्ट नियम तय करे कि कितने घंटे स्क्रीन टाइम हो, कौन-कौन से ऐप चलें और रात में फोन कहां रखा जाए। ये नियम बच्चों के साथ बातचीत करके बनाए जाएं, न कि उन पर थोपे जाएं।
अमरपाल सिंह वर्मा
राजस्थान के धौलपुर जिले के कुरेंद्रा गांव में 13 साल के विष्णु ने पिता की मामूली डांट के बाद आत्महत्या कर ली। वजह सिर्फ इतनी थी कि वह मोबाइल गेम खेल रहा था और पिता ने टोक दिया। गुस्से में वह अपने कमरे में चला गया और इहलीला समाप्त कर ली। इस घटना ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि भारत के घरों में मोबाइल केवल एक उपकरण नहीं रहा है, बल्कि यह रिश्तों के बीच खड़ी एक खाई बनता जा रहा है।
धौलपुर की यह घटना अपनी तरह की अकेली नहीं है। हाल ही में उत्तरप्रदेश के झांसी में एक महिला ने अपने आठवीं में पढ़Þने वाले बेटे की मोबाइल गेम की लत से परेशान होकर आत्महत्या कर ली। मोबाइल में उलझा बच्चा पढ़ाई नहीं करता था, जिससे उसकी मां अवसाद में थी। उसने पति से भी कहा था मगर उन्होंने अनसुना कर दिया। नतीजा, महिला की खुदकुशी के रूप में सामने आया।
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में नौवीं कक्षा की एक लड़की ने मोबाइल चलाने से रोके जाने पर नदी में कूदकर जान दे दी। थाणे में मोबाइल छीनने पर 16 वर्षीय लड़के ने आत्महत्या कर ली। यूपी के आजमगढ़ के एक गांव में 14 साल का किशोर मात्र इस वजह से फंदे पर झूल गया कि उसे गेम खेलने के लिए फोन नहीं मिला। पिछले साल जयपुर में एक महिला ने बेटी का मोबाइल छिपा दिया। इस बात पर मां-बेटी का झगड़ा हो गया। इसी दौरान मां ने रॉड उठाकर दे मारी, जिससे बेटी की जान चली गई।
मोबाइल फोन की वजह से ऐसे मामले अब हर महीने, हर जिले और हर शहर में सामने आ रहे हैं। स्मार्टफोन अब एक उपकरण मात्र नहीं रहा, बल्कि वह बच्चों के दिमाग का मालिक बनकर उनके दिमागों को बदल रहा है। इसकी वजह से बच्चों में शारीरिक समस्याएं भी बढ़ रही हैं।
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान रायपुर के एक अध्ययन के मुताबिक भारत में पांच साल से कम उम्र के बच्चे औसतन 2.22 घंटे रोज स्क्रीन पर बिताते हैं। ये समय विश्व स्वास्थ्य संगठन और इंडियन एकेडमी आॅफ पीडियाट्रिक्स के सुझाए समय से दोगुना है। यह भी चिंताजनक है कि दो साल से कम उम्र के बच्चे भी स्क्रीन पर रोज 1.23 घंटे बिता रहे हैं, जबकि इस उम्र के बच्चों के लिए डॉक्टर पूरी तरह नो स्क्रीन के पक्ष में हैं।
विशेषज्ञों का कहना है कि पांच साल से कम उम्र के बच्चों में रोज 1-1.5 घंटे से ज्यादा स्क्रीन टाइम उनके दिमाग के विकास को धीमा कर देता है। इससे भाषा सीखने की गति कम होती है, ध्यान और समझने की क्षमता घटती है, सामाजिक कौशल कमजोर पड़ते हैं और मोटापा और नींद आने की दिक्कतें बढ़ती हैं।
भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के सहयोग से दिल्ली के दो प्राइवेट स्कूलों के छात्रों पर दो वर्ष तक किए गए अध्ययन की ताजा रिपोर्ट के अनुसार बच्चे और किशोर झुककर घंटों मोबाइल या टैबलेट चला रहे हैं। क्लास रूम में भी छह से सात घंटे बैठने और शारीरिक व्यायाम न के बराबर होने से पॉस्चर (मुद्रा), मांसपेशियों और हड्डियों की समस्याएं आ रही हैं।
मोबाइल-जनित समस्याएं किस कदर बढ़ रही हैं, इसे लखनऊ में उत्तरप्रदेश महिला आयोग की जन-सुनवाई के उदाहरण से समझा जा सकता है। इस सुनवाई में अब किशोरवय बेटियों की मोबाइल लत से परेशान माएं मदद के लिए पहुंच रही हैं। आयोग की हर सुनवाई में 3-4 मामले ऐसे आते हैं जिनमें महिलाओं का कहना है कि उनकी किशोरवय बेटियां फोन का अत्यधिक इस्तेमाल करती हैं और रोकने पर उनसे झगड़ा, बदसलूकी या हिंसक व्यवहार करती हैं।
विशेषज्ञों के अनुसार स्मार्टफोन के कारण केवल पढ़ाई नहीं बिगड़ रही। व्यवहार में आक्रामकता, एकाकीपन, देर रात तक जागना, आॅनलाइन चैटिंग और वर्चुअल दुनिया में जीना अब सामान्य बनता जा रहा है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार मोबाइल दिमाग में वही प्रतिक्रिया पैदा करता है जो नशे में होता है। बार-बार डोपामाइन रिलीज होने से बच्चा वास्तविक दुनिया से कटने लगता है। इस लत का पहला लक्षण मां-बाप से चिड़चिड़ापन होता है। दूसरा लक्षण फोन छीने जाने पर हिंसक प्रतिक्रिया या खुद को नुकसान पहुंचाने की धमकी है। तीसरे लक्षण में पढ़ाई, दोस्ती, परिवार, नींद सबमें कमी होने लगती है।
दरअसल, मानसिक रूप से अपरिपक्व होने के कारण बच्चे इतनी छोटी उम्र में खुद को संभाल नहीं पाते। वे सोचते हैं कि फोन ही उनकी आजादी है। इसलिए जैसे ही ये छिनता है, वे नियंत्रण खो देते हैं। इस मामले में माता-पिता गलती कर रहे हैं। पहले तो माता-पिता ही बच्चे को फोन पकड़ा देते हैं, ताकि वह चुप रहे। बाद में जब बच्चे इसी में उलझे रहते हैं तो वे अचानक सख्ती करते हैं, पर तब तक स्थिति हाथ से निकल चुकी होती है।
बच्चों के फोन इस्तेमाल को नियंत्रित करने के लिए जल्दीबाजी से नहीं, योजनाबद्ध तरीके से काम करने की जरूरत है। सबसे जरूरी है कि परिवार मिलकर स्पष्ट नियम तय करे कि कितने घंटे स्क्रीन टाइम हो, कौन-कौन से ऐप चलें और रात में फोन कहां रखा जाए। ये नियम बच्चों के साथ बातचीत करके बनाए जाएं, न कि उन पर थोपे जाएं।
फोन चलाने की पाबंदी मात्र से समस्या का समाधान नहीं हो सकता। इसके बजाय बच्चों को खेल, आर्ट, दोस्तों के साथ समय बिताने और घर के छोटे-मोटे काम जैसे विकल्प दिए जा सकते हैं। माता-पिता को खुद को बदलना होगा क्योंकि अगर वे लगातार मोबाइल में व्यस्त रहेंगे तो बच्चा स्वाभाविक रूप से उसी रास्ते पर जाएगा।
इसके साथ-साथ बच्चों की भावनाओं को समझना भी जरूरी है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार कई बार बच्चे सामाजिक दबाव, अकेलेपन से बचने के लिए स्क्रीन की दुनिया में शरण लेते हैं। फोन को एकदम से छीन लेने की जगह उपयोग को धीरे-धीरे कम करना बेहतर होगा, ताकि बच्चा मानसिक झटका महसूस न करे। यह केवल मोबाइल की लत का मामला नहीं है बल्कि एक सामाजिक संकट है जो नई पीढ़ी के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है। यह पीढ़ी देश का भविष्य बनने के बजाय मोबाइल फोन के स्क्रीन के भविष्य में उलझती जा रही है।
धौलपुर के बच्चे विष्णु, जान देने वाली झांसी की महिला, बिलासपुर की लडकी और थाणे व आजमगढ़ के किशोर भौगोलिक रूप से भले ही अलग-अलग हैं, मगर इनसे समाज को साझा चेतावनी मिल रही है। अगर इस चेतावनी को अनसुना किया जाता रहा, तो आने वाले समय में यह समस्या और भी भयावह हो जाएगी। ऐसे में आज से ही घरों में एक नया अनुशासन शुरू करने की आवश्यकता है।

