
एक दिन महात्मा बुद्ध एक वृक्ष को नमन कर रहे थे। दूर खड़े एक भिक्षु ने देखा तो उसे हैरानी हुई। वह बुद्ध के पास गया और पूछा, भंते! आपने इस वृक्ष को नमन क्यों किया? भिक्षु की बातें सुनकर बुद्ध ने जवाब में कहा, क्या इस वृक्ष को मेरे नमन करने से कुछ अनहोनी हो गई?’ शिष्य बोला, नहीं भगवन! ऐसी बात नहीं, पर मुझे यह देखकर थोड़ी हैरानी अवश्य हुई कि आप जैसा ज्ञानी महापुरुष इस वृक्ष को नमस्कार कर रहा है, जबकि यह न तो आपकी किसी बात का उत्तर दे सकता है और न ही आपके नमन करने पर अपनी प्रसन्नता जाहिर कर सकता है। यह तो बेजान है। यह न बोल सकता है, न सुन सकता है। बुद्ध मुस्कराए और उन्होंने कहा, वत्स! तुम्हारा सोचना गलत है। वृक्ष भले बोलकर उत्तर न दे सकता हो, पर जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति की एक भाषा होती है, उसी प्रकार प्रकृति की भी अपनी भाषा होती है। वृक्ष में भी प्राण हैं, उसकी भी अपनी भाषा है। ये बोल नहीं सकते, लेकिन मौन रह कर भी बहुत कुछ कह जाते हैं। इनकी भाषा को सुनना भी अद्भुत अनुभव है। इस वृक्ष के नीचे बैठकर मैंने साधना की है। इसकी घनी पत्तियों ने मुझे शीतलता प्रदान की है। पत्तियों के हिलने से हवा मिली है। चिलचिलाती धूप, वर्षा से इसने मेरा बचाव किया है। प्रत्येक पल इसने मेरी सुरक्षा की। इसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना मेरा परम कर्तव्य है। सभी को ऐसा करना चाहिए। और बात सिर्फ इस पेड़ की नहीं है। प्रत्येक जीव को समस्त प्रकृति का कृतज्ञ होना चाहिए कि उसने मनुष्य को इतना कुछ दिया।
