कांग्रेस के तथाकथित हाईकमान के बारे में यह कहावत कई दशकों से चली आ रही है कि वह न केवल अंधा और बहरा है अपितु आलसी भी है। सोनिया गांधी ने जब कांग्रेस अध्यक्ष का प्रभार संभाला तब से तो यह प्रवृत्ति कुछ ज्यादा ही बढ़ गयी थी जो अब राहुल गांधी से होकर खड़गे तक पहुंचते-पहुंचते अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गई है। अभी ज्यादा वर्ष नहीं हुए हैं जब असम के कांग्रेसियों में तत्कालीन मुख्यमंत्री गोगोई के विरुद्ध भारी असंतोष था और हाईकमान कान में रुई डाले बैठा रहा। परिणाम यह हुआ कि एक काबिल और जनाधार वाले नेता हेमंता विस्वास इस दुर्व्यवहार की वजह से साथियों सहित कांग्रेस छोड़कर भाजपा में चला गए। वहां भाजपा अब दो बार से सत्ता में है और कांग्रेस गर्त में। हेमंता ही इस विजय की धुरी बने। और भी पीछे जाएं तो आंध्र प्रदेश में जगन रेड्डी की इसी हाईकमान ने घोर उपेक्षा की जिसके परिणामस्वरूप जगन ने अपनी पार्टी बनायी, जीते और वहां सरकार चला रहे हैं। कांग्रेस वहां जमीन पर गिरी हुई है। मध्यप्रदेश में सिंधिया जैसे ऊर्जावान नेता को मुख्यमंत्री नहीं बना कर गांधी परिवार के एक बूढ़े सेवक कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनाया जिसके अहंकार और उपेक्षित व्यवहार के कारण सिंधिया दो दर्जन विधायकों के साथ भाजपा में चले गए और वहां सरकार ही चली गई। ये ही कमलनाथ अब मीडिया रिपोर्ट के अनुसार हाल ही में भाजपा का दरवाजा खटखटाते से दिखाई पड़े थे। हाईकमान चुप साधे पड़ा हुआ था। यही हाल राजस्थान में हुआ जहां एक युवा लोकप्रिय नेता सचिन पायलट को बैकफुट पर धकेल कर अशोक गहलोत के सामने इस हाईकमान ने पूर्ण समर्पण कर दिया और फिर से सरकार गंवा बैठे चुनाव में। उत्तराखंड में भी स्थानीय प्रभावशाली नेताओं को नजर अंदाज करके बार बार एक अलोकप्रिय वृद्ध कांग्रेसी हरीश रावत को चुनावों की बागडोर संभलवाते रहे और हारते रहे।
और अभी ताजा ताजा लोगों ने हिमाचल प्रदेश का नाटक देखा जिसमें अभी कई मोड़ आने बाकी हैं। वहां मुख्यमंत्री की कार्यशैली, मनमानेपन और अधिकारियों पर निर्भरता के कारण विधायकों एवं संगठन में एक वर्ष से असंतोष फैला हुआ था जिसकी जानकारी हाईकमान को भी दी जा रही थी। किंतु कोई कार्यवाही नहीं, कोई सुनवाई नहीं। और परिणाम यह हुआ कि बहुमत होते हुये भी कांग्रेस वहां राज्य सभा सीट हार गयी और अब विधायकों के खुले विद्रोह के कारण वहां सरकार खतरे में आ चुकी है। यहां भी वो ही खानापूर्ति। पर्यवेक्षक भेजे गये हैं। वे अपनी रिपोर्ट देंगे। हाईकमान रिपोर्ट पर बैठ जायेगा। लोकसभा चुनाव तक कुछ करेगा नहीं और भाजपा के तथाकथित आपरेशन लोटस को कोसता रहेगा। और ये कैसा मुख्यमंत्री है जिसके पास शासन के समस्त सूत्र होने के बाद भी वो विधायकों के विद्रोह की कवायद का पता नहीं लगा पाया। हास्यास्पद तो यह है कि अपने ही राज्य की राजधानी में खड़े होकर वह यह आरोप लगा रहा है कि हरियाणा पुलिस ओर सीआरपीएफ वाले आये और उसके 6 विधायकों का अपहरण करके ले गये। किस प्रकार का प्रशासन वहां चल रहा है उसका इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है।
कांग्रेस के साथ दिक्कत यह है कि वो अपने आंख और कान अपने प्रदेश प्रभारियों के पास रखती है और आम तौर पर ये प्रभारी वो होते हैं जिनका अपने खुद के प्रदेश में कोई वजूद नहीं होता। इनका काम केवल जहां पार्टी सरकार में है वहां के मुख्यमंत्री का यस मैन बनकर रहना और उसकी दिल्ली में पैरवी अच्छे से करना है। वहां क्या राजनीति चल रही है, क्या असंतोष है, क्या समाधान है आदि के बारे में या तो उनको जानकारी नहीं होती है और या फिर वे जानबूझकर इसे गोल कर जाते हैं। टिकट वितरण में यही प्रभारी लोग प्रदेश नेतृत्व के साथ मिलकर खूब गड़बड़ करते हैं और सही, सक्षम और जिताऊ व्यक्ति को टिकट मिलने ही नहीं देते हैं। तो पार्टी के पराभाव में एक बड़ा योगदान इन प्रदेश प्रभारियों का भी रहा है। अब सोच सकते हैं कि कांग्रेस ने हिमाचल का प्रभारी राजीव शुक्ला को बना रखा है। वो राजीव शुक्ला जो आईपीएल के संयोजक रहे हैं और इस नाते बीसीसीआई में हिमाचली अनुराग ठाकुर के तथा अमित शाह के बेटे के प्रिय रहे हैं। वे एक व्यवसायी हैं तो अडानी के भी निकट हैं। कभी सुना नहीं कि उन्होंने कभी कोई चुनाव लड़ा हो और जीता हो। तो ऐसे व्यक्ति को हिमाचल भेजकर कांग्रेस हाईकमान ने अपना मानसिक दिवालियापन ही तो दिखाया है। परिणाम सबके सामने है।
आज कांग्रेसियों में ऊहापोह की स्थिति है। वे समझ नहीं पा रहे हैं कि कांग्रेस में हाईकमान कौन है और वे किसका दरवाजा खटखटाएं? सोनिया और प्रियंका एक धुरी हैं जो निष्क्रिय हैं। दूसरी धुरी अकेले राहुल गांधी हैं जो मोदी, आरएसएस और यात्राओं पर सारा जोर लगाते आ रहे हैं बनिस्बत संगठन पर ध्यान देने के। संगठन पर तो उन्होंने तब भी ध्यान नहीं दिया था जब वो महासचिव और अध्यक्ष रहे थे। तीसरी धुरी खड़गे की है जो कहने को राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं किंतु निर्भर पूरी तरह अपने संगठन महासचिव, राष्ट्रीय प्रवक्ता और प्रदेश प्रभारियों पर हैं। राज्यों के नेतृत्व से या राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्यों से उनका कोई संवाद कभी होता नहीं दिखा। उन्हें बड़े निर्णयों के लिये सोनिया और राहुल दोनों की एन ओ सी की जरूरत पड़ती है।
लोकसभा चुनाव सिर पर आ गए हैं, किंतु जहां भाजपा और अन्य दल अपने प्रत्याशियों के चयन के लिए जोर शोर से लगे हुये हैं वहीं कांग्रेस अभी तक कमेटियों में ही उलझी हुई है। ना तो उसकी इंडिया गठबंधन के घटकों से सपा और आप को छोड़ कर कहीं सीट बंटवारा फाइनल हुआ है और न ही उसने अपने प्रभुत्व वाले इलाकों में प्रत्याशी चुनने का काम किया है। किसी को नहीं पता कि अन्य घटकों से कांग्रेस की तरफ से कौन बात कर रहा है और कौन निर्णय ले रहा है। हमेशा की तरह फार्म भरने की अंतिम तारीख को या एक दो दिन पहले वो प्रत्याशियों की अपनी लिस्ट जारी करेगी। तब तक सामने वाला भाजपा प्रत्याशी क्षेत्र में दर्जनों सभाएं कर चुका होगा।
अभी भी वक्त है कांग्रेस अपने को बदले। कार्य प्रणाली और निर्णय प्रणाली में बदलाव लाए। प्रदेश नेतृत्व को मजबूत रखे किंतु उसपर निगाह और नियंत्रण भी रखे। यात्राओं से वोट नहीं मिलते, संगठन और व्यूह रचना से वोट मिलते हैं।