किसी भी देश में ‘याराना पूंजीवाद’ की अवस्था उस समय मानी जाती है जब वहां के सत्ता-प्रमुख किन्हीं विशेष पूंजीपतियों के हित में राज्य की नीतियां बनाकर उन्हें कार्यान्वित करते हैं। ऐसे निर्णय अक्सर आपसी समझ, निजी लाभ और भय के आधीन लिए जाते हैं। याराना-पूंजीवाद में लोकहित की भावना तो अनदेखी रह जाती है, लेकिन आम लोगों के लिए लोक-लुभावन शब्दावली और उत्सवों का खूब खेल खेला जाता है। यूरोप में वर्ष 1500 से 1750 के बीच का समय व्यापार- युग माना जाता है। इस काल में अर्जित धन के बाद औद्योगिक क्रांति हुई थी और उसके बाद औद्योगिक-युग शुरू हुआ था। महात्मा गांधी ने अपनी कालजयी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज में लिखा है-हिन्दुस्तान अंग्रेजों ने लिया है सो बात नहीं है, बल्कि हमने दिया है। हिन्दुस्तान में वह अपने बल पर नहीं टिके, बल्कि हमने उन्हें टिका रखा है।
आपको मैं याद दिलाता हूं कि हमारे देश में वे व्यापार करने के लिए आए थे। वे बेचारे तो राज करने का इरादा भी नहीं रखते थे। कंपनी के लोगों की मदद किसने की? गांधीजी की इस बात को नए संदर्भ में ठीक से समझने के लिए हमें इतिहासकार विलियम डेलरिम्पल की ‘अराजकता : ईस्ट इंडिया कंपनी, कापोर्रेट हिंसा और साम्राज्य की लूटपाट’ और दूसरी पुस्तक ‘अराजकता : ईस्ट इंडिया कंपनी का निष्ठुर उत्थान’ किताबों को पढ़ना चाहिए। ये पुस्तकें ईस्ट इंडिया कंपनी के उत्थान से अधिक भारतीय नबावों, राजाओं और व्यापारियों के पतन का महावृतांत है।
इसकी शुरुआत ‘जगतसेठ’ की पदवी से होती है जो मुगल बादशाह मुहम्मद शाह ने 1723 में सेठ फतेहचंद को एक मोहर के साथ प्रदान की थी। इस परिवार के ही लोग 150 वर्षों तक जगतसेठ की मोहर लगाकर बंगाल और उत्तर-भारत में अपना व्यापार करते रहे। इस पूरे परिवार के सदस्यों को जगतसेठ के नाम से जाना जाने लगा था। इनके पूर्वज हीरानंद साहू मारवाड़ छोड़ पटना में बस गए थे। उन दिनों यह परिवार यूरोपियन शोरा का सबसे बड़ा व्यापारी था। इसके अतिरिक्त यह हुण्डी और कर्ज देने का काम भी करते थे। सेठ के एक पुत्र माणिकचंद ने बंगाल की राजधानी ढाका में अपना व्यापार शुरू किया था।
माणिकचंद सेठ को ही जगतसेठ परिवार के संस्थापक के रूप में जाना जाता है। उस समय मुर्शिद कुली खान बंगाल, बिहार और उड़ीसा के सूबेदार थे। सेठ माणिकचंद अपनी सेवाओं से शीघ्र मुर्शिद खान के मित्र और खजांची बन गए। इसके साथ ही उन्हें पूरे सूबे का लगान वसूलने का अधिकार भी मिल गया। इन दोनों ने आपसी सलाह से बंगाल की नई राजधानी मुर्शिदाबाद बसाई, जो व्यापार के क्षेत्र में भारत का सबसे बड़ा केंद्र बन गई। इन दोनों ने मिलकर सम्राट औरंगजेब को निर्धारित एक करोड़ 30 लाख से बढ़ाकर दो करोड़ का लगान भेजा था। इससे मुर्शिद खान की हैसियत मुगल दरबार में और अधिक बढ़ गई।
जगतसेठ के व्यापार का केंद्र मुर्शिदाबाद बन गया और उन्होंने ढाका, पटना और दिल्ली सहित उत्तरभारत के कई बड़े शहरों में जगतसेठ की शाखाएं प्रारंभ कर दीं। जगतसेठ कई राजाओं, महाराजाओं के साथ-साथ ईस्ट इंडिया कंपनी, डच और फ्रेन्च कंपनियों को भी कर्ज दिया करते थे। उस समय इनका कर्ज लाखों रुपए मासिक हुआ करता था। मुगल शासनकाल में बंगाल की सीमाएं आसपास के कई राज्यों तक फैली थीं। यह सबसे अधिक समृद्ध और सबसे अधिक लगान देने वाला सूबा बन गया था। जगतसेठ घराना हिन्दुस्तान का सबसे अमीर घराना बन गया था। उस समय उनकी संपत्ति 10 करोड़ पौंड के बराबर आंकी जाती थी, जो आज के एक हजार बिलियन (अरब) पाउंड से भी अधिक होगी। यह परिवार अपनी रक्षा के लिए दो से तीन हजार सैनिकों की एक निजी सेना भी रखता था। इस परिवार के पास अविभाजित बंगाल की कुल जमीन में से आधी का मालिकाना हक था।
बंगाल में ईस्ट इंडिया कंपनी अपने इरादों में सफल नहीं होती, यदि तत्कालीन आर्थिक शक्ति जगतसेठ समेत कुछ अन्य सेठ उसे कर्ज नहीं देते। इन सेठों की सहायता से ही कंपनी ने बड़ी मात्रा में तोपें, घोड़े, हाथी, बैलगाड़ियां, सैनिक और हथियार खरीदे थे। इसके परिणाम स्वरूप ही कंपनी नबावों के सामने अधिक शक्तिशाली होकर खड़ी हो गई थी। डेलरिम्पल बताते हैं कि 1757 के पलासी के युद्ध में यूरोपियन युद्ध-तकनीक और प्रशासनिक क्षमता की कोई भूमिका नहीं थी। इस भूमिका को भारतीयों द्वारा ही निभाया गया था। पलासी के युद्ध में जगतसेठ ने मीर जाफर और ईस्ट इंडिया कंपनी का साथ दिया था। इस युद्ध में सिराजुद्दौला की हार पहले ही सुनिश्चित हो चुकी थी। याराना-पूंजीवाद का रंग इस युद्ध के पहले कुछ और था, युद्ध के बाद इसके रंग में परिवर्तन हो गया जिसका सीधा प्रभाव जगतसेठ के आर्थिक हितों पर पड़ना शुरू हो गया। जगतसेठ भूल गए कि ईस्ट इंडिया कंपनी अपने आर्थिक हितों के कारण ही भारत में सक्रिय है।
मीर जाफर ने बंगाल का नवाब बनते ही ईस्ट इंडिया कंपनी को व्यापार करने के साथ-साथ 24-परगना की जमींदारी भी सौंप दी। कुछ समय बाद मीर जाफर का दामाद मीर कासिम नबाव बना तो उसने ईस्ट इंडिया कंपनी को व्यापार करने के लिए और अधिक अधिकार ही नहीं दिए, बल्कि ईस्ट इंडिया कंपनी और जगतसेठ से दूरी बनाए रखने के लिए वह अपनी राजधानी मुर्शिदाबाद से मुंगेर ले गया। इस प्रकार जगतसेठ के पास बंगाल के खजांची का पद और लगान एकत्रित करने का एकाधिकार नहीं रह गया।
दूसरी ओर अंग्रेजों ने भी जगतसेठ के स्थान पर अन्य सेठों के साथ व्यापार शुरू कर दिया था। राज्य और शासन की इन विपरीत परिस्थितियों में जगतसेठ के परिवार का आर्थिक-सामाजिक पतन शुरू हो गया। ईस्ट इंडिया कंपनी ने जगतसेठ की सेवाओं के बदले 1912 तक थोड़ी-बहुत पेंशन दी, बाद में इसे भी बंद कर दिया गया। इस प्रकार जगतसेठ का नाम सदा के लिए व्यापार जगत से मिट गया।
ईस्ट इंडिया कंपनी की जीत का विपरीत प्रभाव आम जनता और किसानों पर भी पड़ा। कंपनी ने अपनी जमीदारियां नीलाम करना शुरू कर दीं। सबसे अधिक बोली लगाने वालों को जमींदारी दी जाती और उसके पैसा नहीं देने पर उसे हटाकर दूसरे व्यक्ति को रख दिया जाता। इससे परम्परागत सौहार्दपूर्ण जमींदारी प्रथा समाप्त हो गई और किसानों पर अत्यधिक अत्याचार करने वाले लोग जमींदार बनने लगे। याराना-पूंजीवाद का सबसे जरूरी और महत्वपूर्ण सबक यह है कि कैसे भ्रष्ट राजनेताओं और कंपनियों का आपसी गठजोड़ किसी देश की अर्थव्यवस्था को नष्ट कर सकता है। भारत जैसे प्राचीन संस्कृति वाले देश में विशेषरूप से जागरूक रहने की आवश्यकता है, क्योंकि ऐसे देश में याराना-पूंजीवाद धर्म और राष्ट्रवाद का मुखौटा पहनकर भी आता है।